Saturday, April 13, 2019

उम्मीदों का तकाजा


ह जुलाई, 2016 थी, कैबिनेट में फेरबदल से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था, ‘‘मेरे लिए सफलता का अर्थ यह है कि लोग बदलाव महसूस करें. यदि उपलब्धियों का दावा करना पड़े तो मैं इसे सफलता नहीं मानूंगा.’’

उम्मीदों के उफान पर बैठकर सत्ता में पहुंचे मोदी का यह आत्मविश्वास नितांत स्वाभाविक था.

फिर अचानक क्या हुआ?

दो दर्जन से अधिक नई और बड़ी स्कीमों के जरिए भारत में युगांतर की अलख जगाने के बाद मरियल, हताश और बिखरे विपक्ष से मुकाबिल एक सशक्त सरकार तर्क और नतीजों पर नहीं बल्कि राष्ट्रवाद उबाल कर वोट मांग रही है. क्यों सरकार के मूल्यांकन केंद्र में बदलाव महसूस कराने वाली स्कीमें या कार्यक्रम पर नहीं बल्कि एक नाकारा और बदहाल पड़ोसी (पाकिस्तान) से आर-पार करने के नारे हैं?

चुनाव के नतीजों के परे हमें इस बात की फिक्र होनी चाहिए कि 2014 से देश में बहुत कुछ ऐसा हुआ था जो अभूतपूर्व था जैसे

·       केंद्र में पूर्ण बहुमत की सरकार और लोकप्रिय नेतृत्व

·       महंगाई में निरंतर कमी

·       कच्चे तेल की न्यूनतम कीमत यानी कि विदेशी मुद्रा मोर्चे पर आसानी

·       ताजा मंदी से पहले तक विश्वसनीय अर्थव्यवस्था में बेहतर विकास दर

और सबसे महत्वपूर्ण

आर्थिक उदारीकरण के बाद पहली बार पांच सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं यानी क्लब फाइव (महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, गुजरात और कर्नाटक) में तीन राज्यों में उसी दल का शासन था जो केंद्र में भी राज कर रहा है. उभरते हुए तीन राज्य (राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश) भी 2018 तक टीम मोदी का हिस्सा थे.

भारत के 11 बड़े राज्य (महाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, राजस्थान, केरल, बिहार, ओडिशा और संयुक्त आंध्र प्रदेश) 2020 तक देश की जीडीपी में 76 फीसदी के हिस्सेदार होंगे, उनमें सात (मार्च 2018 तक आंध्र प्रदेश) में भाजपा का शासन है. तीन प्रमुख छोटी अर्थव्यवस्थाएं यानी झारखंड, हरियाणा और असम भी भाजपा के नियंत्रण में हैं.

यह ऐसा अवसर था, जिसके लिए पिछली सरकारें तरसती रहीं. उदारीकरण के बाद सुधारों के कई प्रयोग इसी वजह से जमीन नहीं पकड़ सके क्योंकि बड़े और संसाधन संपन्न राज्यों से केंद्र के राजनैतिक रिश्तों में गर्मजोशी नहीं थी.

2017 के बाद राज्यों के चुनाव नतीजे ही सिर्फ इस आशंका को मजबूत नहीं करते बल्कि कुछ और तथ्य भी इसकी पुष्टि करते हैं कि क्यों एक ताकतवर सरकार को अपने कामकाज के बजाए भावनाओं की हवा बांधनी पड़ रही है.

         क्रिसिल की ताजा रिपोर्ट बताती है कि 2018 में सभी प्रमुख राज्यों की विकास दर उनके पांच साल के औसत से नीचे आ गई. प्रमुख कृषि प्रधान राज्यों में भी खेती विकास दर नरम पड़ी.

         2013 से 18 के बीच तेज विकास दर वाले सभी राज्यों की रोजगार गहन क्षेत्रों (कपड़ा, मैन्युफैक्चरिंग भवन निर्माण) में रोजगारों की वृद्धि दर घट गई. केवल गुजरात और हरियाणा कुछ ठीक-ठाक थे. गुजरात में ऑटोमोबाइल मैन्युफैक्चरिंग में रोजगार बढ़े लेकिन इस क्षेत्र में बिक्री की मंदी के ठोस संकेत मिल रहे हैं.

मोदी ने राज्यों को संसाधन देने में कोई कमी नहीं की. वित्त आयोग की सिफारिशों से लेकर जीएसटी के नुक्सान की भरपाई तक केंद्र ने राज्यों को खूब दिया. यहां तक कि योजना आयोग खत्म होने के बाद राज्यों से आवंटन और खर्च का हिसाब मांगने की व्यवस्था भी बंद हो गई.

आंकड़े बताते हैं कि देश का करीब 56-60 फीसदी विकास खर्च (पूंजी खर्च जिससे निर्माण होता है, रोजगार आते हैं) अब राज्यों के हाथ में है. सभी राज्यों के कुल पूंजी खर्च का 90 फीसदी हिस्सा‍ 17 प्रमुख राज्यों के नियंत्रण में है. इनमें दस राज्यों में 2018 तक मोदी की सेना के सूबेदार थे.
क्या अपनीटीम इंडियाकी वजह से मोदी कुछ ऐसा करके नहीं दिखा सके जिससे लोग बदलाव महसूस कर सकें

राष्ट्रवाद तो भाजपा की पारंपरिक राजनैतिक पूंजी है लेकिन 2014 के चुनाव में नरेंद्र मोदी 12 फीसदी नया वोट लेकर आए. यह मोदी का वोटर था जो परिवर्तन के अलख और उम्मीदों के उफान के साथ भाजपा के पास आया और पिछड़े-गरीब पश्चिमोत्तर भारत में रिकॉर्ड सफलता का आधार बना.

वह विकासवाद का वोट था जिसे रोके रखने के लिए मौका, माहौल, मौसम तीनों मोदी के माफिक थे. इन्हें जोड़े रखने का जिम्मा मोदी के सूबेदारों पर था, जो चूक गए हैं. चुनाव नतीजे कुछ भी हों लेकिन केंद्र व अधिकांश राज्यों में राजनैतिक संगति का संयोग अब मुश्किल से बनेगा.

2019 में भाजपा की जीत का दारोमदार दरअसलमोदी के वोटरोंपर है जिनके चलते 2014 में भाजपा अपने दम पर बहुमत ले आई. राष्ट्रवाद से इत्तिफाक रखने वाले भाजपा छोड़ कर कहां जा रहे हैं!

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