Monday, January 5, 2015

बेहद सख्त है यह जमीन

लगभग हर राज्य भूमि अधिग्रहण विवादों की बारूदी सुरंगों पर बैठा है। मोदी की मुश्किल यह है कि खाद्य उत्पादों की कीमतें घटने और समर्थन मूल्यों में बढ़त पर रोक से माहौलअबखेती के खिलाफ हो रहा  है 

 माम लोकप्रियता के बावजूद मोदी सरकार के लिए किसानों को यह समझ पाना शायद सबसे मुश्किल होगा कि जमीन का अधिग्रहण तर्कसंगत है, ठीक उसी तरह जैसे कांग्रेस सरकार निवेशकों को समझने में नाकाम रही थी कि वह आर्थिक सुधारों की राह पर आगे बढ़ रही है. जमीन, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राजनैतिक कौशल की सबसे कड़ी परीक्षा लेने वाली है.
भूमि अधिग्रहण को उदार करने के साथ जमीन, गांव, किसान, खेती और स्वयंसेवी संगठन राजनैतिक बहसों के केंद्र में वापस लौट रहे हैं, जो बीजेपी के हाइ-प्रोफाइल चुनावी विमर्श से बाहर थे. कानून में अध्यादेशी बदलाव साहसिक हैं लेकिन शुरुआत सहमति से होती तो बेहतर था, क्योंकि जमीन को लेकर संवेदनशीलता चरम पर है. भूमि की जमाखोरी व मनमाने कब्जे माहौल बिगाड़ चुके हैं और लगभग हर राज्य भूमि अधिग्रहण विवादों की बारूदी सुरंगों पर बैठा है. इस संवेदनशील कानून को उदार करते हुए किस्मत, सरकार के साथ नहीं है. देशी व विदेशी माहौल में बदलाव से खेती के अच्छे दिन कमजोर पड़ रहे हैं. 2008 से 2014 के बीच फसलों का समर्थन मूल्य 130 फीसदी बढ़ा जबकि इससे पहले आठ वर्षों में बढ़ोतरी केवल 30 फीसदी थी. 2009 से 2013 के बीच सरकार ने बफर स्टॉक की जरूरत से दोगुना-तिगुना अनाज खरीद डाला. समर्थन मूल्यों में इस कदर इजाफा और अनाज की भारी सरकारी खरीद तर्कसंगत नहीं थी. लेकिन इससे बाजार खेती माफिक हो गया. मोदी सरकार ने सत्ता में आने के बाद समर्थन मूल्य पर बोनस तय करने में राज्यों के अधिकार सीमित कर दिए. यह पाबंदी भी व्यावहारिक थी लेकिन बीजेपी के भीतर और संसद में भी इसका विरोध हुआ है. पिछले एक दशक में खेती में चार फीसदी की औसत ग्रोथ के बावजूद 2009 से 2014 तक खाद्य उत्पादों में महंगाई का गणित खेती के पक्ष में था. कृषि उत्पादों का ग्लोबल बाजार बढऩे से 2010 से 2013 के बीच भारत का कृषि निर्यात भी तिगुना हो गया. नेशनल सैंपल सर्वे की ताजा रिपोर्ट बताती है कि बेहतर खेती और ग्रामीण रोजगार गारंटी पर भारी खर्च के चलते कृषि मजदूरी छह फीसदी (महंगाई निकाल कर) सालाना की दर से बढ़ी है जो पिछले एक दशक में सर्वाधिक है. हालांकि सर्वे यह भी बताता है कि खेती के लिए सबसे अच्छे दशक के दौरान करीब 52 फीसदी किसान कर्ज में दब गए. उन पर बकाया कर्ज में 26 फीसदी हिस्सा सूदखोर महाजनों का है. खाद्य उत्पादों की कीमतें घटने, समर्थन मूल्यों में बढ़त पर रोक और कमॉडिटी के ग्लोबल बाजार में गिरावट के बीच माहौल, अब, खेती के खिलाफ है और किसान आत्महत्याएं इसे और पेचीदा बना रही हैं. इसलिए भूमि अधिग्रहण को लेकर संवेदनशीलता कई गुना बढऩे वाली है. ग्रामीण, किसान और स्वयंसेवी संगठनों की राजनीति के लिए जमीन पूरी तरह तैयार है क्योंकि अध्यादेश के बाद कई पैमानों पर भूमि अधिग्रहण की व्यवस्था, 2013 के कानून से पहले वाली स्थिति में होगी. जहां निजी-सरकारी भागीदारी की परियोजनाओं सहित लगभग सभी बड़े निर्माणों के लिए भू-स्वामियों की अनुमति या अधिग्रहण के जीविका पर असर के आकलन की शर्त हटा ली गई है.
इस विरोध को थामने के लिए बीजेपी का राजनैतिक हाथ जरा तंग है. भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव पर पार्टी के सांसदों व संघ परिवार को टटोलते हुए, इस असमंजस को खुलकर महसूस भी किया जा सकता है. मोदी का पूरा चुनाव अभियान शहरों से संवाद करता था, गांव चर्चा में नहीं थे. संघ परिवार से मदद की गुंजाइश कम ही है क्योंकि स्वदेशी जागरण मंच तो यूपीए से भी सख्त अधिग्रहण कानून का मसौदा बनाकर बैठा था. बीजेपी शहरों की पार्टी है, चहेते उद्योगों को नवाजने के आरोप उसकी पीठ पर लदे हैं जो भूमि अधिग्रहण को उदार बनाने के तर्कों की चुगली खाएंगे. कांग्रेस चुनाव के खौफ में थी इसलिए उसने सभी पक्षों से मशविरा किए बगैर एक बेतुका भूमि अधिग्रहण कानून देश पर थोप दिया, जिससे न किसानों को फायदा मिला और न उद्योगों को. ठीक उसी तरह बीजेपी आर्थिक सुधारों पर अपनी साख बचाने के लिए अध्यादेश लेकर कूद पड़ी है जिसके आधार पर न तो अधिग्रहण होगा और न ही निवेश. संसद से मंजूरी व सहमति के बाद ही बात आगे बढ़ेगी.
सरकार इस कानून में बदलावों पर आम राय की कोशिश के जरिए संभावित विरोध की धार को कुछ कम कर सकती थी. दिलचस्प है कि सरकार के इस बड़े राजनैतिक जोखिम के बावजूद उद्योग खुश नहीं है क्योंकि गैर बुनियादी ढांचा निवेश के लिए अधिग्रहण की शर्तें जस की तस हैं और ज्यादातर निवेश मैन्युफैक्चरिंग में ही होना है. दरअसल, अध्यादेश का दंभ दिखाकर सरकार ने भूमि अधिग्रहण की जमीन को और पथरीला कर लिया है. मोदी उस समय गुजरात के मुखिया थे जब सितंबर 2012 में सुरेंद्रनगर व मेहसाणा जिलों के 44 गांवों को मिलाकर मंडल बेचराजी स्पेशल इन्वेस्टमेंट रीजन बनाने की अधिसूचना जारी हुई थी. एक साल तक चला विरोध अंतत: गांधीनगर तक पहुंचा और अगस्त 2013 में स्पेशल इन्वेस्टमेंट रीजन का दायरा घटाते हुए में 36 गांवों को अधिग्रहण से बाहर किया गया. गुजरात बीजेपी के नेता भी मानते हैं कि 12 वर्ष में पहली बार किसी जनांदोलन के सामने मोदी सरकार को हथियार डालने पड़े थे. भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव के साथ मोदी सरकार, राजनीति के महत्वपूर्ण मोड़ पर आ खड़ी हुई है. विकास के लिए जमीन की आपूर्ति और भूमि अधिकारों की हिफाजत के बीच संतुलन बेहद नाजुक है.
मोदी को अब न केवल संघ परिवार और विपक्ष की भरपूर मदद चाहिए बल्कि व्यापक जनसमर्थन की भी जरूरत है. कोई शक नहीं कि अगर मोदी, भूमि अधिग्रहण के फायदे किसानों को समझ सके तो उनकी सफलता का परचम खेत से कारखानों तक लहराएगा. लेकिन फिलहाल तो भूमि अधिग्रहण की कडिय़ल और बारूदी जमीन उनकी राजनैतिक दक्षता का इम्तिहान लेने को बेताब है.


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