Monday, November 22, 2010

भ्रष्टाचार का मुक्त बाजार

अर्थार्थ
राजाओं, कलमाडिय़ों, मधु कोड़ाओं और ललित मोदियों के शर्मनाक संसार को देखकर क्या सोच रहे हैं ... यही न कि आर्थिक खुलेपन की हवा भ्रष्टाचार के पुराने इन्फेक्शन को खूब रास आ रही है ? वेदांतो, सत्यमों व तमाम वित्तीय कंपनियों के कुकर्मों में आपको एक आर्थिक अराजकता दिखती होगी। कभी कभी यह कह देने का मन होता होगा कि आर्थिक उदारीकरण ने भारत में भ्रष्टाचार का उदारीकरण कर दिया है !!.... माना कि यह ऊब, खीझ और झुंझलाहट है मगर बेसिर पैर नहीं है। मान भी लीजिये कि हम मुक्त बाजार की विकृतियों को संभाल नहीं पा रहे हैं। रिश्वत, कार्टेल, फर्जी एकाउंटिंग, कारपोरेट फ्रॉड, लॉबीइंग, नीतियों में मनमाना फेरबदल, ठेके, निजीकरण का इस्तेमाल .... उदार बाजार का हर धतकरम भारत में खुलकर खेल रहा है। राजा व कोड़ा जैसे नेताओं की नई पीढ़ी अब राजनीतिक अवसरों में कमाई की संभावनाओं को चार्टर्ड अकाउंटेंट की तरह आंकती है, इसलिए भ्रष्टाजचार भी अब सीधे नीतियों के निर्माण में पैठ गया है। सातवें आठवें दशक के नेता अपराधी गठजोड़ की जगह अब नेता-कंपनी गठजोड़ ले ली है। यह जोड़ी ज्यादा चालाक, आधुनिक, रणनीतिक, बेफिक्र और सुरक्षित है। मुक्त बाजार में ताली दोनों हाथ से बज रही है।
खुलेपन का साथ
मुट्ठी में दुनिया (मोबाइल) लिये घूम रही भारत की एक बड़ी आबादी को मालूम होना चाहिए कि यह सुविधा बहुतों की मुट्ठयां गरम होने के बाद मिली है। सुखराम से राजा तक, दूरसंचार क्षेत्र का उदारीकरण अभूतपूर्व भ्रष्टा्चार से दागदार है। सिर्फ यही क्यों पूंजी बाजार, खनन, अचल संपत्ति व निर्माण, बैंकिंग, वायु परिवहन, सरकारी अनुबंध ... हर क्षेत्र में उदारीकरण के बाद बडे घोटाले दर्ज हुए हैं। उदारीकरण और भ्रष्टाचार रिश्ते की सबसे बड़ी पेचीदगी यही है कि
 इस धतकरम पर खुलेपन के फायदे अक्स र भारी पड़ जाते हैं। दूरसंचार का उदारीकरण सफल है मगर भ्रष्ट नेता और लालची कंपनियां अरबों कूट ले गए। दुनिया मुक्ता बाजार और भ्रष्टारचार के रिश्ते को अब तक सुलझा नहीं पाई है। तथ्यू तो यही बताते हैं कि एक की मौजूदगी में दूसरा बढ़ता है। ट्रासंपेरेंसी इंटरनेशलन सहित भ्रष्टा चार को आंकने वाले सभी भरोसेमंद अध्यरयनों में ब्राजील, भारत, रुस, चीन, मलेशिया, इंडोनेशिया, ताईवान आदि भ्रष्टातम देशों के चैम्पियन हैं। इन देशों ने बीते दो तीन दशकों में अपने बाजार खोले हैं। कुछ साल पहले अमेरिका के रोचेस्टैर इंस्टी ट्यूट ने उदारीकरण और भ्रष्टा चार के संबतध को आंकते हुए यह नतीजा निकाला था कि जिन देशों में लोकतंत्र पहले और आर्थिक उदारीकरण बाद में आया है वहां मुक्तत बाजार ने भ्रष्टाचार को नए आयाम दे दिये हैं। उदारीकरण अनंत अवसरों, नियंत्रणों से मुक्ति और पैसे की आंधी लेकर आता है जिसके सामने लोकतंत्रों का कमजोर विनियमन अक्सोर बोदा साबित होता है। यहर बात भारत पर भी फिट बैठती है।
देने वाले हाथ
खुली अर्थव्यथवस्था ओं में भ्रष्टा चार के लिए ज्याठदा खुराक उपलब्ध है। लाभ के नए अवसर प्रतिस्पयर्धा बढ़ाते हैं और रिश्वंत देने वाले हाथों की तादाद भी तेजी से बढ़ती है। तभी तो ब्राजील में बिजली कंपनियों, रुस में खनन कंपनियों या भारत में दूरसंचार सेवा का निजीकरण भ्रष्टा चार की विकट कथायें बनाता है। 1980 से लेकर अब तक दुनिया में करीब एक लाख बड़े सार्वजनिक उपक्रमों का निजीकरण हुआ है जिनकी संपत्तियां खरबों डॉलर में हैं। निजीकरण ने राजनेताओं के हाथों में बेचने की अकूत ताकत पहुंचा दी है और मोटी जेब वाली कंपनियां कुछ भी करने को तैयार हैं। बोली दस्ताूवेजों में हेर फेर, रिश्वंत, कानून बदलकर तरफदारी.... रास्तेक सब जगह एक जैसे ही हैं और नेता कंपनी की जोड़ी हर जगह काम करती है। कार्टेल का करिश्म भी मुक्त जार में ही होता है। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की रिपोर्ट बताती है कि 1990 से 2005 के दौरान विश्व बाजार में कंपनियों के 283 कार्टेल ने कीमतों को मनमाने ढंग से तय कर उपभोक्तांओं 300 बिलियन डॉलर का चूना लगाया। 1997 का एक सैम्पल अध्यंयन बताता है कि प्रमुख विकासशील देशों ने करीब 55 बिलियन डॉलर का आयात केवल 19 कंपनियों से किया। नेता नियामकों की कृपा से भारत में सरकारी ठेकों से लेकर दूरसंचार सेवाओं तक कई जगह कार्टेल दिखते हैं। फर्जी कंपनियां, निवेशकों से धोखा, खातों में हेर फेर, काले धन की धुलाई और सैकड़ों किसम के वित्तीय फर्जीवाड़े भी भारत के मुक्त बाजार की ताजी पहचान हैं। तकनीक हर बुरे खेल में भी मददगार है। नियामक नौसिखुए है और कंपनियां चालाक व अनुभवी। भारत के नेता इन कंपनियों से भ्रष्टाचार के गुर सीखने को बेताब है।
लेने वाले हाथ
ट्रासंपेरेंसी इंटरनेशनल (टीआई) के ब्राइब पेइंग इंडेक्सर में दुनिया की उभरती अर्थव्यवस्थायें (भारत, चीन, ब्राजील, रुस व मैक्सिको) रिश्व्तखोरी के अभयारणय के तौर पर दर्ज हैं। भारत में 25 फीसदी रिश्वंत सीधे नेताओं को जाती है। पूरी दुनिया पॉलिटिकली एक्सिपोज्डक पर्सन (पेप), मोटे तौर पर नेताओं से परेशान है जो विकासशील देशों से हर साल 20 से 40 बिलियन डॉलर लूट ले जाते हैं। मुक्तं बाजार के दौर में राजनी‍ति बिरले ही पाक साफ रह पाती है। चारो तरफ बहता पैसा नेताओं को दीवाना कर देता है। राजनीतिक रसूख कंपनियों की भी धाक बढ़ाता है, सियासत से करीबी रखने वाली कंपनियां लंदन पूंजी बाजार के 40 फीसदी पूंजीकरण पर काबिज हैं। कारपोरेट लॉबीइंग यानी नीतियों को अपने पक्ष में मोड़ना अब कंसल्टेंसी है। अंतरराष्टीय सर्वेक्षणों के मुताबिक निर्माण, सरकारी ठेके, निजीकरण, तेल व गैस, अचल संपत्त, खनन, बैंकिंग व वित्ती,य सेवायें रिश्वत देने में महारथी हैं और मजा देखिये कि भारत में उदारीकरण का झंडा इन्ही क्षेत्रों के हाथ है। समस्या दरअसल लेने वालों हाथों की है क्योंत कि देने वाले हाथों को पकड़ने का जिम्मा भी उनका है। मुक्त बाजार की विकृतियों को रोकने के लिए राजनीतिक सुधार और पारदर्शिता के सख्तक नियम अनिवार्य हैं मगर बदकिस्मती देखिये कि इन सुधारों का जिम्मा् भी लेने वाले हाथों पर ही है।
   गुलामी की लंबी परंपरा के कारण के कारण भारत के राजनीतिक व प्रशासनिक ढांचे में भ्रष्टाहचार अतीत से मौजूद है। बहुदलीय लोकतंत्र, आर्थिक गैरबराबरी, कमजोर कानूनों और बंद अर्थव्यवस्था ने इसे पुख्ता किया है। खुले बाजार की पीठ पर बैठकर यह अपने पूरे रंग में आ गया है। निजी कंपनियां इसकी पालकी उठा रही हैं। दुनिया अब हमें उदार अर्थव्यवस्था, भ्रष्ट राजनीति और लचर कानूनों वाला देश मानती है। भारत में सबसे बड़ा जोखिम यहां की भ्रष्ट सियासत व नौकरशाही है जिसे कंपनियां कारोबारी लागत में बाकायदा शामिल करती हैं। भारत का मुक्त बाजार साल दर साल दागदार हो रहा है। इसके फायदे कितनों तक पहुंचे हैं इस पर बहस हो सकती है लेकिन इसका फायदा कितनों ने उठाया है यह किसी से छिपा नहीं है। हम उदारीकरण के फायदों से इस लूट की अदला बदली नहीं कर सकते क्यो कि भारत जैसे असमान समाज में इस लूट की हिंसक प्रतिक्रिया दूर कहीं बस्तंर और गढ़चिरौली में होती है।

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