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Friday, May 14, 2021

कोई नहींं जिनका

 


उर्मिला अपने पति मनोज और बच्चों के साथ गरीबी को लेकर बीते बरस ही गांव पहुंच गई थी. 2020 के लॉकडाउन ने फरीदाबाद में उसकी गृहस्थी उजाड़ दी थी. पूरा साल बचत खाकर और कर्ज लेकर कटा. करीबी कस्बों में काम तलाशते हुए परिवार को अप्रैल में कोरोना ने पकड़ लिया, पिता हांफते हुए गुजर गए, मनोज और उर्मिला बीमार हैं, खाने और इलाज के पैसे नहीं हैं.

कोविड की पहली लहर तक आत्ममुग्ध सरकारें मुतमइन थीं कि बीमारी शहरों-कस्बों तक रह जाएगी लेकिन सरकारी आंकड़े बता रहे हैं कि पांच मई तक 243 अति पिछड़े जिलों (अधि‍कांश उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, ओडिसा, झारखंड) में 36,000 मौतें हुईं हैं और संक्रमितों की संख्या करीब 39 लाख पर पहुंच गई जो बीते साल 16 सितंबर को पहली लहर के शि‍खर की तुलना में चार गुना ज्यादा है.

शहरों में मौतें संसाधनों या खर्च क्षमता की कमी से नहीं बल्कि तैयारियों की बदहवासी से हुई थीं. लेकिन गांवों में जहां पहली लहर गरीबी लाई थी, वहीं दूसरी बीमारी और मौत ला रही है.

करीब 10 करोड़ लोग (मिस्र की आबादी के बराबर) भारत में हर पखवाड़े बीमार होते हैं. 1,000 में 29 अस्तपाल में भर्ती होते हैं. बीमारियों की सबसे बड़ी वजह संक्रमण हैं. गांवों में 35 फीसद लोग संक्रमण और उनमें भी 11 फीसद लोग सांस से जुड़ी बीमरियों का शि‍कार होते है. (एनएसएसओ 75वां दौर 2018)

गांवों के सरकारी अस्पतालों में प्रति 10,000 लोगों पर केवल 3.2 बिस्तर हैं. उत्तर प्रदेश, बिहार (0.6), झारखंड, राजस्थान, महाराष्ट्र में तो इससे भी कम. सामुदायि‍क स्वास्थ्य केंद्रों पर 82 फीसद स्वास्थ्यकर्मियों के पास कोई विशेषज्ञता नहीं है. (नेशनल हेल्थ प्रोफाइल सेंसस 2011)

करीब 74 फीसद ओपीडी और 65 फीसद अस्पताल सुविधाएं निजी क्षेत्र से आती हैं जो नगरों में हैं. गांवों में भी सरकारी अस्पतालों के जरिए इलाज में औसत 5,000 रुपए खर्च आता है. अस्पताल में भर्ती का न्यूनतम खर्च करीब 30,000 रुपए दैनिक है. आर्थि‍क समीक्षा 2021 ने बताया था कि सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं सुधरें तो इलाज पर गरीबों का 60 फीसद खर्च बच सकता है.

आयुष्मान भारत की याद आ रही है न? महामारी में कहां गया गरीबों का सहारा या दुनिया का सबसे बड़ा हेल्थ बीमा कार्यक्रम? कोविड (लॉकडाउन पहले और बीच में) के दौरान आयुष्मान के संचालन पर नेशनल हेल्थ अथॉरिटी (आयुष्मान की रेगुलेटर) का डेटा एनालिटिक्स बताता है कि इसकी क्या गत बनी है

कोविड से पहले तक करीब 21,573 अस्पताल (56 फीसद सरकारी, 44 फीसद निजी) आयुष्मान से जुड़े थे, जिनमें करीब 51 फीसद अस्पताल कार्ड धारकों को सेवा दे रहे थे. लॉकडाउन के बाद अस्पतालों की सक्रियता 50 फीसद तक घट गई. निजी (50 बेड से कम) और सरकारी (100 बेड से कम) अस्पतालों ने सबसे पहले खि‍ड़की बंद की, जिसका असर कस्बों पर पड़ा जहां ग्रामीणों को इलाज मिलता है.

आयुष्मान के तहत अस्पतालों की सेवाओं का उपयोग लॉकडाउन के बाद 61 फीसद तक कम हो गया.

बिहार, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, कर्नाटक सहित करीब 13 राज्यों में आयुष्मान पूरी तरह चरमरा गई.

सरकार की सबसे बड़ी स्वास्थ्य योजना महामारी की वास्तवि‍कताओं के हिसाब से बदल नहीं सकी, अलबत्ता इसके चलते कई प्रमुख राज्यों में सस्ते इलाज की स्कीमें निष्क्रिय हों गईं.

उर्मिला और मनोज जिस भारत के जिस सबसे बड़े तबके आते हैं, कोविड उनका सब कुछ तबाह कर देने वाला है. इनका परिवार उन 5.5 करोड़ लोगों का हिस्सा हैं जो केवल इलाज के कारण गरीब (पब्लिक हेल्थ फाउं‍डेशन सर्वे) होते हैं. इसमें भी अधि‍कांश गरीबी दवाओं की लागत और प्राथमि‍क इलाज के कारण आती है.

इनका परिवार उन 19 करोड़ (करीब 14 फीसद आबादी) लोगों का हिस्सा भी है जो भारत में बुरी तरह कुपोषण का शि‍कार हैं (वर्ल्ड फूड ऐंड न्यूट्रिशन रिपोर्ट 2020-यूएनओ). सनद रहे कि भारत के भुखमरी की रैंकिंग (ग्लोबल हंगर इंडेक्स) में 117 देशों में 102वें स्थान पर है.

मनोज-उर्मिला की गिनती उन 7.5 से 10 करोड़ लोगों में भी होती है जो लॉकडाउन और मंदी के दौरान गरीबी की रेखा से नीचे खि‍सक गए और उन्हें 200-250 रुपए की दिहाड़ी के लाले पड़ गए.

कोविड की दूसरी लहर ने उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ को ध्वस्त कर दिया है. तीसरी लहर पूरब के राज्यों को लपेट सकती है. यह वक्त सब कुछ छोड़ नीतियों में तीन बड़े बदलाव का है. पहलाग्रामीण इलाकों में अनाज नहीं भोजन की आपूर्ति का ढांचा बनाना, दोकिसी भी कीमत पर बुनियादी दवाओं का पारदर्शी और मुफ्त वितरण और तीनलोगों को सीधी नकद सहायता. गांवों में स्वास्थ्य सेवा की तबाही देखते हुए युद्ध स्तर की आपातकालीन चिकित्सा तैयारियां करनी होंगी.

हमें महामारियों का इतिहास हमेशा पढऩा चाहिए, जो शहरों से शुरू होती हैं और गांवों को तबाह कर देती हैं. हुक्मरान याद रखें तीसरी लहर हमें स्पैनिश फ्लू (दूसरी व तीसरी सबसे मारक) जैसी तबाही के करीब ले जा सकती है, जब गांवों में मृत्यु दर 50 फीसद दर्ज की गई थी.

 


Friday, April 30, 2021

हम थे जिनके सहारे

 

कोविड के दौरान अस्पताल, ऑक्सीजन, दवा तलाशते और गिड़गिड़ाते हुए भारतीयों को महसूस हुआ होगा-क्या डिजिटल इंडिया वाले ऐसा पोर्टल या ऐप नहीं बना सकते थे जो -कॉमर्स या टैक्सी सर्विस की तरह हमारी भौगोलिक स्थि (जीपीएस) के आधार पर यह बता देता कि कोविड जांच केंद्र, अस्पताल और बिस्तर, ऑक्सीजन, फार्मेसी, क्लिनिक आसपास कहां मिल सकते हैं और कब क्या मिलेगा?

कोविड के बाद दुनिया में कहीं भी रातोरात हजारों अस्पताल नहीं बन गए. अनेक देशों ने तकनीकों के योजनाबद्ध प्रयोग डाटा प्रबंधन से मौजूदा स्वास्थ्य ढांचा ठीक कर असंख्य जिंदगियां बचाई हैं.

भारत की भयानक असफलता पर तर्क देखि 100 करोड़ लोगों को अस्पताल कैसे दे सकते हैं? 100 करोड़ लोग मांग भी कहां रहे हैं. देश में सक्रिय मामले (135 करोड़ पर 30 लाख, 28 अप्रैल 2021 तक) एक फीसद से कम हैं. उनमें भी क्सीजन और गंभीर इलाज वाली दवाओं के जरूरतमंद 10 फीसद हैं. इनके लिए 29 राज्यों में 'सिस्टमयानी अस्पताल, ऑक्सीजन और दवाओं की कमी कभी नहीं थी.

फिर भी, उभरतेसुपरपॉवरऔर विश्व की फार्मेसी में मौतों की लाइन इसलिए लग गई क्योंकि हम डिजिटली अभागे भी साबि हुए हैं. प्रचार ऐप बनाने में मशगूल डिजिटल इंडिया कोविड प्रबंधन में नई तकनीकों का उतना इस्तेमाल भी नहीं कर सका जितना कोलंबिया, मैसेडोनिया, कुवैत, सऊदी अरब, पाकिस्तान जैसे देशों ने कर लिया. संकट के बाद आम लोगों ने ट्विटर सूचनाओं के डैशबोर्ड बनाकर जिस तरह मदद की, उसी के जरिए दसियों देशों में स्वाथ्य सेवाओं का डिजिटल पुर्नजन्म हो गया.

संयुक्त राष्ट्र वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम और मैकेंजी के अध्ययन बताते हैं कि सूचनाओं के प्रसारण, सेवाओं-संसाधनों की मॉनीटरिंग उपलब्धता, संक्रमण पर अंकुश, -हेल्थ मरीजों की मॉनीटरिंग में डिजिटल तकनीकों के प्रयोग ने महामारी से लड़ने का तरीका ही बदल दिया.

जर्मनी ने अचूक डाटा बेस प्रबंधन से अस्पतालों, बिस्तरों, ऑक्सीजन और दवा आपूर्ति की मॉनीटरिंग की. ब्रिटेन ने अपने पुराने नेशनल हेल्थ सिस्टम का कायाकल्प करते हुए इन्फ्लुएंजा नेट जैसे प्रयोगों से सामान्य जुकाम वालों के साथ पुराने बीमारों पर भी नजर रखी.

दक्षि कोरिया ने कोवि के बाद दो पखवाड़े में संपर्क रहित ड्राइव थ्रू टेस्टिंग शुरू कर दी, सिंगापुर सहित पूर्वी एशिया और यूरोप ने गूगल के नेटवर्क के सहारे कांटेक्ट्र ट्रेसिंग के अचूक मॉडल बनाए. कई देशों ने अपनी दवा दुकानों को जोड़कर जांच और साधनों की आपूर्ति सुचारू कर ली.

भारत का हेल्थ पोर्टल बीमारों के आंकड़ों से आगे नहीं निकल सका लेकिन फ्रांस जैसे बड़े देश ही नहीं, बुल्गारिया, युगांडा, क्यूबा, अफगानिस्तान, स्लोवाकिया, मलेशिया, किर्गिस्तान, कुवैत, इथियोपिया, ग्रीस जैसे अनेक देशों ने तकनीक का बेजोड़ इस्तेमाल किया. जबकि भारत में तो ऑक्सीजन और दवा की आपूर्ति की मॉनीटरिंग का तंत्र भी नहीं बन सका.

हमें चौंकना चाहिए कि संयुक्त राष्ट्र ने डिजिटल गवर्नेंस के सफल प्रयोगों में पाकिस्तान को शामिल किया है, जिसके नेशनल इन्फार्मेशन टेक्नोलॉजी बोर्ड ने सभी जरूरतों को एक ऐप से जोड़ने के साथ देश में भर फैले कोवि सहायता संसाधनों (अस्तपाल, दवा) आदि की भौगोलिक मैपिंग कर ली. यहां तक कि दवा की कालाबाजारी रोकने का तंत्र भी जोड़ा गया.

अमेरिका में 80 टेलीहेल्थ सेवाओं को आपात मंजूरी मिली तो शंघाई ने 11 ऑनलाइन अस्पताल खड़े कर दिए जबकि भारत में दवा और ऑक्सीजन खरीदने के लिए सीएमओ की चिट्ठी जरूरी बना दी गई. पूरी दुनिया में ऑनलाइन फार्मेसी पलक झपकते दवा पहुंचा रही हैं लेकिन भारत में लोग इंजेक्शन के लिए लाइन में लगे हैं.

भारत का आरोग्य सेतु सुर्खियां बनाकर विलीन हो गया. इसमें सूचनाओं की सुरक्षा बेहद कमजोर थी लेकिन प्रामाणि अध्ययन मानते हैं कि ज्यादातर देशों में कोविड के वक्त जो डिजिटल सेवाएं बनाई गईं उनमें निजता और गोपनीयता को पूरी तरह सुरक्षि किया गया था. भारत में जब थोथी आत्मप्रशंसा के महोत्सव चल रहे थे, तब कोवि आते ही कई देशों में प्रमुख तकनीकी कंपनियां और सरकारी नियामक, सूचना प्रबंधन, सेवा डिलिवरी और मॉनीटरिंग की नई प्रणालियां लागू कर रहे थे. इस तैयारी ने कोविड से उनकी लड़ाई तरीका ही बदल दिया.

दवा, ऑक्सीजन के लिए गिड़गिड़ाना और दयावानों से मदद की गुहार करना हरगिज जनभागीदारी नहीं है. जान बचाने की ये आखिरी कोशिशें, गर्व के नहीं शर्म के लायक हैं. महामारी ने बताया है कि हमारी तकनीकी तरक्की पूरी तरह पाखंड है. भारत का सिस्टम असफल नहीं हुआ, क्षमताएं नहीं चुकी हैं. सिस्टम तो जड़ है, जीवंत तो इसे चलाने वाले होते हैं लेकिन उन्होंने उपलब्ध तकनीकों का इस्तेमाल राजनैतिक प्रचार के लिए किया, व्यवस्था बनाने के लिए नहीं. और बढ़ते संक्रमण के बावजूद जीत का ऐलान कर दिया. 

गुस्से और दुख के संदेशों से भड़कने वाला भारतीय निजाम यह सोच ही नहीं पाता कि जिन आंकड़ों को छिपाया जा रहा है, उन्हीं के जरिए तो संसाधन और संक्रमण के प्रबंधन मॉनीटरिंग का अचूक तंत्र बना कर महामारी के मारों को दर-दर भटक कर मरने से बचाया जा सकता था.