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Thursday, August 18, 2022

बड़ी जिद्दी लड़ाई



 

गुरु क्‍या रिजर्व बैंक महंगाई रोक लेगा?

लगभग कातर मुद्रा में चेले ने चाय सुड़कते हुए गुरु से पूछा.

बेट्टा, रिजर्व बैंक महंगाई नहीं रोक सकता. वह तो बढ़ ही गई है. बैंक केवल महंगाई बढ़ने की संभावना रोक सकता है.

क्‍या ? चेले के दिमाग में सवालों का सितार बजने लगा

सुना नहीं, आरबीआई गवर्नर शक्‍तिकांत दास ने पिछले सप्‍ताह बैंक ऑफ बड़ौदा के बैंकर्स कांक्‍लेव में यही तो कहा है.

रिजर्व बैंक बज़ा खौफज़दा है क्‍यों किे महंगाई से ज्‍यादा खतरनाक होती है उसके बढ़ते जाने की संभावना. अ‍ब तो यह भारत के उपभोक्‍ताओं की खपत का तरीका बदल रही है.

रिसर्च फर्म कांतार की ताजा स्‍टडी बताती है कि 2020 की तुलना में उपभोक्‍ता दुकानों पर ज्‍यादा जा रहे हैं लेक‍िन खरीद सात फीसदी कम हो गई है. उपभोक्‍ता सामानों की करीब 28 फीसदी खरीद  1,5,10,20 पैकिंग पर सिमट गई है. इन पैकेज की बिक्री 11फीसदी (2020 में 7 फीसदी) बढ़ी है. कंपनियों ने इनकी कीमतें बढ़ाई हैं इनमें इनका ग्रामेज यानी सामान की मात्रा घटाई है. करीब  68 फीसदी उपभोक्‍ता सामान (प्रसाधन आदि)  और शत प्रतिश खाद्य उत्‍पाद 10 रुपये से कम कीमत में उपलब्‍ध हैं. सनद रहे कि यही वह छोटा पैकेट वर्ग है जिसमें अनब्रांडेड सामानों पर सरकार ने जीएसटी लगाया है. महंगाई के कारण सिकुडती खपत पर टैक्‍स बढ़ रहा है.

बदलता उपभोक्‍ता व्‍यवहार महंगाई के बढ़ते जाने की संभावना का प्रमाण है. महंगाई से लड़ाई में यह रिजर्व की बैंक की हार के शुरुआती  संकेत हैं.

कई वर्षों में यह पहला मौका है जब महंगाई सभी घरों में फैल गई है. पहले महंगाई का दबाव खाद्य और ईंधन के वर्ग में रहता था. ईंधन और खाद्य रहित कोर यानी बुनियादी महंगाई नियंत्रण में थी इसलिए खुदरा कीमतों में आग भड़क कर ठंडी हो जाती थी

क्र‍िसिल का एक ताजा अध्‍ययन बताता है कि खुदरा मूल्‍य सूचकांक के खाद्य सामानों वाले हिस्‍से (भार 46 फीसदी) में महंगाई जमकर बैठ गई है. बीते एक साल में भारत में खाद्य उत्‍पादन लागत करीब 21 फीसदी बढ़ी है. यह बढ़त थोक मूल्‍य सूचकांक की कुल बढ़त से भी ज्‍यादा है. वित्‍त वर्ष 2022 में डीजल की थोक महंगाई 52.2 फीसदी, उर्वरक की 7.8 फीसदी, कीटनाशकों की 12.4 फीसदी और पशु चारे की महंगाई 17.7 फीसदी बढी है. अर्थात खाद्य महंगाई का तीर अब कमान से छूट चुका है

ईंधन की महंगाई पर टैक्‍स में ताजा कमी असर भी नहीं हुआ. कच्‍चे तेल की कीमत 90 डॉलर प्रति बैरल से सरकारी अनुमान से ऊपर जा चुकी है. 100-110 डॉलर प्रति बैरल नया सामान्‍य है.  कच्‍चे तेल की कीमत में 10 डॉलर प्रत‍ि बैरल की बढ़ोत्‍तरी से खुदरा महंगाई करीब 40 प्रतिशतांक बढ़ती है. ऊपर से रुपये की कमजोरी, महंगाई बढते जाने की संभावना को यहां से ईंधन मिल रहा है.

कोर इन्‍फेलशन (खाद्य और ईंधन रहित महंगाई) दो साल से रिजर्व बैंक लक्ष्‍य यानी 5 फीसदी से ऊपर है. यही खुदरा महंगाई की सबसे बड़ी ताकत है. कोर इन्‍फलेशन खुदरा मूल्‍य सूचकांक में 47 फीसदी का  हिस्‍सा रखती है जो हिस्‍सा खाद्य उत्‍पादों से भी ज्‍यादा है.

थोक महंगाई प्रचंड 15 फीसदी की प्रचंड तेजी पर है और बीते एक साल खौल रही है. गैर खाद्य थोक महंगाई तो 16 फीसदी से ऊपर है. थोक कीमतें में बढ़त का पूरा असर हमारी जेब तक नहीं आया है  क्‍यों कि खुदरा महंगाई इसकी आधी यानी औसत 6-7 फीसदी पर है.

करीब 43 उद्योगों में 800 बड़ी और मझोली कंपनियों के अध्‍ययन के आधार पर क्रिसिल को पता चला कि कच्‍चे माल की महंगाई से कंपन‍ियों के मार्जिन में एक से दो फीसदी की कमी आएगी. इसलिए मांग न होने के बाद भी कीमतों में बढ़ोत्‍तरी जारी है.

सेवाओं (सर्विसेज) की महंगाई देर से आती है लेकिन फिर वापस नहीं लौटती. परिवहन बिजली तो महंगे हुए ही हैं, रिटेल महंगाई में स्‍वास्‍थ्‍य और शिक्षा का सूचकांक लगातार 16 माह से 6 फीसदी से ऊपर है. सेवाओं और सामानों की महंगाई में एक फीसदी का अंतर है यानी सेवायें और महंगी होंगी  

बंदरगाहों पर महंगाई का स्‍वागत

महंगा आयात, उत्‍पादन की लागत बढ़ाता है. इस लागत को नापने के लिए इंपोर्ट यूनिट वैल्‍यू इंडेक्‍स को आधार बनाया जाता है. यह सूचकांक थोक महंगाई को सीधे प्रभाव‍ित करता है.  वित्‍त वर्ष 2022 के दौरान भारत की आयात‍ि‍त महंगाई दहाई के अंकों में रही. अप्रैल जनवरी के बीच यह बढ़कर 27 फीसदी हो गई. इसका असर हमें थोक महंगाई के 15 फीसदी पहुंचने के तौर पर नजर आया.

क्रिस‍िल का हिसाब बताता है कि भारत की कीमत 61 फीसदी थोक महंगाई अब आयातित हो गई. कोविड से पहले थोक मूल्‍य सूचकांक में आयात‍ित महंगाई का हिस्‍सा केवल 28.3 फीसदी था. भारत की अधिकांश इंपोर्टेड इन्‍फेलशन कच्‍चे तेल ,खाद्य तेल और धातुओं से आ रही है.

भारतीय आयात में 60 फीसदी हिस्‍सा खाड़ी देशों, चीन, आस‍ियान, यूरोपीय समुदाय और अमेरिका से आने वाले सामानों व सेवाओं का है. जहां कैलेंडर वर्ष 2021 में निर्यात महंगाई 10 से 33.6 फीसदी तक बढ़ी है.

कपास और कच्‍चे तेल को छोड कर अन्‍य सभी कमॉड‍िटी ग्‍लोबल महंगाई अभी पूरी तरह भारत में लागू नहीं हुई है. कोयला और यूरि‍या की महंगाई तो अभी आई ही नहीं है. यूर‍िया को सरकार सब्‍स‍िडी से बचा रही है लेक‍िन महंगा कोयला बिजली की दरें जरुर बढ़ायेगा

ये तो कम न होगी!

धूमिल कहते थे लोहे का स्‍वाद लोहार से नहीं घोड़े से पूछो जिसके मुंह में लगाम है. महंगाई कम होगी इसका जवाब सरकार नहीं आप खुद स्‍वयं को देंगे, जो इसे सह और भुगत रहे हैं. रिजर्व बैंक हर दूसरे महीने भारतीय परिवारों से महंगाई का स्‍वाद पूछता है. जून के सर्वे में महंगाई बढ़ने की संभावना का सूचकांक मार्च की तुलना में 40 फीसदी बढ़ा है सरकार भले ही कहे कि महंगाई घटकर 6-7 फीसदी रहेगी लेकिन उपभोक्‍ता मान रहे हैं कि यह 11 फीसदी से ऊपर रहेगी.

महंगाई कम होने का दारोमदार नॉर्थ ब्‍लॉक और बैंक स्‍ट्रीट पर नहीं बल्‍क‍ि उपभोक्‍ताओं के यह महसूस करने पर है कि सचमुच कीमतें कम होंगी. महंगाई की बढ़ते जाने की संभावना ही महंगाई की असली ताकत है, यही ताकत रिजर्व बैंक पर भारी पड़ रही है.  


Thursday, March 24, 2022

तेल की तेजी का आख‍िरी उबाल



  

यूक्रेन पर रुस के हमले बाद बाजारों का हाल देखकर न‍िकोलस और डैनियल चढ़ गए पहाड़ पर.

नीचे तलहटी में 140 डॉलर प्रति बैरल के कच्‍चे तेल की कौआ-रोर मची थी. गोल्‍डमैन ने सैक्‍शे ब्रेंट क्रूड पर 185 डॉलर की कीमत का दांव लगा चुका था. लंदन के हेज फंड वेस्‍टबेक कैपिटन ने तो कच्‍चे तेल 200 डॉलर की मंज‍िल तक जाता देख ल‍िया.

न‍िकोलस और डैनियल दोनों सयाने निवेशक हैं वे दूर की देखना जानते हैं. दूरबीनों से उन्‍होंने अंदाज लगाया, नोट्स बनाये, और पता चला कि दोनों के पास एक जैसे आंकड़े थे.

बस वे फुर्ती से रोप वे पकड़कर नीचे आ गए.

लेक‍िन यह क्‍या नीचे उतरते ही डैनियल ने आनन फानन में तांबे यानी कॉपर के फ्यूचर्स की महंगाई पर दांव लगा दिया. कुछ पैसा उन्‍होंने नेचुरल गैस की पाइपलाइन बिछाने वाली कंपनियों और ग्रीन हाइड्रोजन तकनीक वाली कंपनियों में लगा दिया.

इधर निक ने ब्रेंट का फ्यूचर्स खरीद ल‍िया. तेल महंगा होने पर पूंजी लगा दी. मोर्गन ने उन्‍हीं तेल कंपन‍ियों में अपने न‍िवेश को और बढ़ा दि‍या, जो रुस छोड़ कर निकली हैं और उन्‍हें फिलहाल नुकसान हुआ है.

निकोलस मान रहे हैं कि उनकी किस्‍मत से 80 से 100 डॉलर प्रति बैरल वाले तेल के खेल को नई उम्र लग गई है. तेल की यह तेजी जल्‍दी नहीं जाने वाली. सो मौका है चौके पर चौका लगाने का

डेनियल भी मानते हैं कि न‍िकोलस का फार्मूला जब तक काम करेगा यानी तेल खौलता रहेगा उनके लिए मौका ही मौका होगा. अलबत्‍ता लेक‍िन उन्‍होंने तांबे का फ्यूचर्स क्‍यों खरीद डाला इस पर आगे बात करेंगे पहले देखें कि नि‍कोलस और डैन‍ियल को तेल की तेजी टिकाऊ क्‍यों लग रही है या कि वे एसा क्‍यों मान रहे हैं कि दुनिया 100 डॉलर प्रति बैरल का तेल बर्दाश्‍त कर सकती है

न‍िकोलस का दांव पहली ही चोट में सटीक बैठा. जब दुनिया भर के ज्ञानी कह रहे थे कि तेल की महंगाई के बाद अब ओपेक पर उत्‍पादन बढ़ाने का दबाव बनाया जाएगा. अमेरिका और यूरोप मध्‍य पूर्व के देशों का हुक्‍का पानी बंद कर देंगे तब सऊदी अरब ने दुनिया के सभी बाजारों के ल‍िए शुक्रवार 4 मार्च को कच्‍चे तेल की कीमत बढ़ा दी. इससे पहले ट्यूनीस‍िया एक माह से कम समय में दो बार तेल की कीमत बढ़ा चुका है.

उम्‍मीद तो यह थी ऊर्जा बाजार में लगी आग के बाद 23 तेल उत्पादक देशों के कार्टेल ओपेक उत्‍पादन बढ़ायेगा ताक‍ि कीमतें कम हों लेकि‍न यहां तो कीमतें बढ़ा दी गईं. सऊदी अरब जो ओपेक के तेल उत्‍पादन में 30 फीसदी हिस्‍सा रखता है. जो मांग आपूर्ति के हिसाब उत्‍पादन घटाने बढ़ाने की क्षमता रखता है यानी स्‍विंग प्रोड्यूसर है रुसी आपूर्ति टूटने से तेल में लगी महंगाई की आग में कीमत बढ़ाने का पेट्रोल छिड़क दिया.

न‍िकोलस ने वह आंकड़े पढ़ रखे हैं जिनको देखकर तेल की कीमतों और उत्‍पादन के रिश्‍ते का भ्रम हो जाता है. यकीनन दुनिया का 60 फीसदी तेल उत्‍पादन ओपेक देशों से बाहर है. यह अमेरिका, नॉर्थ सी ओर पुराने  सोव‍ियत के अलग हुए देशों के पास है.

तेल खौलना शुरु हुआ तो बहुतों ने दावा किया कि गैर ओपेक देश अपना उत्‍पादन बढ़ायेंगे और ओपेक वालों को घुटने पर लाएंगे. यह सुनकर मोर्गन मुस्‍करा दिये थे

इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी के वर्गीकरण में गैर ओपेक देश आमतौर पर प्राइस टेकर्स माने जाते हैं. वे कीमतों का फायदा उठाते हैं कीमतें प्रभावित नहीं करते. इन देशों उत्‍पादन अपनी पूरी क्षमता पर हैं इसलिए मांग व आपूर्ति का अंतर ओपेक देश पूरा करते हैं. ओपेक कीमत प्रभावित करता है यानी प्राइस इन्‍फ्लुऐंसर है.

गैर ओपेक मुल्‍कों को उत्‍पादन की लागत ज्‍यादा है. वे तेल के साथ ल‍िक्‍विड नेचुरल गैस (एनजीएल) के उत्‍पादन तो ज्‍यादा तवज्‍जो देते हैं इसलिए बात जब कच्‍चे तेल की होते ओपेक का कार्टेल ही राजा है.

नि‍कोलस जैसे निवेशक बखूबी यह जानते हैं कि प्राइस टेकर्स होने के कारण कीमतें बढ़ने का लाभ अमेरिका जैसे तेल उत्‍पादकों को खूब मिलता है इसलिए तेल बाजार में बहुत कुछ बदलता नहीं. इस बार भी भी नहीं बदला और कीमतें अपने आप ही नीचे आएंगी

न‍िकोलस के पास एक गज़ब का आंकडा है जिसने उन्‍हें तेल फ्यूचर्स में निवेश बढ़ाने का आधार दिया है. जे पी मोर्गन का एक अध्‍ययन बताता है कि 2010 से 2015 के बीच कच्‍चे तेल कीमत औसत 100 डॉलर के आसपास रही लेकि‍न दुन‍िया में कोई संकट नहीं आया. अर्थव्‍यवस्‍थायें बढ़ती रहीं. इस आधार पर अन्‍य एसेट, महंगाई वेतन आद‍ि की बढ़त की तुलना में देखने पर दुनिया 130 डॉलर प्रति‍ बैरल तक का तेल बर्दाश्‍त कर लेगी.

न‍िकोलस चार्ट देखकर बताते हैं कि एमएससीआई वर्ल्‍ड इंडेक्‍स के अनुसार बीते 2011 के बाद एक दशक में दुनिया में शेयर कीमत 125 फीसदी और अचल संपत्‍ति‍ की कीमत दोगुनी हो गई लेकिन ब्रेंट फ्यूचर्स दस फीसद के नुकसान में हैं

यानी कच्‍चा तेल तो अभी भी बहुत सस्‍ता है !

बैंक ऑफ अमेरिका का एक अध्‍ययन भी कहता है क‍ि दुनिया में मुश्‍क‍िल तब आती है जब ऊर्जा की लागत ग्‍लोबल जीडीपी की 8 फीसदी हो जाए अभी ता यह छह फीसदी पर है तो इसल‍िए बाजारों को बहुत फर्क नहीं पड़ेगा

निकोलस को पता है कि 2014 में ओपेक देशों ने अपनी पुरानी परिपाटी छोड़कर कीमतों को एक निर्धारित ऊंचे स्‍तर बनाये रखने का फैसला किया था ताक‍ि बाजार बचा रहे. एसा इसलिए क्‍यों क‍ि तेल का इस्‍तेमाल अब घट रहा है. ऊर्जा के अन्‍य स्रोत बड़ी जरुरतें पूरी कर रहे हैं. ओपेक देशों के पास तेल के अलावा कुछ नहीं है जबकि गैर ओपेक देश बहुत आयामी अर्थव्‍यवस्‍थायें हैं.

ओपेक देशों पास दो तीन दशक का समय है इस बीच उन्‍हें अध‍िकतम कमाई कर अपनी अर्थव्‍यवस्‍थाओं के लिए नए विकल्‍प तलाशने होंगे क्‍यों कि तेल परिवहन ईंधन मात्र रह गया है और यहां भी इलेक्‍ट्र‍िक वाहनों के साथ माहौल बदलने वाला है.

 

अब यहां से हम डैनियल से मिलते हैं. उन्‍होंने तांबे का फ्यूचर्स इसलिए खरीदा कि दुनिया में इलेक्‍ट्र‍िक या बैटरी वाहनों के बिजली  की क्षमता बढ़ाई जा रही है. जहां तांबा मुख्‍य कच्‍चा माल है. नि‍कोलस की तरह डैनियल का दांव भी सटीक बैठा. तांबे की कीमतों 7 मार्च को बाजार में नई ऊंचाई नाप ली. 

डैन‍ियल दरसअल निकोलस से पूरी तरह इत्‍त‍िफाक कर रहे हैं. ओपेक तेल की महंगाई को बढ़ाये रखने पर मजबूर है क्‍यों यह जितनी तेज रहेगी. वैकल्पिक उर्जा पर निवेश उतना ही तेज बढेगा और डैन‍ियल  कमाई का भविष्‍य चमकता जाएगा.  

डैनियल को पता है बाकी तो यह ओपेक देशों की आखिरी यल़गार है.  तेल इकोनॉमी अपने अंतिम चरण में है. को‍लंबिया यून‍िवर्सिटी के सेंटर फॉर ग्‍लेाबल एनर्जी पॉलिसी की एक रिपोर्ट बताती है कि 1973 से 2019 के बीच विश्‍व के जीडीपी की तेल पर निर्भरता यानी ऑयल इंटेंस‍िटी 56 फीसदी कम हुई. ऑयल इंटेंस‍िटी यानी एक यूनिट जीडीपी उत्‍पादन लगने वाली तेल की मात्रा. यानी अगर 1973 में एक बैरल तेल से 1000 डॉलर का उत्पादन होता था तब उतना ही उत्‍पादन आधा बैरल से हो जाता है

इसकी बड़ी वजह है कि बिजली उत्‍पादन में अब तेल का इस्‍तेमाल बहुत कम हो चुका है. वहां गैस और कोयला है. परिवहन के लिए इसका इस्‍तेमाल अभी भी है लेक‍िन आटोमोबाइल इंजन की तकनीकों के वकिास से वाहनों का माईलेज बढ़ा है और तेल की खपत घटी है.

दुन‍िया की ऊर्जा खपत में तेल का हिस्‍सा 1970 में करीब 50 फीसदी था जो अब 28 फीसदी रह गया है. आईईए के अनुसार 2030 तक यह कम होकर 22 फीसदी रह जाएगा. इसी क्रम में वैकल्‍पिक उर्जा का हिस्‍सा 12 फीसदी से बढ़कर 2030 तक 19 और 2050 तक 37 फीसदी हो जाएगा.

दरअसल निकोलस और डैनियल अप्रैल 2020 कोविड के दौरान इसी तरह पहाड़ चढ़े थे. तब अमेरिका वाले तेल यानी डब्‍लूटीआई कीमतें नेगेटिव हो गई थीं, ब्रेंट भी टूटकर दस डॉलर पर आ गया.

निकोलस को तेल इकोनॉमी डूबती लग रही थी और डैनियल को लग रहा था कि अब कौन खरीदेगा इलेक्‍ट्र‍िक वेहक‍िल जब तेल मुफ्त मिलेगा

निकोलस नसीम तालेब का सूत्र है क‍ि यदि कोई बात आपको तर्कसंगत नहीं यानी  बेसिर पैर लगती है मगर वह लंबे समय से जारी है तो बहुम मुमक‍िन है क‍ि तर्कसंगत यानी रेशनलटी को लेकर आपकी परिभाषा ही गलत हो

उधर यूक्रेन पर बम बरस रहे हैं लेक‍िन अब तेल बाजार वाले मुतमइन हैं क‍ि अगले एक साल तक तेल 80 से 100 डॉलर के बीच झूलता रहेगा. दुनिया को लंबी ऊर्जा महंगाई ल‍िए तैयार रहना चाहिए क्‍यों क‍ि तेल के साथ जो गैस व कोयला भी महंगे हो रहे हैं

भारतीय अपनी पीठ और ज्‍यादा मजबूत रखें क्‍यों क‍ि यहां मुसीबत ज्‍यादा पेचीदा है. मुद्रा कमजोर हैं. डॉलर मूल्‍य में भारत के लिए ब्रेंट करीब 70 फीसदी महंगा हो गया है..   

Sunday, March 20, 2022

एसे बदलता है इतिहास


क्‍या दुनिया का ऊर्जा बाजार इजरायल और सीरिया व इज‍िप्‍ट के बीच यॉम किपुर युद्ध वाले प्रस्‍थान बिंदु पर आ गया है  ?

युक्रेन पर रुस का हमला और दुनिया के तेल गैस बाजारों में अफरा तफरी हमें 1970 वाले मुकाम पर ले आई है जहां से ऊर्जा बाजार को नई दिशा चुननी पड़ी थी

वह यॉम किपुर का ही दिन था. यहूद‍ियों का सबसे पवित्र सबसे मुबारक दिन. कहते हैं इसी दिन मोजे़ज पर ज्ञान उतरा था यहूदियों के लिए यॉम किपुर को क्षमा याचना और प्रायश्‍च‍ित का दिन है  हैं. 1973 का  यॉम क‍िपुर अक्‍टूबर में आया था.

इज़रायल की खुफ‍िया एजेंसियों को अनुमान तो था कि 1967 के छह दिन वाले युद्ध बदला लेने के लिए इजिप्‍ट और सीरिया कुछ तो करने वाले हैं .. 1967  में जब  इज़रायल की वायुसेना ने 5 जून की सुबह अचानक सुबह इजिप्‍ट और सीरिया के हवाई अड्डों पर हमला इन देशों की 90 फीसदी वायु सेना खत्‍म कर दी थी और  गाज़ा पट्टी व  सि‍नाई प्रायद्वीप पर कब्‍जा कर ल‍िया.

अनवर सादात और असद के नेृतत्‍व में इजिप्‍ट और सीर‍िया ने  6 अक्‍टूबर की दोपहर 1973 इजरायल पर बहुत बड़ा हमला बोला. गोल्‍डा मायर के इज़़रायल को तगड़ी चोट लगी. अमेरिकी राष्‍ट्रपति रिचर्ड निक्‍सन इज़रायल की मदद के लिए आगे आए. तो ओपेक देशों ने अमेरिका को तेल निर्यात रोक दिया और उत्‍पादन घटा दिया. तेल की कीमत खौलने लगी. अमेर‍िका में ऊर्जा संकट शुरु हो गया.

ओपेक का ऑयल इंबार्गो  अमेरिका की महंगाई के बीच आया थी. 1968 से 1973 के बीच ब्रेटन वुड्स व्‍यवस्‍था खत्‍म हो रही थी. जिसके तहत सोने के बदले डॉलर का एक मूल्‍य तय किया गया था  जो 35 डॉलर प्रति औंस था. राष्‍ट्रपति निक्‍सन ने अगस्‍त 1973 में डॉलर और सोने का रिश्‍ता खत्‍म कर दिया. डॉलर के अवमूल्‍यन से अमेरिकी निर्यात को फायदा हुआ लेक‍िन तेल निर्यातक देशों को बड़ा नुकसान हुआ जिनका निर्यात की कमाई डॉलर में थी. इस वजह से भी  अमेर‍िका को तेल निर्यातकों का गुस्‍सा झेलना पड़ा.

ब्रेटन वुड्स गया तो अन्‍य देशों ने अपने मुद्रा विनिमय न‍ियम तय करने शुरु कर दिये. अमेरिका को तेल निर्यात पर पाबंदी मार्च 1974 में खत्‍म हो गई. सितंबर 1978 में कैम्प डेविड समझौते के साथ मध्‍य पूर्व के देशों और इज़रायल का झगड़ा भी निबट गया लेकिन अमेरिका पर ओपेक की छह  माह तेल निर्यात पाबंदी के साथ पूरी दुनिया में  ऊर्जा बाजार में बड़े बदलाव की बुनियाद रख दी गई .

यहां से  यूरोप में नेचुरल गैस और विंड एनर्जी, सौर ऊर्जा और बाद में दशकों में अमेरिका में शेल ऑयल का उत्‍पादन परवान चढ़ा.

अलबत्‍ता इन बदलावों से पहले युक्रेन में फटती मिसाइलों के बीच ऊर्जा बाजार के मौजूदा माहौल को करीब देखना जरुरी है ताकि इसका यॉम किपुर संदर्भ  समझा जा सके

बहुत कुछ बदल गया तब से

2006 और 2009 में रुस ने यूक्रेन के जरिये यूरोप जाने वाली गैस की आपूर्ति में कटौती की थी. यह गैस का रणनीतिक प्रयोग था. कई देशों  में औद्योगिक उत्‍पादन पर गहरा असर पडा. इसके बाद 2010 ने नाटो ने ऊर्जा सुरक्षा पर ब्रसेल्स में एक नया डिवीजन और ल‍िथुआन‍िया में विशेष केंद्र बनाया.

बीसवीं सदी के अंत से दुनिया में पर्यावरण की जागरुकता के साथ बिजली उत्‍पादन  के लिए प्रदूषण वाले कोयले की जगह नेचुरल गैस का प्रयोग होने लगा.  जिसकी मदद से कार्बन उत्‍सर्जन में कमी आई. यूरोस्‍टैट के आंकड़ों के अब केवल 20 फीसदी ऊर्जा कोयले से आती है 80 फीसदी बिजली उत्‍पादन में क्षमता विंड एनर्जी सहित अक्षय ऊर्जा स्रोतों और  नेचुरल गैस व ऑयल बराबर के हिस्‍सेदार हैं.  यूरोप 2025 तक अपने अध‍िकांश कोयला बिजली संयंत्र खत्‍म कर देगा.

इस बदलाव से नेचुरल गैस बीते एक दशक में नेचुरल गैस और एलएनजी की मांग करीब 6 फीसदी की सालाना दर से बढ़ी  जो प्रमुख तेल कंपनी शेल के अनुसान 2040 तक दोगुनी हो जाएगी.

यूरोप को नॉर्थ सी गैसे मिलती थी जिसका उत्‍पादन कम होने लगा था.  यूरोप को बिजली के साथ सर्दी में घर गर्म रखने के लिए भी गैस चाहिए. मांग बढ़ी तो  रुस की ताकत गैस के बाजार में बढ़ती चली गई जो करीब 47.8 अरब क्‍यूबिक मीटर गैस उत्‍पादन के दुनिया का सबसे बड़ा गैस उत्‍पादक है और यूरोप अपनी 40 फीसदी जरुरत के लिए  रुस की गैस का मोहताज़ है. जो चार पाइपलाइनों के जरिये यूरोप आती है जिसमें एक नार्ड स्‍ट्रीम का दूसरा चरण जिस पर अब प्रति‍बंध लग गया है. यह लाइन तैयार है बस शुरु होने वाली थी.  यूरोप के लिए  नार्वे दूसरा बड़ा स्रोत है. अल्‍जीरिया तीसरा.

रुस के बाद  गैस का दूसरा सबसे बड़ा उत्‍पादक देश ईरान है और फिर कतर और अमेरिका हैं. ईरान से टर्की होते हुए एक गैस पाइप लाइन यूरोप तक आनी थी जिसे पर्श‍ियन पाइप लाइन कहा गया था. ईरान पर प्रतिबंधों के बाद यह योजना अधर में है.

रुस की ताकत का तोड़

कच्‍चे तेल के उत्‍पादन में जो ताकत अरब देशों के पास संयुक्‍त तौर पर  है वह गैस में वह अकेले रुस के पास  है.  रुस ने बदलती भू राजनी‍त‍ि में  नेचुरल गैस की बड़ी पाइपलानों से टर्की और चीन को जोड़ा है. टर्कस्‍ट्रीम पाइप लाइन  यूक्रेन को अलग करते हुए ब्‍लैक सी के रास्‍ते टर्की जाती  है जिसका उद्घाटन जनवरी 2020 में हुआ. पॉवर ऑफ साइबेरिया पाइप लाइन चीन को गैस पहुंचाती है. यह यूरोप वाले गैस नेटवर्क का हिस्‍सा नहीं यानी रुस रणनीतिक तौर पर यूरोप में गैस महंगी करती है चीन में नहीं. पॉवर ऑफ साइबेरिया पाइप लाइन का दूसरा चरण शुरु होने वाला है. कजाकस्‍तान के जरिये एक और लाइन डालने की तैयारी भी है.

2019 के बाद यूरोप में विंडी एनर्जी का उत्‍पादन घटा, कोविड के कारण गैस व तेल की आपूर्ति बाधित हुई और 2019 से गैस कीमत बढ़ने लगी. कोविड के बाद 2021 में गैस की कीमत 500 फीसदी तक बढ़ गई. बीते दो बरसों के दौरान ओपेक ने अंतरराष्‍ट्रीय दबाव के बावजूद  तेल उत्‍पादन में बढ़ोत्‍तरी की नियंत्र‍ित रखा है और कीमतों कम नहीं होने द‍िया.

अब रुस यूक्रेन जंग के बाद यूरोप में बिजली और परिवहन महंगी हो रहा है वहीं कोयला संयंत्रों को बंद करने योजना पर फिर से विचार हो रहा है यानी पर्यावरण के लिए खतरा बढ़ जाएगा. दूसरी तरफ पूरी दुनिया में तेल की प्रमुख खपत वाले देशों को पूरी अर्थव्‍यवस्‍था ही टूट रही है. तेल और गैस एक साथ महंगे हाते हैं तो एलएनजी जो टैंकर दुनिया भर में जाती है उसकी कीमतों में भी आग लगी है.

क्‍या बदल गया 1970 के बाद

वापस लौटते हैं यौम किपुर यानी 1970 के तेल इंबार्गो की तरफ, जिसके बाद अमेरिका को ईरान संकट से कारण भी तेल की कमी झेलनी पड़ी थी.  उस संकट ने दुनिया को एक तरह से बदल दिया

पहला- अमेरिका में ऊर्जा नीति बदली. तेल गैस की खोज में निवेश बढ़ा. जो शेल तक आया. तेल के इस्‍तेमाल से अमेरिका में बिजली का उत्‍पादन लगभग खत्‍म हो गया. अमेरिका 2018 में दुनिया का सबसे बड़ा तेल उत्‍पादन और  2019 तेल आयात में  आत्‍मनिर्भर  हो गया. निर्यात भी खोल दिया.

दूसरा- रणनी‍त‍िक तेल रिजर्व बनने शुरु हुए.

तीसरा- आटो कंपनियों के लिए नियम बदले.तेल निगलने वाली कारों की जगह छोटी और ज्‍यादा माइलनेज की कारें बननी शुरु हुई. इस क्रांति पूरी दुनिया में आटो उद्योग को पंख लग गए

चौथा. अक्षय उर्जा यानी विंड सोलर ऊर्जा और एथनॉल के आदि के उत्‍पादन शुरु हुए. इसके बाद यूरोप ने तेजी से अपनी बिजली उत्‍पादन को अक्षय ऊर्जा पर केंद्रित किया

अब आगे क्‍या

रुस यूक्रेन संकट बाद 2022 1970 की तुलना में 2022 और कठिन है क्‍यों कि तेल और गैस की बादशाहत सिरफिरे और जिद्ी नेताओं के हाथ है जबकि दुनिया सस्‍ती ऊर्जा के लिए बेचैन है जिसमें नेचुरल गैस उसकी पूरी रणनीति का केंद्र है. अब रुस और अरब मुल्‍क मिलकर देशों की अर्थव्‍यवस्‍था चौपट कर रहे  हैं.

यहां तीन प्रमुख रास्‍ते निकलते दिखते हैं

पहला- दुनिया इलेक्‍ट्र‍िक वाहनों की तरफ जा रही है ताकि पेट्रोल निर्भरता और प्रदूषण रोका जा सके. लेकिन बिजली के लिए नेचुरल गैस पर निर्भरता बढ़ती जा रही है जहां ओपेक जैसा ही हाल है. अब अगले एक दशक में दुनिया को कोयले से पर्यावरण के तौर पर सुरक्ष‍ित बिजली बनाने पर निवेश करना होगा क्‍यों कि वही एक ऊर्जा स्रोत है जो लगभग हर महाद्वीप के पास है. वर्ल्‍ड कोल एसोस‍िएशन के अध्‍यन मानते हैं कि कोयल से ग्रीन एनर्जी पूरी तरह मुमक‍िन है और इसकी तकनीकें तैयार हैं.

दूसरा- दुनिया के देशों को नेचुरल गैस और तेल के नए स्रोत तलाशने होंगे. साइंस डायरेक्‍ट में प्रकाशित अध्‍ययन मानते हैं कि दुनिया में अभी आधे रिजर्व भी खोजे गए हैं. इनमें बड़ा हिस्‍सा समुद्रों में है. जिसकी तलाश करनी होगी. 2015 में जीई की एक रिपोर्ट ने बताया था भारत में करीब 18 ट्र‍िलियन क्‍यूबिक फिट का रिजर्व पहचाना जा चुका है मगर उत्‍पादन शुरु नहीं हुआ है.

तीसरा- न्‍यूनतम प्रदूषण के साथ हाइड्रोजन एनर्जी भविष्‍य का‍ विकल्‍प है. अभी यह महंगी है और तकनीकें बन रही हैं लेकिन 1970 में शेल गैस या विंड एनर्जी के बारे में भी इसी तरह के ख्‍याल थे

दुनिया का पहले  ऊर्जा मानच‍ित्र को 1970 के अरब इजरायल युद्ध ने बदला था. 2010 तक दुनिया पूरी तरह बदल चुकी थी अब 2050 तक हम नए नई ऊर्जा अर्थव्‍यवस्‍था में होंगे जो शुरुआत में महंगी हो सकती है लेकिन बाद में शायद सुरक्ष‍ित और स्‍थायी हो सकेगी. 


Saturday, October 9, 2021

सबके बिन सब अधूरे

 


अमेरिका और यूरोप में उत्सवी सामान (थैंक्सगिविंग-क्रिसमस) की कमी पड़ने वाली है. चीन में कोयला कम है, बत्ती गुल है, कारखाने बंद हैं. यूरोप में गैस की कीमतें उबल रही हैं. ब्रिटेन में कामगारों की किल्लत है. रूस में मीट नहीं मिल रहा. यूरोप की कार इलेक्ट्रॉनिक्स कंपनियों के पास पुर्जे नहीं हैं.

दुनिया में तो मंदी है, मांग का कोई विस्फोट नहीं हुआ है फिर यह क्या माजरा है?

कहते हैं, अगर अमेरिकी राज्य न्यू मेक्सिको में कोई तितली अपने पंख फड़फड़ाए तो चीन में तूफान सकता है. यानी दुनिया इतनी पेचीदा है कि छोटी-सी घटना से बड़ी उथल-पुथल (बटरफ्लाइ इफेक्ट या केऑस थ्योरी) हो सकती है.

हवा पानी के बाद अगर कोई चीज हमें चला रही है तो वह सप्लाइ चेन है जो करीबी दुकान से लेकर भीतरी चीन, या दक्षिण अमेरिका के सुदूर इलाकों तक फैली हो सकती है. सामान, सेवाओं, श्रमिकों, ईंधन, खनिज आदि की ग्लोबल आपूर्ति का यह पर्तदार और जटिल तंत्र इस कदर बहुदेशीय और बहुआयामी है कि वर्ल्ड इज फ्लैट वाले थॉमस फ्रीडमैन कहते रहे हैं कि अब दुनिया में युद्ध नहीं होंगे क्योंकि एक ही सप्लाइ चेन में शामिल दो देश एक-दूसरे से जंग नहीं कर सकते. इसे डेल (कंप्यूटर) थ्योरी ऑफ कन्फलिक्ट प्रिवेंशन कहते हैं.

दुनिया में लगभग सभी जरूरी चीजों की उत्पादन क्षमताएं पर्याप्त हैं फिर भी कारोबारी धमनियों में उतनी सप्लाइ नहीं है लंबी बाजार बंदी के बाद जितनी जरूरत थी.

विश्व की पांच बड़ी अर्थव्यवस्थाएंअमेरिका, चीन, जर्मनी, यूके, रूस और ऑस्ट्रेलिया लड़खड़ा गई हैं. यही पांच देश दुनिया की सप्लाइ चेन में बड़े ग्राहक भी हैं और आपूर्तिकर्ता भी. इनके संकट पूरी तरह न्यू मेक्सिको की तितली जैसे हैं यानी स्थानीय. लेकिन सामूहिक असर पूरी दुनिया की मुसीबत बन गया है. किल्लत अब लाखों सामान की है लेकिन वह चार बड़ी आपूर्तियां टूटने का नतीजा है, जो ग्लोबल सप्लाइ चेन की बुनियाद हैं.

ऊर्जा या ईंधन में चौतरफा आग लगी है. कोविड से पहले 2020 और ’21 की भीषण सर्दियों में यूरोप ने अपने ऊर्जा भंडारों का जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल कर लिया. उत्पादन बढ़ता इससे पहले कोविड गया. एक साल में यूरोप में नेचुरल गैस 300 फीसद महंगी (स्पॉट प्राइस) हो गई. बिजली करीब 250 फीसद महंगी हुई हालांकि उपभोक्ता बिल नहीं बढ़े. भंडार क्षमताएं बीते बरस से 19 फीसद कम हैं.

चीन दुनिया में सबसे ज्यादा कोयला इस्तेमाल करता है. सरकार ने ऑस्ट्रेलिया से आयात रोक दिया था. चीन में कोयला महंगा है लेकिन सरकार बिजली सस्ती रखती है. नुक्सान बढ़ने से कोयले का खनन कम हुआ. बिजली की कटौती से कारखाने रुके तो अमेरिका-यूरोप भारत में जरूरी आपूर्ति टूटने लगी.

इधर, पेट्रोलियम निर्यातक देशों का संगठन, ओपेक कच्चे तेल का उत्पादन बढ़ाने के लिए इंतजार करना चाहता है इसलिए पूरा ऊर्जा बाजार ही महंगाई से तपने लगा है.

महामारी वाली मंदी से उबर रहे विश्व को यह अंदाज नहीं था कि अब तक की सबसे जटिल शिपिंग किल्लत उनका इंतजार कर रही है. बीते एक साल में कई बंदरगाहों पर जहाज फंस गए. इस बीच कंटेनर बनाने वाली कंपनियों (तीनों चीन की) ने उत्पादन घटा दिया. अब मांग है तो कंटेनर और जहाज नहीं. नतीजतन, किराए चार साल की ऊंचाई पर हैं. यह संकट दूर होते एक साल बीत जाएगा. लेकिन तब अमेरिका में क्रिसमस गिफ्ट, रूस में खाने का सामान, ऑस्ट्रेलिया को स्टील की कमी रहेगी. भारतीय निर्यातक महंगे भाड़े से सांसत में हैं.

मध्य और पूर्वी यूरोप के मुल्कों में कामगारों की कमी हो गई है. अमेरिका और यूरोप में बेरोजगारी सहायता स्कीमें बंद होने वाली हैं. कई जगह लोग वर्क फ्रॉम होम से वापस नहीं आना चाहते. कमी है तो मजदूरी महंगी हो रही है जो कंपनियों की लागत बढ़ा रही है. ब्रिटेन में पेट्रोल, खाद्य और दूसरी जरूरी सेवाओं के लिए कामगारों की कमी हो गई है. ब्रेग्जिट के बाद प्रवासियों को आने से रोकना अब महंगा पड़ रहा है.

कहते हैं कि अगर ट्रंप की अगुआई में चीन-अमेरिका व्यापार युद्ध के दौरान सेमीकंडक्टर या चिप ग्राहकों ने दोगुनी खरीद के ऑर्डर दिए होते तो आज यह नौबत नहीं आती. चिप नया क्रूड आयल है. कोविड के कारण कारों का उत्पादन प्रभावित हुआ तो चीन ताइवान की कंपनियों ने स्मार्ट फोन, कंप्यूटर वाले चिप का उत्पादन बढ़ा दिया. ऑटोमोबाइल की मांग लौटी तो उत्पादन क्रम में फिर बदलाव हुआ. अब सभी के लिए चिप की किल्लत है.

ईंधन, परिवहन, चिप और श्रमिक के बिना आधुनिक मैन्युफैक्चरिंग मुश्किल है. इनकी कमी स्टैगफ्लेशन को न्योता दे रही है. यानी महंगाई और आर्थिक सुस्ती एक साथ. दुनिया के देशों को सबसे पहले सप्लाइ चेन यानी आपूर्ति की धमनियों को दुरुस्त करना होगा. सस्ता कर्ज मंदी से उबरने का शर्तिया इलाज रहा है लेकिन महंगाई के सामने यह दवा बेकार है. कर्ज महंगे होने लगे हैं. 

नेपोलियन बज़ा फरमाते थे: नौसिखुए कमांडर जंग में टैक्टिक्स (रणनीति) की बात करते हैं जबकि पेशेवर लड़ाके लॉजिस्टिक्स (साधनों) की. सनद रहे कि जंग अब महामारी और मंदी के साथ महंगाई से भी है.