बिल्लियां अब भी लड़ती हैं लेकिन कहानी बदल गई है. वे अब रोटियां चुराने की जहमत नहीं उठातीं. दबदबे और रसूख से सस्ती रोटियां उन्हें आसानी से मिल जाती हैं. झगड़े में कोई बंदरबांट भी नहीं होता. बिल्लियों की लड़ाई अब लेनदेन में बदल गई है, जिसमें उनका कुछ भी दांव पर नहीं होता.
कर्जदार कंपनियां और उन्हें कर्ज देने वाले बैंक अब भी भिड़ते हैं लेकिन बैंकरप्टसी कानून और उसके ट्रिब्यूनल (एनसीएलटी) फैसले सुना रहा है, जिसमें छुरी कैसे भी गिरे कद्दू ही कटता है यानी डूबती है बैंक जमाकर्ताओं की बचत और शेयर धारकों की पूंजी.
इस नए निजाम के ताजा फैसले में लगभग 64,883 करोड़ रुपए की कर्जदार वीडियोकॉन के उद्धार को मंजूर कर दिया, जिसमें 96 फीसद नुक्सान कर्जदारों को होगा. खरीदने वाले (वेदांता अनिल अग्रवाल की समूह की कंपनी) को केवल 2,962 करोड़ रु देने होंगे. बैंकों के करीब 42,000 करोड़ रुपए डूबेंगे.
जेट एयरवेज के ‘उद्धार’ में भी बैंक समेत लेनदारों को 90 फीसद का नुक्सान (कुल बकाया 40,259 करोड़ रु.) होने की संभावना है. दीवान हाउसिंग के मामले में बचत कर्ताओं और बॉन्ड धारकों को 60 से 95 फीसदी तक का नुक्सान उठाना पड़ सकता है.
बैंकरप्टसी कानून को भारत का ‘युगपरिवर्तक’ सुधार कहा गया गया था. यह कर्ज में डूबी कंपनियों के लिए उपयुक्त ग्राहक तलाश कर उन्हें चलाए रखने व रोजगार बचाने के लिए लाया गया था. इसका दूसरा मकसद बैंकों का अधिक से अधिक कर्ज वसूल कराना था.
कंपनियों का मृत्यु लोक
सुधार का रिकॉर्ड बताता है कि बैंकरप्टसी कोड की व्यवस्था कर्ज में फंसी कंपनियों का कब्रिस्तान बन रही है.
मोतीलाल ओसवाल की रिपोर्ट के अनुसार, मार्च 2020 तक 3,774 मामले कॉर्पोरेट इनसॉल्वेंसी प्रॉसेस के तहत लाए गए थे जिनमें बैंकों और दूसरे कर्जदारों का पैसा फंसा था. कंपनियों का प्रबंधन उसे चुकाने की हालत में नहीं था. इनमें 1,383 मामले निबटाए गए. समाधान तक पहुंचने प्रस्तावों की संख्या केवल 221 है. 981 कंपनियां बंद कर दी गईं, शेष मामले अपील में हैं या वापस हो गए.
इस तरह बैंकरप्टसी की शरण में आए मामलों में केवल 14 फीसद का समाधान हुआ जबकि 57 फीसद कंपनियां पहले ही चरण में बंद हो गईं. अगर अपील वाली कंपनियों को भी इसी राह पर जाता देखा जाए तो यह आंकड़ा 75 फीसद से ऊपर हो जाएगा.
सरकार ने कभी नहीं बताया लेकिन अलग- अलग अनुमानों के मुताबिक, कंपनियां डूबने से करीब 10 लाख रोजगार खत्म हुए हैं.
उद्धार की मार
वीडियोकॉन और सिवा इंडस्ट्रीज में बैंकों की कुर्बानी पहले मामले नहीं हैं. एनसीएलटी को दिए गए 40 बड़े मामलों में बैंकों को औसत 80 फीसद बकाया कर्ज गंवाना पड़ा है. सुधार के शुरुआती वर्षों (2017 से 2019) में बैंकों को करीब 60 फीसद बकाया कर्ज गंवाकर (हेयरकट) समझौते पर राजी होना पड़ा था लेकिन कोविड से पहले वाली तिमाही के दौरान गंवाए गए कर्ज का प्रतिशत 88 तक हो गया.
बारह सबसे बड़े मामलों कुल 4.47 लाख करोड़ रुपए के कर्ज के बदले केवल 1.62 लाख करोड़ रुपए की वसूली पर बात बन पाई. इनमें एबीजी शिपयार्ड, लैंको इन्फ्रा और आलोक इंड जैसे मामले शामिल हैं. बैंकरप्टसी की प्रक्रिया के तहत 2017 के बाद कर्ज की वसूली लगातार कम होती (44 से 25 फीसद) चली गई.
सनद रहे कि कोविड आने से पहले ही ‘उद्धार’ की प्रक्रिया बकाया कर्ज के 95 फीसद मुंडन तक पहुंच गई थी. कोविड के दौरान कंपनियों में बीमारी और गहराई है और कर्ज बकायेदारी बढ़ी है.
इस विफलता की दो बड़ी वजहें हैं एक—ज्यादातर मामलों बैंक अपने बकाया कर्ज को बैलेंस शीट से हटाकर बट्टे खाते में डाल ही चुके हैं इसलिए उनहें वसूली नहीं, मामला बंद करने की जल्दी है. डूब रहा धन लोगों का (बचत या बजट यानी टैक्स से मिली सरकारी पूंजी) है तो किसे फर्क पड़ता है.
दो—पूरी प्रक्रिया में विशेषज्ञता की कमी है. पर्दे के पीछे तरह-तरह के खेल हैं. एनसीएलटी के नियामक भी कर्ज की वसूली के बजाए प्रवर्तकों को मोक्ष दिलाने पर मेहनत करते हैं. बैंकों की तरह प्रवर्तकों का भी कोई नुक्सान नहीं है.
तर्क दिए जा सकते हैं कि पहले उपलब्ध विकल्पों (कर्ज रिकवरी ट्रिब्यूनल, लोकअदालत और सारफेसी कानून) में रिकवरी और भी कम ( 4 से 26 फीसद) थी और लंबा वक्त लगता भी था. अलबत्ता सनद रहे कि बैंकरप्टसी कानून भारत के इतिहास की सबसे बड़ी कर्ज बकायेदारियों और बढ़ती बेरोजगारी के बीच आया था. इसके जरिए कंपनियों और रोजगार बचाए जाने थे और कंपनियों में लंगी संपत्ति व पूंजी का विनाश (वेल्थ डिस्ट्रक्शन) सीमित करना था.
बैंकरप्टसी कानून कर्ज में डूबी कंपनियों को बरी करने रास्ता नहीं था, इसे तो कंपनियों, बैंकों (बचतकर्ताओं) व शेयरधारकों के बीच विश्वास की बहाली करनी थी, जो कि बुरी तरह ध्वस्त हो चुका है. मंदी के बीच मुक्त बाजार से निराशा बढ़ रही है. मोहभंग और बढ़े, इससे पहले बैंकरप्टसी कानून में कंपनियों का उद्धार तय करना होगा, बैंकों की पूंजी का संहार नहीं.
2 comments:
आप जिस आसान भाषा में अर्थव्यवस्था से जुड़ी खबरें बताते हैं वह काबिलेतारीफ है सर🙏
आपका समझाने का तरीका वाकई बहुत अच्छा है. ध्यानवाद आपका जिन्हे पढ़कर हमे सरकार के गंदे खेल को समझने में सहायता मिलती है
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