महंगाई झेलना चाहते हैं या मंदी? अपनी तकलीफ चुन लीजिए. फिलहाल तो दोनों ही बढ़ने वाली हैं.
रिजर्व बैंक के अनुसार, अगले तीन माह में जेबतराश महंगाई बढ़ेगी. और इस साल की दूसरी तिमाही में विकास दर 4.5 फीसद इस ढलान का अंतिम छोर नहीं है. अगले छह माह में मंदी गहराएगी. इस साल पांच फीसद की विकास दर भी नामुमकिन है.
बचत, खपत और निवेश में कमी से बनी यह मंदी जितनी उलझन भरी है, महंगाई उससे कम पेचीदा नहीं है. महंगाई के छिलके उतारने पर ही समझ में आता है कि रिजर्व बैंक ने ब्याज दरों में कमी रोक कर अब मंदी से लड़ाई का बीड़ा सरकार की तरफ बढ़ा दिया है और दूसरी तरफ सरकार यह समझ ही नहीं पा रही है कि कौन-सी महंगाई अच्छी है और कौन-सी बुरी या कि मंदी और महंगाई की इस जोड़ी को तोड़ा कैसे जाए?
अक्तूबर के महीने में थोक महंगाई 40 महीने के न्यूनतम स्तर पर (0.16 फीसद) थी, जबकि खुदरा महंगाई 16 महीने के सर्वोच्च स्तर 4.6 फीसद पर. थोक महंगाई उत्पादकों के स्तर पर कीमतों की नापजोख है जबकि खुदरा महंगाई उपभोक्ताओं की जेब पर असर की पैमाइश करती है.
थोक महंगाई में रिकाॅर्ड कमी मांग टूटने का सबूत है जिसके कारण उत्पादक (किसान और उद्योग) कीमतें नहीं बढ़ा पा रहे हैं. इस साल रबी मौसम तक कृषि और खाद्य उत्पादों की कीमतें लागत से कम थीं. पिछले कई महीनों से मैन्युफैक्चरिंग उत्पादों की कीमतें नहीं बढ़ी हैं.
दूसरी तरफ, खुदरा यानी उपभोक्ता महंगाई इस साल जनवरी से बढ़ने लगी थी जो अब सरकार को डराने वाले स्तर तक आ गई.
थोक महंगाई खपत में मंदी का सबूत है और खुदरा महंगाई महंगी होती खपत का. दोनों का एक साथ प्रकट होना मांग और आपूर्ति दोनों में ढांचागत दिक्कतों का दुर्लभ दुर्योग है
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महंगाई का दूसरा पेच यह है कि आपूर्ति की दिक्कतों के कारण फलों-सब्जियों वाली खाद्य महंगाई बढ़ रही है जबकि मांग में कमी के कारण घरेलू खपत के सामान, सेवाओं, भवन निर्माण, संचार कीमतों में बढ़ोतरी नहीं हुई है यानी उत्पादकों के लाभ नहीं बढ़ रहे हैं.
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शहरी और ग्रामीण महंगाई का अंतर एक और बड़ी चुनौती है. अक्तूबर के महीने में गांवों में खाद्य महंगाई बढ़ने की दर 6.4 फीसद थी जबकि शहरों में 10.5 फीसद.
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महंगाई की पैमाइश का एक और चेहरा उलझन को कई गुना बढ़ाता है. केयर रेटिंग्स के एक ताजा अध्ययन के अनुसार, पिछले वित्त वर्ष में भारत के 19 राज्यों में उपभोक्ता महंगाई, राष्ट्रीय औसत से ज्यादा रही जबकि 11 राज्यों में रिजर्व बैंक के आदर्श पैमाने (4 फीसद) से ऊपर थी, यानी कि हमारे पड़ोस की महंगाई, देश की महंगाई से बिल्कुल अलग है.
मंदी की रोशनी में, महंगाई के अंतर्विरोध ने अर्थव्यवस्था को कठिन विकल्पों की स्थिति में ला खड़ा किया है. पूरा उत्पादन क्षेत्र मंदी का शिकार है. इसमें किसान और उद्योग, दोनों शामिल हैं. 2014 से 2019 के बीच खेती में कमाई बढ़ने की रफ्तार इससे पहले के दशक की तुलना में आधी रही थी. किसान और उद्योग, दोनों नजरिये से कीमतें बढ़ना जरूरी है क्योंकि अब आय व रोजगार बढ़े बगैर खपत का पहिया घूम नहीं सकता. अचरज नहीं कि मंदी के बावजूद मोबाइल बिल और कुछ कारों की कीमत में इजाफा शुरू हो गया है.
नगरीय उपभोक्ताओं के लिए इस परिदृश्य में तकलीफ दिखती है. खासतौर पर रोजगार देने वाले उद्योगों में मंदी के कारण नई नौकरियां बंद हैं और वेतन में बढ़त भी. ऐसी हालत में भोजन की महंगाई जिंदगी की मुसीबतों में इजाफा करेगी.
महंगाई या कीमतों में बढ़ोतरी भारत में संवेदनशील पैमाना है. इस पर उत्पादकों का भविष्य भी टिका है और खपत का भी. भारत के कृषि बाजार में अधिकांश कीमतें सरकार तय करती है. घटिया वितरण तंत्र, बाजार के फायदे किसानों तक नहीं पहुंचने देता. दूसरी तरफ, भारी टैक्स, पूंजी की कमी और ऊर्जा की ऊंची लागत के कारण उद्योगों का मार्जिन सीमित है इसलिए कारोबारी लाभ मांग और मूल्य, दोनों में बढ़ोतरी से आते हैं.
सरकारों के अनावश्यक हस्तक्षेप ने बाजार को बिगाड़ दिया है. हाल के वर्षों में भारत में न्यूनतम महंगाई के बाद भी मांग नहीं बढ़ी. अब नीतियों का असंतुलन दम घोंट रहा है. न फसलों की मांग-आपूर्ति पर कोई दूरगामी नीति है और न उद्योगों पर टैक्स की. सरकार कभी प्याज के ताबड़तोड़ आयात की तरफ दौड़ पड़ती है जिससे फसल बाजार का संतुलन बिगड़ता है तो कभी कंपनियों पर टैक्स के नियमों में अप्रत्याशित बदलाव कर देती है. जैसे कि पहले कॉर्पोरेट टैक्स घटाकर घाटा बढ़ाया गया, अब जीएसटी बढ़ाने की तैयारी हो रही है.
मंदी के विभिन्न संस्करणों में मंदी और महंगाई की जोड़ी (स्टैगफ्लेशन) सबसे जटिल है. बेकारी और महंगी जिंदगी की यह जहरीली जोड़ी भारतीय अर्थव्यवस्था को घेर रही है. सरकार को जल्द ही तय करना होगा कि वह महंगाई को बढ़ने देकर मंदी से उबारेगी या मंदी को बढ़ने देगी. चुनाव कठिन है लेकिन इस आग के दरिया में डूब कर जाना ही होगा और कोई सहज विकल्प नहीं है.
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