सरकार
नवंबर 2014: ''सरकार नियामकों की व्यवस्था को सुदृढ़ करेगी. वित्तीय क्षेत्र कानूनी सुधार आयोग (एफएसएलआरसी) की महत्वपूर्ण सिफारिशें सरकार के पास हैं, इनमें कई सुझावों को हम लागू करेंगे.''—वित्त मंत्री अरुण जेटली, मुंबई स्टॉक एक्सचेंज
फरवरी 2018: ''रेगुलेटरों की बहुत बड़ी जिम्मेदारी होती है. भारत में नेताओं की जवाबदेही है लेकिन नियामकों की नहीं.''—अरुण जेटली, पीएनबी घोटाले के बाद
नियामक
मार्च 2018: ''घाटालों से हम भी क्षुब्ध हैं लेकिन बैंकों की मालिक सरकार है, हमारे पास अधिकार सीमित हैं. '' —उर्जित पटेल गवर्नर, रिजर्व बैंक
''बैंकिंग बोर्ड ब्यूरो और वित्त मंत्रालय के बीच संवाद ही नहीं हुआ. हम वित्त मंत्री के साथ बैठक का इंतजार करते रहे''—विनोद राय, बैंकिंग बोर्ड ब्यूरो के अध्यक्ष. (यह ब्यूरो बैंकों में प्रशासनिक सुधारों की राय देने के लिए बना था जो सिफारिशें सरकार को सौंप कर खत्म हो गया है.)
किसकी गफलत
घोटालों के बाद सरकारें नियामकों या नौकरशाहों के पीछे ही छिप जाती हैं. लेकिन गौर कीजिए कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ा कि पटेल की नियुक्ति या बैंकिंग बोर्ड ब्यूरो का गठन इसी सरकार ने किया था. वे नियामक हैं इसलिए उन्होंने सरकार के सामने आईना रख दिया.
बैंकों में घोटालों के प्रेत को नियामकों की गफलत ने दावत नहीं दी. 2014 में वित्तीय क्षेत्र में सुधारों का एक मुकम्मल एजेंडा सरकार की मेज पर मौजूद था. कांग्रेस के हाथ-पैर कीचड़ में भले ही लिथड़े थे लेकिन 2011 में उसे इस बात का एहसास हो गया था कि वित्तीय सेवाओं को नए नियामकों व कानूनों की जरूरत है. जस्टिस बी.एन. श्रीकृष्णा के नेतृत्व में एक आयोग (एफएसएलआरसी) बनाया गया. उसकी रिपोर्ट 22 मार्च, 2103 को सरकार के पास पहुंच गई. 2014 में नई सरकार को इसे लागू करना था. वित्त मंत्री ने 2014 में मुंबई स्टॉक एक्सचेंज के कार्यक्रम में इसी को लागू करने की कसम खाई थी.
एफएसएलआरसी ने सुझाया कि
- एक चूक से पूरे सिस्टम में संकट को रोकने (नीरव मोदी प्रकरण में पीएनबी के फ्रॉड से कई बैंक चपेट में आ गए) के लिए फाइनेंशियल स्टेबिलिटी ऐंड डेवलपमेंट काउंसिल का गठन
- वित्तीय उपभोक्ताओं को न्याय देने के लिए फाइनेंशियल रेड्रेसल एजेंसी
वित्तीय अनुबंधों, संपत्ति, मूल्यांकन और बाजारों के लिए नए कानून
- जमाकर्ताओं की सुरक्षा के लिए नया ढांचा
विभिन्न वित्तीय पेशेवरों के लिए नियामक बनाने के लिए प्रस्ताव भी सरकार के पास थे. पिछले चार साल में केवल बैंकिंग बोर्ड ब्यूरो बना जिसके लिए वित्त मंत्री के पास समय नहीं था. इसलिए वह बगैर कुछ किए रुखसत हो गया. चार्टर्ड अकाउंटेंट्स नियामक की सुध नीरव मोदी घोटाले के बाद आई. अगर यह बन पाया तो भी एक साल लग जाएगा.
दकियानूस गवर्नेंस
हम भले राजनेताओं को गजब का चालाक समझते हों लेकिन दरअसल वे आज भी 'मेरा वचन ही है मेरा शासन' वाली गवर्नेंस के शिकार हैं, यानी कि पूरी ताकत कुछ हाथों में. आज जटिल और वैविध्यवपूर्ण अर्थव्यवस्थाओं में इस तरह की सरकार बेहद जोखिम भरी है. अब सुरक्षित गवर्नेंस के लिए स्वंतत्र नियामकों की पूरी फौज चाहिए. इन्हें नकारने वाली सरकार राजनैतिक नुक्सान के साथ अर्थव्यवस्था में मुसीबत को भी न्योता देती हैं.
मोदी सरकार किसी क्रांतिकारी सुधार को जमीन पर नहीं उतार सकी तो इसकी बड़ी वजह यह है कि निवेशक उस कारोबार में कभी नहीं उतरना चाहते जहां सरकार भी धंधे का हिस्सा है. इसीलिए रेलवे, कोयला जैसे प्रमुख क्षेत्रों में स्वतंत्र नियामक नहीं बने. वहां सरकार नियामक भी है और कारोबारी भी.
पिछले चार साल में न नए नियामक बनाए गए और न ही पुराने नियामकों को ताकत मिली, इसलिए घोटालों ने घर कर लिया. हालत यह है कि लोकपाल बनाने पर सुप्रीम कोर्ट की ताजा लताड़ और अवमानना के खतरे के बावजूद सरकार इस पर दाएं-बाएं कर रही है.
राजनेता ताकत बटोरने की आदत के शिकार हैं. पिछले चार साल में केंद्र और राज्य, दोनों जगह शीर्ष नेतृत्व ने अधिकतर शक्तियां समेट लीं और सिर्फ चुनावी जीत को सब कुछ ठीक होने की गारंटी मान लिया गया. ताकतवर नेता अक्सर यह भूल जाते हैं कि स्वतंत्र नियामक सरकार का सुरक्षा चक्र हैं. उन्हें रोककर या तोड़कर वे सिर्फ अपने और अर्थव्यवस्था के लिए जोखिम बढ़ा सकते हैं. पिछले चार साल में यह जोखिम कई गुना बढ़ गया है.
घोटाले कहीं गए नहीं थे वे तो नए रहनुमाओं इंतजार कर रहे थे.
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