Friday, April 10, 2020

इस मोड़ से जाते हैं...



बीसवीं सदी की महामंदी, 1991 के भारतीय आर्थिक संकट और 2008 की ग्लोबल बैंकिंग आपदा का इतिहास हमें कुरेद-कुरेद कर बताता है कि अंतत: वही जीतते हैं जो एक अच्छी आपदा को बर्बाद नहीं करते. संकटों को अवसर बना लेने वाले मुल्क अपनी अगली पीढि़यों को एक तपी-निखरी दुनिया सौंपते हैं.

बड़े बदलाव के लिए किसी बड़े संकट का इंतजार था तो मुराद अब पूरी हो गई है. संकट में औचक दीवाली की चमक के बीच यह एहसास नहीं होगा कि हम 1991 से ज्यादा गहरे आर्थिक संकट में हैं.

इस वित्त वर्ष में विकास दर 2 फीसद तक गिर जाने की आशंका है जो 1991 (1.1 फीसद) की गर्त के आसपास ही होगी.

1991 से अब तक अर्थव्यवस्था लगभग नौ गुना बढ़ चुकी है इसलिए गिरावट का असर बहुत व्यापक है. मसलन, सिर्फ एक माह की मंदी में बेकारी की दर तीन गुना (8 से 23 फीसद सीएमआइई-ट्रैकर) हो गई है.

1991 में सिर्फ हम संकट में थे, दुनिया ठीक थी. अब विश्व संकट में है, इसलिए विदेशी मुद्रा भंडार होने के बावजूद रुपया टूट रहा है.

भारत पर विदेशी कर्ज का संकट नहीं है लेकिन घरेलू कर्ज के कारण बैंकिंग तंत्र डूब रहा है.

कोविड-19 की धमक से पहले ही मंदी यहां जड़ें जमा चुकी थी और बहुत कुछ तबाह कर चुकी है. 

तो किस्सा कोताह कि गांवों की पीठ पर शहरों से निकले करोड़ों बेकार लद गए हैं. बड़ी कंपनियां सरकारी खजाने से राहत की शर्त पर भी आगे बढ़ने को तैयार नहीं है और छोटे कारोबार सिकुड़ कर अदृश्य होने लगे हैं.

कोरोना के बाद अर्थव्यवस्था में 1991 जैसे पुनर्निमाण की जरूरत होगी. वह संकट विदेशी मुद्रा की कमी का था लेकिन उसे अवसर बनाकर ऊंची उड़ान भरी गई. उठ खड़े होने की तत्कालीन रणनीति, निजी उद्योगों (ज्यादातर बड़े) को लाइसेंस परमिट राज से आजादी,  विदेशी प्रतिस्पर्धा और पूंजी की छूट, टैक्स में तेज कमी, सरकारी नियंत्रण की समाप्ति और बजट खर्च के पुनर्गठन पर केंद्रित थी.
2020 में हमें करना यह होगा...

► सरकारी कर्मचारियों के वेतन तो 1991 में नहीं काटे गए थे, यह राजकोषीय विभीषिका अनिवार्य बजट ऑपरेशन की जरूरत बता रही है. केंद्र राज्य मिलकर, नियमित कमाई, भविष्य सुरक्षा और सस्ती चिकित्सा की तीन विराट स्कीमें तैयार करें. यही वक्त है जब यूनिवर्सल इनकम ट्रांसफर (सभी के खाते में) शुरू हो सकते हैं और बदले में पेट्रो और अनाज सब्सिडी (खर्च जीडीपी का 1.48 फीसद) और केंद्र और राज्य की 50 बड़ी स्कीमों को बंद किया जा सकता है. स्कीमों की भीड़ इस संकट में कहीं काम नहीं आई है.

► 1991 में तत्कालीन बड़े उद्योगों को जिस लाइसेंस परमिट राज से मुक्ति दी गई थी, वही मुक्ति अब हर छोटी कंपनी को दी जानी चाहिए. उन्हें स्वआकलन पर टैक्स भरने की छूट दी जानी चाहिए. कोई पाबंदी नहीं, कोई शर्त नहीं, बस उत्पादन करें, नौकरी दें और मांग का पहिया घुमा दें.  

► जीएसटी की एक दर लागू करने का वक्त गया है. पेट्रोल-डीजल को इसमें शामिल करें. यह सुधार विटामिन बन जाएगा.

► अगले एक साल में भारत बड़ी कंपनियों का कब्रिस्तान बन जाएगा. मोटी जेब (कैश रिजर्व) कम कर्ज (सरवाइवल ऑफ रिचेस्ट) वाली बड़ी कंपनियां ही बचेंगी. देशी बड़ी कंपनियां अब नया निवेश नहीं करेंगी. वे प्रतिस्पर्धा खत्म होने और एकाधिकार की मलाई खाने की तैयारी में हैं. यही मौका है जब प्रतिस्पर्धा बढ़ाने की नीतिगत पहल चाहिए.

जिस क्षेत्र में चार से कम कंपनियां हैं या बाजार का बड़ा हिस्सा दो तीन-कंपनियों के पास है, वहां विदेशी कंपनियों को लाया जाए जो देशी दिग्गजों को जोखि लेने पर मजबूर करेंगी. यही दरवाजा होगा जिससे चीन से भागती कंपनियां भारत में प्रवेश करेंगी.

कोरोना संकट भारत के आर्थिक भविष्य का निर्णायक मोड़ है. यहां से हम लंबी गरीबी में फंस सकते हैं या लंबी छलांग भी लगा सकते हैं. संकटों से मिलने वाले अवसरों के सिद्धांत में सबसे बड़ा लोचा यह है कि हर देश का नेतृत्व एक जैसा हिम्मतवर नहीं होता. 2008 के बैंकिंग संकट के बाद पूरी दुनिया ने एक जैसे फायदे नहीं उठाए. नरेंद्र मोदी अवसरों के मामले में सौभाग्यशाली हैं. लेकिन सुधारों की हिम्मत का रिकॉर्ड कमजोर है. यह मौका है जब मोदी परख सकते हैं कि उनके बुलाने पर ताली-थाली-दीवाली करने वालेकरो या मरोकी तर्ज पर सुधारों के लिए कितने तैयार हैं.

भारत की आर्थि वापसी अब छोटे उद्योगों और राज्यों की अगुआई में होगी. नेल्सन मंडेला ठीक कहते थे, नेता गड़रिया जैसा होता है. उसके झुंड में कमजोर भेड़ सबसे आगे रहती हैं और मजबूत पीछे. सबसे पीछे रहता है खुद गड़रिया. झुंड यह जान भी नहीं पाता कि उन्हें दिशा कौन दे रहा है.



11 comments:

Unknown said...

बहुत सुन्दर लेख

Unknown said...

Sorry but very basic details. Nothing revolutionary.

Unknown said...

Your suggestions are good for nothing

driver.lp said...

अंशुमान भाई के इकोनॉमिक्स को हिंदी में समझाने का अंदाज़-ऐ-बयां सबसे अलग और सबसे आसान है। शुक्रिया बड़े भाई इकोनॉमिक्स समझाने के लिए अभी तक इंग्लिश वाली इकोनॉमिक्स नही समझ आती थी। धन्यवाद, शुक्रिया, thanku

Unknown said...

Good suggestions

Unknown said...

बहोत सुंदर सर...सरल भाषा में आपणे आणेवाले संकटो को समझया है

Gautam Raj said...

काफी डरावना है आगे का भविष्य। उम्मीद है बड़े नाम वाले लोग असल मे नेता बन कर उभरेंगे।
बाकी आपका 'अर्थात' काफी सटीक होता है। 👍

Unknown said...

देश मे बैंकों ने जो भी फाइनेंस कर रखा है उससे कई गुना देश मे micro finance के रूप में उद्योगों ने व्यापार में व्यापारियों को और व्यापारियों ने उस रकम को अन्य व्यापारियों को उधार दे रखा हैं बर्तमान lockdown के बाद व्यापार की स्तिथी क्या रहेंगी सोचनीय हैं?

Unknown said...

Thanks sir

मैं ज्यादा कुछ तो नहीं जानता लेकिन इतना जरूर कह सकता हूं कि यह वास्तव में एक निर्णायक मोड़ है
जो हमारा भविष्य तय करेगा।
कोरोना संकट से देश को हानि तो हुई है और आगे भी होगी।
परंतु हम अगर इसे दूसरे नजरिए से देखें तो
यह हमारे लिए उचित अवसर भी बन सकता है

Vivek kumar said...

बडे पुंंजीपती की आय और छोटे की आय मेंं अन्तर कम करने का वक्त आ गया है। अर्थववस्था सुधर जाएगी।

Vikash Rishi said...

ज्ञानवर्धक विश्लेषण, धन्यवाद सर !