कुछ लड़ाइयां युद्ध बंद होने के बाद शुरू होती हैं. यूं कह लें कि कुछ सफलताएं चुनौतियों की शुरुआत होती हैं जैसे कर्नाटक को ही लें. यकीनन, कर्नाटक ऊंटों के लिए मशहूर नहीं है लेकिन चुनावी ऊंट तो कहीं भी करवट ले सकते हैं. इसलिए अगर...
· लोगों ने कर्नाटक में कांग्रेस को पलट दिया तो क्या गारंटी कि लोग मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में भाजपा को नहीं पलटेंगे. अगर लोग सरकारें बदलना चाहते हैं तो कहीं भी बदलेंगे. गुजरात में गोली कान के पास से निकल गई.
· और अगर कांग्रेस बनी रह गई तो पता नहीं कौन-कौन-सी लहरों को कर्नाटक के तट पर सिर पटक कर खत्म हुआ मानना होगा क्योंकि अन्य चुनावों की तरह कर्नाटक का चुनाव प्रधानमंत्री मोदी ही लड़ रहे हैं.
कर्नाटक के बाद नरेंद्र मोदी-अमित शाह की चक्रवर्ती भाजपा उसी चुनौती से रू-ब-रू होने वाली है जिसकी मदद से भाजपा ने सिर्फ पांच साल में भारत के वृहद भूगोल को कमल-कांति से जगमगा दिया. भारत में 2013 से लोगों पर सरकार बदलने का जुनून तारी है. अपवाद नियम नहीं होते इसलिए बिहार, गुजरात, बंगाल और दिल्ली के जनादेश अस्वाभाविक माने जाते हैं. इनके अलावा, पिछले पांच साल में केंद्र से लेकर राज्यों और यहां तक कि पंचायत नगरपालिकाओं तक हर जगह लोगों ने सरकारें पलट दीं.
भाजपा ने इस जुनून पर सवारी की और राष्ट्रीय व क्षेत्रीय दलों को रौंदते हुए वह कर्नाटक के मोर्चे पर आ डटी. अलबत्ता सरकारें पलटने वाले इस ताजा सफर का टिकट, कर्नाटक में खत्म हो जाएगा क्योंकि पूरे देश में पिछले पांच साल से चल रही सत्ता विरोधी लहर का आखिरी पड़ाव है कर्नाटक.
मोदी-शाह की जोड़ी ने सरकारों को पलटने की चाह को इतना उग्र और घनीभूत कर दिया कि देश में चुनाव लडऩे का तौर-तरीका बदल गया. लेकिन अब उन्हें सरकार पलटने की दूसरी लहर से आए दिन और जगह-जगह निबटना होगा जो सीधे उनसे मुकाबिल होगी.
सूबेदारों की बदली
बीते महीने कर्नाटक में चुनावी आतिशबाजी के बीच, दिल्ली के बंद कमरों में सत्ता विरोधी लहर को थामने की कोशिश शुरू की गई. राजस्थान के मोर्चे पर सेनापति बदलने की तैयारी है. मुख्यमंत्री को रुखसत करने के शुरुआती प्रयास परवान नहीं चढ़े तो पार्टी अध्यक्ष अपने पद से हट गए. मुख्यमंत्रियों को बदलना यानी चुनाव से पहले नया चेहरा देना, सरकारों के खिलाफ विरोध के तेवर कम करने का पुराना तरीका है. गुजरात में इसे आजमाया गया था.
सरकार से गुस्से की लहर में राज्य पहला निशाना होंगे. राज्य सरकारों की नाकामी केंद्र के खाते में भी जुड़ेगी. मुखिया बदल कर गुस्सा थामा जा सकता है लेकिन बदले गए मुखिया नुक्सान नहीं करेंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं है.
नुमाइंदों से चिढ़
भाजपा के आलाकमान को अपने नुमाइंदों (सांसदों) से बढ़ती नाराजगी का
एहसास गुजरात चुनाव के पहले ही हो गया था. पार्टी को सरकारी कार्यक्रमों के जमीनी
क्रियान्वयन की हकीकत पता चल रही है. असंख्य सांसद व विधायक उम्मीदों पर खरे नहीं
उतरे हैं. सत्ता विरोधी लहर काटने के लिए नए चेहरे चुनाव में उतारे जाते हैं.
भाजपा को यह काम बड़े पैमाने पर करना होगा ताकि स्थानीय मोहभंग को कम किया जा सके.
लेकिन यह बदलाव निरापद नहीं होगा. विरोध और भितरघात इसके साथ चलते हैं.
परिवर्तन का चक्र
नरेंद्र मोदी की सबसे बड़ी खासियत यह है कि वे पिछले चार साल में यथास्थिति के प्रति समग्र इनकार का प्रतीक बनकर उभरे हैं. 2014 के जनादेश के बाद पूरे देश में सत्ता विरोधी मत और परिवर्तन के तेवर उन्हें देखकर परवान चढ़े हैं. यह सरकारों को पलटने का जुनून ही था जिसने भाजपा को सफलता से सराबोर कर दिया. लेकिन चुनाव तो पांच साल पर होने ही हैं. गुजरात में भाजपा को पहली बार एहसास हुआ कि सरकार के खिलाफ लहर का रुख बदल सकता है और उत्तर प्रदेश में गोरखपुर व फूलपुर तक आते-आते यह रुख बदल भी गया.
बेचैन मतदाता परिपक्व होते लोकतंत्र की पहचान हैं. शिक्षा और सूचना जितना बढ़ती है, सरकारों से मोहभंग उतने ही प्रखर होते जाते हैं. प्रचार वीर सरकारें ज्यादा सशक्त मोहभंग आमंत्रित करती हैं.
कर्नाटक के चुनाव का नतीजा चाहे जो निकले लेकिन इसके बाद सत्ता विरोधी जुनून का ग्रह गोचर बदलेगा. कर्नाटक के बाद भाजपा की जद्दोजहद (अपवादों के अलावा), सरकारें पलटने के जुनून को थामने की होगी. केवल 2019 का बड़ा चुनाव ही नहीं बल्कि 2022 तक हर प्रमुख चुनाव में भाजपा को बार-बार यह हिसाब देना होगा कि उसे ही दोबारा क्यों चुना जाए?
2 comments:
बहुत अच्छा। शानदार विश्लेषण। हमेशा की तरह उम्दा।
Excellent piece Sir
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