Friday, June 12, 2020

कल्याणकारी राज्य की त्रासदी



रेल की पटरियों पर रोटियों के साथ पड़ा गरीब कल्याण, महामारी के शिकार लोगों की तादाद में रिकॉर्ड बढ़ोतरी, चरमराते अस्पताल, लड़ते राजनेता, अरबों की सब्सिडी के बावजूद भूखों को रोटी-पानी के लिए लंगरों का आसरा... यही है न तुम्हारा वेलफेयर स्टेट या कल्याणकारी राज्य! जिसे भारी टैक्स, विशाल नौकरशाही और वीआइपी दर्जों और असंख्य स्कीमों के साथ गढ़ा गया था!

जान और जहान पर इस अभूतपूर्व संकट में कितना काम आया यह? इससे तो बाजार और निजी लोगों ने ज्यादा मदद की हमारी! यह कहकर गुस्साए प्रोफेसर ने फोन पटक दिया.

यह झुंझलाहट किसी की भी हो सकती है जिसने बीते तीन माह में केंद्र से लेकर राज्य तक भारत के वेलयफेयर स्टेट को बार-बार ढहते देखा है. इस महामारी में सरकार से चार ही अपेक्षाएं थीं. लेकिन महामारी जितनी बढ़ी, सरकार बिखरती चली गई.  

स्वास्थ्य सुविधाएं कल्याणकारी राज्य का शुभंकर हैं. लेकिन चरम संक्रमण के मौके पर निजाम ने लोगों को उनके हाल पर छोड़ कर नई सुर्खियों के आयोजन में ध्यान लगा दिया. इस सवाल का जवाब कौन देगा कि भारत जहां निजी स्वास्थ्य ढांचा सरकार से ज्यादा बड़ा है, उसे किस वजह से पूरी व्यवस्था से बाहर रखा गया? कोरोना के विस्फोट के बाद मरीज उन्हीं निजी अस्पतालों के हवाले हो गए जिन्हें तीन माह तक काम ही नहीं करने दिया गया.
सनद रहे कि यही निजी क्षेत्र है जिसने एक इशारे पर दवा उत्पादन की क्षमता बढ़ा दी, वैक्सीन पर काम शुरू हो गया. वेंटिलेटर बनने लगे. पीपीई किट और मास्क की कमी खत्म हो गई. 

दूसरी तरफ, सरकार भांति-भांति की पाबंदियां लगाने-खोलने में लगी रही लेकिन कोरोना जांच की क्षमता नहीं बना पाई, जिसके जरिए ज्यादा से ज्यादा लोगों को संक्रमण से बचाया जा सकता था.

भोजनदेश में बड़े पैमाने पर भुखमरी नहीं आई तो इसकी वजह वे हजारों निजी अन्नक्षेत्र हैं जो हफ्तों से खाना बांट रहे हैं. 1.16 लाख करोड़ रु. की खाद्य सब्सिडी के बावजूद जीविका विहीन परिवारों को सरकार दो जून की रोटी या भटकते मजदूरों को एक बोतल पानी तक नहीं दे सकी. राशन कार्ड व्यवस्था में झोल और सुस्त नौकरशाही के कारण सरकार का खाद्य तंत्र संसाधनों की लूट के काम आया, भूखों के नहीं.

लॉकडाउन के बीच घर पहुंचाने की व्यवस्था यानी संपर्क की जिम्मेदारी सरकार पर थी. जिस सामाजिक दायित्व के नाम पर रेलवे की अक्षमता को पाला जाता है, सड़क पर भटकते लाखों मजदूर, उसे पहली बार 1 मई को नजर आए. रेल मंत्रालय के किराए को लेकर राज्यों के साथ बेशर्म बहस का समय था लेकिन उसके पास भारत के विशाल निजी परिवहन तंत्र के इस्तेमाल की कोई सूझ नहीं थी, अंतत: गैर सरकारी लोगों ने इन्हीं निजी बसों के जरिए हजारों लोगों को घर पहुंचाया. रेलवे की तुलना में निजी दूरसंचार कंपनियों ने इस लॉकडाउन में वर्क फ्रॉम होम के दबाव को बखूबी संभाला.

चौथी स्वाभाविक उम्मीद जीविका की थी लेकिन 30 लाख करोड़ रु. के बजट वाली सरकार को अब एहसास हुआ है कि करोड़ों असंगठित श्रमिकों के लिए उसके पास कुछ है नहीं. क्रिसिल के अनुसार, करीब 5.6 करोड़ किसान परिवार पीएम किसान के दायरे से बाहर हैं. कोविड के मारों (केवल 20.51 करोड़ महिला जनधन खातों में, कुल खाते 38 करोड़) को हर महीने केवल 500 रु. (तीन माह तक) की प्रतीकात्मक (तीन दिन की औसत मजदूरी से भी कम) मदद मिल सकी है. बेकारी का तूफान सरकार की चिंताओं का हिस्सा नहीं है.

ठीक कहते थे मिल्टन फ्रीडमैन, हम सरकारों की मंशा पर थाली-ताली पीट कर नाच उठते हैं, नतीजों से उन्हें नहीं परखते और हर दम ठगे जाते हैं. सड़कों पर भटकते मजदूर, अस्पतालों से लौटाए जाते मरीज भारत के कल्याणकारी राज्य का बदनुमा रिपोर्ट कार्ड हैं, जबकि उनकी मदद को बढ़ते निजी हाथ हमारी उम्मीद हैं.

स्कीमों और सब्सिडी के लूट तंत्र को खत्म कर सुविधाओं और सेवाओं का नया प्रारूप बनाना जरूरी है, जिसमें निजी क्षेत्र की पारदर्शी हिस्सेदारी हो. पिछले दो वर्षों में छह प्रमुख राज्यों (आंध्र, ओडिशा, तेलंगाना, हरियाणा, बंगाल, झारखंड) ने लाभार्थियों को नकद हस्तांतरण की स्कीमों को अपनाया है, जिन पर 400 करोड़ रु. से 9,000 करोड़ रु. तक खर्च हो रहे हैं.

यह सवाल अब हमें खुद से पूछना होगा कि इस महामारी के दौरान जिस वेलयफेर स्टेट से हमें सबसे ज्यादा उम्मीद थी वह पुलिस स्टेट (केंद्र और राज्यों के 4,890 आदेश जारी हुए) में क्यों बदल गया, जिसने इलाज या जीविका की बजाए नया लाइसेंस
और इंस्पेक्टर राज हमारे चेहरे पर छाप दिया.

लोकतंत्र में लोग भारी भरकम सरकारों को इसलिए ढोते हैं क्योंकि मुसीबत में राज्य या सत्ता उनके साथ खड़ी होगी नहीं तो थॉमस जेफसरसन ठीक ही कहते थे, हमारा ताजा इतिहास हमें सिर्फ इतना ही सूचित करता है कि कौन सी सरकार कितनी बुरी थी.
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4 comments:

Unknown said...

हमारी सरकारे हम पर बोझ के सिवा कुछ नही,अपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं से हमे ज्यादा उम्मीद करना भी नही चाहिये,प्राकृतिक आपदाएं तो हमारे नेताओं के लिये लूट के अवसर हैंं।

Shyam Kishore Choubey said...

अद्भुत एवं बेबाक

lalchand sharma said...

Sahi kaha...

Adr said...

👍👍👍