सरकारी कंपनियों को बेचने या न बेचने की बहस में केवल आप अपनी राजनीति चुन सकते हैं. यह कंपनियां ऐसा सिक्का हैं जो दोनों पहलू पर खोटा है. यह चुनाव अच्छे और बुरे के बीच है ही नहीं, हमें तो कम और ज्यादा नुक्सान के बीच एक को चुनना है.
सरकारी हैं तो क्या हुआ?
मान लें कि अगर सरकार पेट्रोल की कीमतें पूरी तरह बाजार के हवाले कर दे. पेट्रोल-डीजल सस्ते हो जाएं. या किसी स्टार्ट-अप की तरह, निजी पेट्रोल पंप सस्ता तेल बेचने लगें तो फिर क्या होगा? इंडियन ऑयल, एचपीसीएल, बीपीसीएल, एचपीसीएल को बीमार होने में एक- दो साल ही लगेंगे. विनिवेश के लिए ग्राहक मिलना मुश्किल हो जाएगा. अगर किसी को लगता है कि ऐसा नहीं हो सकता तो बीएसएनएल या एयर इंडिया की हालत देख लें जो किसी तरह बिक नहीं रही हैं.
सरकारी कंपनियों को बनाए रखने के तर्क देने वाले अक्सर खुद से यह सवाल ही नहीं पूछते कि एक विराट कारोबारी सरकार को ढोते हुए उन्हें मिला क्या है? अगर सरकारी बैंक अच्छे हैं तो जमाकर्ताओं को अच्छा ब्याज क्यों नहीं मिलता? भारत में ही दुनिया में सबसे महंगा पेट्रोल-डीजल क्यों मिलता है? बिजली इतनी महंगी क्यों है? रेलवे इतनी घटिया क्यों है? अस्पताल, स्कूल, ट्रांसपोर्ट, कहीं भी, सरकार को बनाए रखने की कीमत हम महंगी और खराब सेवा के तौर ही पर चुका रहे हैं.
हमारे टैक्स और बचत पर चलने वाली सरकारी कंपनियां इतनी ही अच्छी हैं तो इनके शेयरों की हालत गौरतलब है. अपने कारोबार में एकाधिकार वाली दिग्गज सरकारी कंपनियां जैसे कोल इंडिया, एनएमडीसी, एनटीपीसी, इंडियन ऑयल, सेल, भेल यहां तक सरकारी बैंकों तक, अधिकांश कंपनियों में दस साल का रिटर्न नकारात्मक है. बीते दस बरस में शेयर सूचकांक 200 से 300 फीसद बढ़े लेकिन सरकारी कंपनी (-9.66%) और सरकारी बैंक सूचकांक (-27%) निवेशकों को नुक्सान के गवाह हैं.
सरकारी कंपनियां रोजगारों की फैक्ट्री भी नहीं हैं. नौकरियों के बाजार में संगठित क्षेत्र (सरकारी और निजी) का हिस्सा केवल छह फीसद है. जुलाई में डीए बढ़ने के वक्त बताया गया था कि 40 लाख पदों की तुलना में केंद्रीय कर्मचारियों की तादाद 31.42 लाख है. 2016 के के सरकारी आंकड़े के अनुसार, केवल 11.30 लाख लोग केंद्रीय सरकारी कंपनियों में हैं.
निजीकरण क्रांति है?
सरकारी कंपनियों के निजीकरण या विनिवेश से हमारे सभी दुख-दर्द दूर होने जाने के दावों को तथ्यों का आईना दिखाना जरूरी है. 2019-20 में 84 सरकारी कंपनियों का सालाना घाटा करीब 45,000 करोड़ रुपए रहा (सरकारी उपक्रम सर्वे) है. सरकारी कंपनियों को बेचकर राजस्व जुटाने का लक्ष्य बीते एक दशक में केवल दो बार मिला और वह भी अधिकतम एक लाख करोड़ रुपए. अगर सरकार इस साल इतना भी जुटा लेती है तो भी वह एयर इंडिया और बीएसएनएल के संचित घाटे (1.10 लाख करोड़) से कम होगा.
मतलब यह कि अगर चार साल में 6 लाख करोड़ रुपए का असंभव लक्ष्य मिल भी जाए तो कुछ बदलेगा नहीं. न घाटा खत्म हो जाएगा, न पेट्रोल-डीजल सस्ते होंगे, न टैक्स कम होने लगेंगे और न ही सरकार चुस्त होकर शानदार सेवाएं देने लगेगी.
लेकिन यह मजबूरी है
केंद्र सरकार की कंपनियां पुरानी बीमारियों की तरह हैं. सरकारी कंपनियों की संख्या बढ़ रही है. 2014 में इस परिवार में 234 सदस्य थे अब 257 हैं. 2009 से 2018 के बीच में इनमें लगी सरकारी पूंजी यानी टैक्स देने वालों का पैसा 7.92 लाख करोड़ रुपए से बढ़कर 22.72 लाख करोड़ रुपए पहुंच गया लेकिन इसी दौरान इनमें लगे प्रत्येक एक रुपए पर वापसी 25 पैसे से घटकर 11 पैसे रह गई है.
इनके मुनाफे केवल भ्रम हैं. लाभ वाली दस शीर्ष कंपनियां तेल, कोयला, बिजली और गैस क्षेत्र की हैं, जहां सरकार का एकाधिकार है. प्रतिस्पर्धा शुरू होते ही वे एयर इंडिया बन जाएंगी. अन्य सार्वजनिक कंपनियां व बैंक प्रत्येक पैमाने पर अपने निजी समकक्षों से बहुत पीछे हैं. पिछले दो दशक में सबसे ज्यादा नए रोजगार टेलीकॉम, सूचना तकनीक, बैंकिंग में आए हैं, जहां सरकार ने निजीकरण किया है.
सरकारी कंपनियों के पुनर्गठन और विनिवेश पर भाजपा और कांग्रेस अपने कुर्ते आपस में बदलती रही हैं. निजीकरण के विरोधी और समर्थक दोनों ही टैक्स देते हैं इसलिए उन्हें इस विनिवेश की सियासत समझनी होगी. सरकारें अंतिम विकल्प तक इन्हें बनाए रखकर अपने भ्रष्ट फायदों के लिए निचोड़ लेना चाहती हैं या फिर कोई रास्ता न बचने पर इन्हें अपने चहेते उद्यमियों को सौंप देना चाहती हैं.
अगर आप इन परजीवियों को पालने की हिमायत करते हैं तो इनके लिए आगे और ज्यादा टैक्स चुकाने को तैयार रहिए. इनके रहते हुए हमें लंबे वक्त तक खराब और महंगी सरकारी सेवा झेलनी होगी. लेकिन अगर आप इन्हें बेचने हक में हैं तो बिक्री पारदर्शिता पर सवाल उठाइए ताकि निजी कंपनियां सरकारी एकाधिकार की जगह न ले लें.
सरकारी कंपनियों की बिक्री कोई क्रांतिकारी सुधार नहीं है, यह एक अनिवार्य उपचार है जो बस सही तरीके से किया जाना चाहिए.
1 comment:
विनिवेश हो, न हो, हमारी किस्मत में मोटे हर्फ़ों में दर्ज है, लुटना और केवल लुटना।
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