नरेंद्र मोदी भारत के आर्थिक उदारीकरण की एक नई लहर का नेतृत्व करने के करीब खड़े हैं. अमेरिका और चीन का व्यापार युद्ध भारत को इस मुकाम पर ले आया है जहां से भारतीय अर्थव्यवस्था का दूसरा वैश्वीकरण शुरू हो सकता है.
इस बदले परिदृश्य को समझने में इतिहास हमारी मदद के लिए खड़ा है.
क्रिस्टोफर कोलम्बस की अटलांटिक पार यात्रा में अभी 62 साल बाकी थे. कोलम्बस के जहाजी बेड़े सांता मारिया से पांच गुना बड़े जहाजी कारवां के साथ अफ्रीका तक की छह ऐतिहासिक यात्राओं के बाद महान चीनी कप्तान जेंग ही जब तक चीन लौटा (1424), तब तक मिंग सम्राट योंगल का निधन हो चुका था. चीन के नए राजवंश ने समुद्री यात्राओं पर पाबंदी लगाते हुए दो मस्तूल से अधिक बड़े जहाज बनाने पर मौत की सजा का ऐलान कर दिया. चीन का विदेश व्यापार जिस समय अंधेरे में गुम हो रहा था, उस समय स्पेन और पुर्तगाल के बंदरगाहों पर जहाजों के बेड़े सजने लगे थे जो एशिया की तरफ कूच करने वाले थे.
चीन को यह बात समझने में 500 से अधिक साल लगे कि जहाज बंदरगाह पर खड़े होने के लिए नहीं बनाए जाते. दूसरी तरफ मुक्त बाजार के संस्कारों की छाया में स्वाधीन होने वाले भारत को भी यह समझने में वक्त लगा कि व्यापार से दुनिया का कोई देश कभी बर्बाद नहीं हुआ है (बेंजामिन फ्रैंकलिन).
चीन ने जब एक बार ग्लोबलाइजेशन की सवारी की तो दुनिया फिर उसके पीछे हो ली लेकिन मुक्त व्यापार के फायदों से सराबोर भारत की दुविधाएं पिछले पांच साल में कई गुना बढ़ गई हैं.
नरेंद्र मोदी यदि पिछले कार्यकाल की तरफ देखना चाहें तो उन्हें नजर आएगा कि एक तरफ वे ताबड़तोड़ विदेश यात्राएं कर रहे थे, दूसरी तरफ स्वदेशी और संरक्षणवाद में जकड़ी उनकी विदेश व्यापार नीति उन फायदों को भी गंवा रही थी जो उनके पूर्ववर्तियों ने उठाए थे.
अलबत्ता, समय मोदी को जहां ले आया है, वहां वे भारत के दूसरे ग्लोबलाइजेशन के अगुआ बन सकते हैं. अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध के नजरिये से भारत के हालात 1980 के चीन जैसे हैं जब अमेरिका-जापान के बीच व्यापार युद्ध चल रहा था. जापान के साथ कारोबार में अमेरिकी घाटा कुल घाटे का 80 फीसदी (आज के चीन से ज्यादा) पर था. अमेरिका ने जापान से आयात पर शत प्रतिशत कस्टम ड्यूटी लगाने का ऐलान किया जिसके बाद 1985 में दोनों के बीच प्लाजा समझौता हुआ. जापानी येन मजबूत हुआ, प्रॉपर्टी बाजार गरमाकर फट गया और जापान लंबी मंदी में धंस गया.
अमेरिका बनाम जापान के दौरान देंग शियाओ पिंग के नेतृत्व में चीन का ग्लोबलाइजेशन शुरू हुआ. जापान से उखड़े निवेशक चीन में उतरने लगे और दो दशक में चीन मैन्युफैक्चरिंग का केंद्र बन गया. इसके बूते उसने तीन दशक तक दुनिया के व्यापार पर राज किया है.
अमेरिका-चीन के ताजा व्यापार युद्ध के दो संभावित असर हो सकते हैं. एक, युआन का अवमूल्यन जिसके बाद अमेरिका और ड्यूटी लगाएगा. दो, चीन की अर्थव्यवस्था का पुनर्गठन, निर्यात पर कम निर्भरता यानी तात्कालिक मंदी. ग्लोबल मंदी के झटके हमें भी लगेंगे लेकिन यह व्यापार युद्ध भारत के लिए मौका है.
आज का भारत 1980 के चीन से बेहतर स्थिति में है. उदारीकरण की नींव पर कुछ मंजिलें बन चुकी हैं. फायदे स्थापित हैं. नीति आयोग के मुखिया रहे अरविंद पानगड़िया की आंकड़ों से लैस महत्वपूर्ण ताजा किताब (फ्री ट्रेड ऐंड प्रॉस्पेरिटी) बताती है कि मुक्त व्यापार और ग्लोबलाइजेशन के चलते पिछले दो दशक में भारत की ग्रोथ में 4.6 फीसदी का इजाफा हुआ है. इसी ‘चमत्कार’ से 1992-93 से 2011-12 के बीच गरीबी रेखा से नीचे की आबादी 45 फीसदी से घटकर 22 फीसदी रह गई.
स्वदेशी के दकियानूसी आग्रहों को तथ्यों सहित काटते हुए पानगड़िया उदाहरणों के साथ यह सिद्ध करते हैं कि समझदार सरकारें अक्षम देशी उद्योगों के संरक्षण के बजाए, हमेशा भविष्य के विजेताओं को चुनती हैं क्योंकि आर्थिक नीति का अंतिम मकसद रोजगार और आय में बढ़ोतरी है. पिछले पांच वर्षों में बंद दरवाजों वाली विदेश व्यापार नीति के तहत भारतीय निर्यात की बदहाली, अंतरराष्ट्रीय व्यापार में घटती हिस्सेदारी और व्यापार समझौतों की नामौजूदगी, मुक्त बाजार के पक्ष को सही साबित करती है.
भारत से निर्यात पर अमेरिका, यूरोप, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया के डब्ल्यूटीओ में मुकदमे, अमेरिकी आयात में वरीयता की समाप्ति और लंबित व्यापार समझौते, प्रधानमंत्री मोदी की दूसरी पारी का इंतजार कर रहे हैं. मोदी के एक तरफ होगी ढहती अर्थव्यवस्था और दूसरी तरफ होगा भारत के अभूतपूर्व उदारीकरण का मौका.
सनद रहे कि संरक्षणवाद सबसे सस्ता राष्ट्रवाद है जो आर्थिक सुरक्षा को कमजोर करता है.
कोफी अन्नान कहते थे कि वैश्वीकरण के खिलाफ बहस करना गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध बहस करने जैसा है. क्या नई सरकार, नए वैश्वीकरण को नए भारत का परचम बनाएगी?
2 comments:
श्रीमान जी प्रणाम,
एक बात समझ नहीं आई कि अमेरिका और जापान के बीच ऐसा व्यापारिक सम्बन्ध कैसा ख़राब हुआ जो अमेरिका का व्यपारिक झुकाव चीन की ओर चला गया ! वो भी तब जब जापान और अमेरिका के सम्बन्ध द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से ठीक-ठाक ही रहे हैं।.... अमेरिका के सम्बन्ध तो चीन के साथ ही बहुत अच्छे नहीं रहे।
आज अमेरिका और चीन के सम्बन्ध बहुत अच्छे नहीं हैं लेकिन भारत के साथ हैं, इसलिये ये माना जा सकता है कि अमेरिका का व्यापारिक झुकाव भारत की ओर हो सकता है, लेकिन तब अमेरिका के व्यापारिक हित चीन की ओर कैसे चले गए ?
एक और छोटी सी बात.... मैंने कहीं सुना था कि चीन में सबसे ज्यादा निवेश जापान ने किया है।..... आपके इस लेख में जिसमें आपने अमेरिका-जापान-चीन की व्यापारिक परिस्थितियों पर प्रकाश डाला है उसमें और मेरी सुनी हुई बात कि 'चीन में सबसे ज्यादा निवेश जापान ने किया था' इन दोनों बातों में कुछ सम्बन्ध जुड़ता हुआ दिख रहा है।..... आपने अपने लेख में लिखा भी है कि 'जापान से उखड़े निवेशक चीन में उतरने लगे'.…. तो ये निवेशक जापान के ही थे या अमेरिका के ?...... मतलब वो जापानी निवेशक थे जिन्होंने अपने देश का निवेश चीन में उतारा, या वो अमेरिका के निवेशक थे जिन्होंने कभी जापान में निवेश किया था और बाद में अपना निवेश चीन में उतार दिया ?
अब आप अमेरिका-जापान-चीन के व्यापारिक संबंधों और उनके बीच होने वाले निवेश के इतिहास को थोड़ा और विस्तार से अपने किसी लेख में स्थान दें तो बड़ी कृपा होगी।
व्या पारिक झुकाव जैसी कोई चीज नहीं है. समझदार देश अपने उपभोक्ताओं के लिए लागत का ध्याीन रखते हैं. जापान के उत्पाउदों की लागत बढ़ी जबकि चीन ने सस्तेओ उत्पा द बनाये. अमेरिका के ग्राहक उसकी तरफ मुड़ गए.
निवेशक देश निरपेक्ष होते हैं. अमेरिकी यूरोपीय औश्र जापानी कंपनियां चीन में संचालन करती हैं. चीन (एतिहासिक तनातनी के बावजूद) जापान का सबसे बड़ा व् यापारिक भागीदार है. अमेरिका जापान ट्रेड वार के बाद चीन को केवल अमेरिका नहीं बल्कि पूरी दुनिया का बाजार मिला और वह दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यतवस्थाप हो गया. यह बाजार जापान के अच्छे दिनों की तुलना में बहुत बड़ा था.
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