ताजा आकलनों की मानें तो खतरा भरपूर है. अगर ऐसा हुआ तो अब, भारत के लिए उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि दांव पर है. हाल
के दशकों में तेज विकास की मदद से भारत ने गरीबी कम करने में निर्णायक सफलता हासिल
की है, मंदी का ग्रहण इसी रोशनी पर लगा है. विश्व बैंक और आइएमएफ के अगले आकलन भारत में गरीबी बढ़ने पर केंद्रित हों तो
चौंकिएगा नहीं.
विश्व बैंक मानता है कि पिछले एक दशक में दुनिया में
गरीबी की दर को आधा करने (2005 से 2015) की सफलता में भारत की भूमिका सबसे बड़ी है.
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी)
विश्व में बहुआयामी गरीबी नाप-जोख करता है.
इसकी ताजा रिपोर्ट (2018) बताती है कि भारत दुनिया
का पहला देश है जिसने 2005-06 से 2015-16 के बीच करीब 27 करोड़ लोगों को गरीबी की रेखा से बाहर
निकाला और आबादी के प्रतिशत के तौर पर गरीबी करीब आधी यानी 55 फीसद से 28 फीसद रह गई. गरीबी में
यह कमी गांव और शहर दोनों जगह हुई.
गरीबी में यह कमी भारत की सतत तेज आर्थिक विकास दर (औसत सात फीसद) के चलते आई लेकिन अब तो एक साल से कम समय में भारत (जुलाई
’18 से जुलाई ’19) दुनिया की सबसे तेज दौड़ती अर्थव्यवस्था
से सबसे तेजी से धीमी पड़ती अर्थव्यवस्था में बदल गया है. यह
गिरावट लंबी और तीखी है व गहरी भी.
रिजर्व बैंक,
इक्रा या इंडिया रेटिंग्स से लेकर विश्व बैंक, आइएमएफ, मूडीज, फिच ने भारत की
विकास दर के आकलन में बहुत कम समय में बहुत बड़ी (0.70 से एक
फीसद तक) कटौती कर दी है जो अभूतपूर्व है.
इस पर तुर्रा यह कि किसी भी एजेंसी को कम से कम 2022 तक ग्रोथ में तेजी की यानी
7 फीसद से ऊपर की विकास दर की उम्मीद नहीं है. ग्लोबल बाजार में मंदी आने का खतरा अलग से है. यानी कि
कमाई, बचत, खपत की यह जिद्दी मंदी लंबी
चलेगी और आठ-नौ फीसद या दहाई की विकास दर तो अब उम्मीदों की बहस
से भी बाहर है.
ढहती ग्रोथ गरीबी से लड़ाई को कैसे कमजोर करेगी, इसके लिए हमें भारत की मंदी की जटिल
परतों को खोलना होगा, जहां से पिछले दशक में आय में बढ़ोतरी निकली
थी.
·
जीडीपी (जीवीए यानी मूल्य वर्धन पर आधारित)
में खेती का हिस्सा (2014 से 2017 के बीच) 18.6 फीसद से 17.9 फीसद
रह गया. खेती में न उत्पादन का मूल्य बढ़ा और न कमाई.
यही वजह है कि 2018-19 में जीडीपी की विकास दर
टूट गई
·
फैक्ट्री
उत्पादन 81 माह के न्यूनतम पर है और पिछले तीन
साल से बमुश्किल दो फीसद की गति से बढ़ रहा है. पिछले पांच साल
में निजी औद्योगिक निवेश 11 साल के न्यूनतम स्तर पर आ गया.
कंपनियों की बिक्री नहीं बढ़ रही लेकिन कॉर्पोरेट टैक्स घटाने से मुनाफे
बढ़े हैं. मांग आने तक कोई नए निवेश का जोखिम लेने को तैयार नहीं
है
·
छोटे
उद्योग, जहां से कमाई और रोजगार आते हैं वहां
कर्ज का संकट गहरा रहा है. रिजर्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार,
छोटे उद्योगों में कर्ज का बोझ बढ़ने की दर उनका उत्पादन बढ़ने की दोगुनी
है
·
और
सबसे महत्वपूर्ण यह कि यह मंदी विदेशी निवेश के रुपए के पर्याप्त अवमूल्यन (प्रतिस्पर्धा में बढ़त), भरपूर उदारीकरण, महंगाई में कमी, कई बड़े सुधारों (दिवालियापन कानून, रेरा, जीएसटी), सरकारी खर्च में
जोरदार बढ़त और ब्याज दरों में कमी के बावजूद आई है.
ये मूलभूत कारण हैं जिनसे भारत में आय, खपत और बचत में जल्दी सुधार को लेकर
असमंजस है और दुनिया की एजेंसियां भारत में मंदी के टिकाऊ होने को लेकर फिक्रमंद हैं.
पिछले आर्थिक संकटों (लीमन का डूबना, अमेरिका में ब्याज दर बढ़ने का डर, चीन की मुद्रा के
अवमूल्यन) के दौरान भारत की विकास दर तेजी से वापस लौटी.
लेकिन इस बार ऐसा नहीं है. भारतीय अर्थव्यवस्था
क्रमश: धीमी पड़ी है. यानी लोगों की समग्र
आय क्रमश: घट रही है.
हैरत की बात है कि पिछले पांच साल में सरकार ने गरीबी
की पैमाइश और पहचान के नए फॉर्मूले को तैयार करने का काम ही रोक दिया. नीति आयोग ने जून 2017 में अपनी रिपोर्ट में कहा कि गरीबों की पहचान या लोगों की आय नाप-जोख जरूरी नहीं है, इससे बेहतर है कि सरकारी योजनाओं
के असर को मापा जाए.
ठीक उस वक्त हमें जब गरीबी के अन्य जटिल आयामों (मौसम, बीमारी,
विस्थापन, विकास) के समाधान
तलाशने थे और एक न्यूनतम जीवन स्तर उपलब्ध कराना था, हमारे पास
गरीबों की पहचान का आधुनिक फॉर्मूला नहीं है और दूसरी तरफ ढहती ग्रोथ एक बड़ी आबादी
को वापस गरीबी की खाई में ढकेलने वाली है. यह वक्त चुनावी शोर
से बाहर निकल कर सच से नजरें मिलाने का है. यह मंदी
25 साल में भारत की सबसे बड़ी उपलब्धि के लिए सबसे बड़ा अपशकुन है.
1 comment:
सर एक ब्लाॅग RCEP पर भी 🙏🙏
Post a Comment