अगर पड़ोसी की नौकरी पर खतरा है तो यह आर्थिक सुस्ती है लेकिन अगर आपके रोजगार पर खतरा है तो फिर यह गहरा संकट है.’’ अमेरिकी राष्ट्रपति हैरी ट्रुमैन की पुरानी व्यंग्योक्ति आज भी आर्थिक मंदियों के संस्करणों का फर्क सिखाती है.
इस उक्ति का पहला हिस्सा मौसमी सुस्ती की तरफ इशारा करता है जो दुनिया में आर्थिक उठापटक, महंगे ईंधन, महंगाई जैसे तात्कालिक कारणों से आती है और जिससे उबरने का पर्याप्त तजुर्बा है. ट्रुमैन की बात का दूसरा हिस्सा ढांचागत आर्थिक मुसीबतों की परिभाषा है, जिनका हमारे पास कोई ताजा (पिछले 25 साल में) अनुभव नहीं है.
सरकार ने चुनाव में जाने तक इस सच को स्वीकार कर लिया था कि अर्थव्यवस्था ढलान पर है लेकिन भव्य जीत के बाद जब सरकार वापस लौटी तब चार बड़े बदलाव उसका इंतजार कर रहे थे जो भारत की आर्थिक ढलान को असामान्य रूप से जिद्दी बनाते हैं:
· भारत में कंपनियों का निवेश 1960 के बाद से लगातार बढ़ रहा था. 2008 में शिखर (जीडीपी का 38 फीसद) छूने के बाद यह अब 11 साल के सबसे निचले (29 फीसद) स्तर पर है. सालाना वृद्धि दर 18 फीसद (2004-08) से घटकर केवल 5.5 फीसद रह गई है.
· निवेश के सूखे के बीच घरेलू खपत, अर्थव्यवस्था का सहारा थी. अब वह भी टूट गई है और मकान, कार से लेकर घरेलू खपत के सामान तक चौतरफा मांग की मुर्दनी छाई है.
· सरकार ने यह मान लिया है कि भारत में बेकारी 45 साल के सबसे ऊंचे स्तर पर है.
· रेटिंग एजेंसियों ने बैंकों व वित्तीय कंपनियों की साख में बड़ी कटौती की. अब कर्ज में चूकने का दौर शुरू हो गया. पहले वित्तीय कंपनियां चूकीं और अब एक कपड़ा कंपनी भी.
भारत की विराट आर्थिक मशीन का आखिर कौन सा पुर्जा है जो निवेश, कर्ज और खपत को तोड़ कर मुश्किलें बढ़ा रहा है?
भारतीय अर्थव्यवस्था बचतों के अप्रत्याशित सूखे का सामना कर रही है. समग्र बचत जो 2008 में जीडीपी के 37 फीसद पर थी, अब 15 साल के न्यूनतम स्तर पर (जीडीपी का 30 फीसद) रह गई है और आम लोगों की घरेलू बचत पिछले 20 साल के (2010 में 25 फीसद) न्यूनतम स्तर (जीडीपी का 17.6 फीसद) पर है. घरेलू बचतों का यह स्तर 1990 के बराबर है जब आर्थिक सुधार शुरू नहीं हुए थे. मकान-जमीन में बचत गिरी है और वित्तीय बचतें तो 30 साल के न्यूनतम स्तर पर हैं.
बचत के बिना निवेश नामुमकिन है. भारत में निवेश की दर बचत दर से हमेशा ज्यादा रही है. घरेलू बचतें ही निवेश का संसाधन हैं. यही बैंक कर्ज में बदल कर उद्योगों तक जाती हैं, सरकार के खर्च में इस्तेमाल होती हैं, घर-कार की मांग बढ़ाने में मदद करती हैं. बचत गिरते ही निवेश 11 साल के गर्त में चला गया है.
दरअसल, पिछले दशक में भारतीय परिवारों की औसत आय में दोगुनी बढ़त दर्ज की गई थी. इस दौरान खपत बढ़ी और टैक्स भी लेकिन लोग इतना कमा रहे थे कि बचतें बढ़ती रहीं. आय में गिरावट 2006 के बाद शुरू हो गई थी लेकिन कमाई बढ़ने की दर खपत से ज्यादा थी. इसलिए मांग बनी रही.
2015 से 2018 के बीच आय में तेज गिरावट दर्ज हुई. प्रति व्यक्ति आय, ग्रामीण मजदूरी में रिकॉर्ड कमी और बेकारी में रिकॉर्ड बढ़त का दौर यही है. पहले बचतें टूटीं क्योंकि लोग आय का बड़ा हिस्सा खपत में इस्तेमाल करने लगे. फिर मकानों, ऑटोमोबाइल की मांग गिरी और अंतत: दैनिक खपत (साबुन-मंजन) पर भी असर नजर आने लगा.
बैंक भी कमजोर बचतों के गवाह हैं. 2010 से बैंकों की जमा की वृद्धि दर भी गिर रही है. 2009-16 के बीच 17 से 12 फीसद सालाना बढ़ोतरी के बाद अब इस मार्च में बैंक जमा की बढ़ोतरी 10 फीसद से नीचे आ गई. नतीजतन रिजर्व बैंक की तरफ से ब्याज दरों में तीन कटौतियों के बाद भी बैंकों ने कर्ज सस्ता नहीं किया. कर्ज पर ब्याज दर कम करने के लिए जमा पर भी ब्याज कम करना होगा जिसके बाद डिपॉजिट में और गिरावट झेलनी पड़ेगी.
शेयर बाजारों में बढ़ता निवेश (म्युचुअल फंड) अर्धसत्य है. वित्तीय बचतें, खासतौर पर शेयर (सेकंडरी) बाजार के जरिए बचत न तो कंपनियों को मिलती हैं, जिससे वे नया निवेश कर सकें, न सरकार को इस बचत का सीधा लाभ (टैक्स के अलावा) होता है. छोटी स्कीमों, बैंकों और मकान-जमीन में बचत ही निवेश का जरिया है.
बचतों का दरिया सूखने के कारण भारत की आर्थिक सुस्ती कई दुष्चक्रों का समूह बन गई है. मोदी सरकार के छठे बजट को कसने का अब केवल एक पैमाना होगा कि इससे लोगों की आय और बचत बढ़ती है या नहीं, क्योंकि यही मंदी से उबरने का जंतर-मंतर है.
प्रसिद्ध अर्थविद जॉन मेनार्ड केंज (पुस्तक—द एंड ऑफ लैसे-फेयर) कहते थे, यह जरूरी है कि सरकारें ऐसा कुछ भी न करें जो कि आम लोग पहले से कर रहे हैं. उन्हें तो कुछ ऐसा करना होगा जो अभी तक न हुआ हो. चुनावी जीत चाहे जितनी भव्य हो लेकिन उद्योग, उपभोक्ता और किसान थक कर निढाल हो रहे हैं. अर्थव्यवस्था के लिए यह ‘एंड ऑफ लैसे-फेयर’ ही है, यानी सरकार के लिए परिस्थितियों को उनके हाल पर छोड़ने का वक्त खत्म हो चला है.
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