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Friday, May 27, 2022

सबसे सनसनीखेज मोड़

 


 

नाइट श्‍यामलन की मास्‍टर पीस फ‍िल्‍म सिक्‍थ सेंस (1999) एक बच्‍चे की कहानी है जिसे मरे हुए लोगों के प्रेत दिखते हैं. मशहूर अभिनेता ब्रूस विलिस इसमें मनोच‍िक‍ित्‍सक बने हैं जो इस बच्‍चे का इलाज करता है दर्शकों को अंत में पता चलता है कि मनोवैज्ञान‍िक डॉक्‍टर खुद में एक प्रेत है जो मर चुका है और उसे खुद इसका पता नहीं है. फिल्‍ के एंटी क्‍लाइमेक्‍स ने उस वक्‍त सनसनी फैला दी थी

सुप्रीम कोर्ट के ताजे फैसले से जीएसटी की कहानी में सनसनीखेज मोड आ गया है जो जीएसटी काउंसिल जो केंद्र राज्‍य संबंधों में ताकत की नई पहचान थी, सुप्रीम कोर्ट ने उसके अधिकारों सीमि‍त करते हुए राज्‍यों को नई ताकत दे दी है. अब एक तरफ राज्‍यों पर पेट्रोल डीजल पर वैट घटाकर महंगाई कम करने दबाव है दूसरी तरफ राज्‍य सरकारें अदालत से मिली नई ताकत के दम पर अपनी तरह से टैक्‍स लगाने की जुगत में हैं क्‍यों कि जून के बाद राज्‍य कों केंद्र से मिलने वाला जीएसटी हर्जाना बंद हो जाएगा

2017 में जब भारत के तमाम राज्‍य टैक्‍स लगाने के अधिकारों को छोड़कर जीएसटी पर सहमत हो रहे थे, तब यह सवाल खुलकर बहस में नहीं आया अध‍िकांश राज्‍य, तो औद्योग‍िक  उत्‍पादों  और सेवाओं उपभोक्‍ता हैं, उत्‍पादक राज्‍यों की संख्‍या  सीमित हैं. तो इनके बीच एकजुटता तक कब तक चलेगी. महाराष्‍ट्र और  बिहार इस टैक्‍स प्रणाली से  अपनी अर्थव्‍यवस्‍थाओं की जरुरतों के साथ कब तक न्‍याय पाएंगे?

अलबत्‍ता  जीएसटी की शुरुआत के वक्‍त यह तय हो गया था कि जब तक केंद्र सरकार राज्‍यों को जीएसटी होने वाले नुकसान की भरपाई करती रहेगी. , यह एकजुटता बनी रहेगी. नुकसान की भरपाई की स्‍कीम इस साल जून से बंद हो जाएगी. इसलिए दरारें उभरना तय है 

 

कोविड वाली मंदी से जीएसटी की एकजुटता को पहला झटका लगा था. केंद्र सरकार राज्‍यों को हर्जाने का भुगतान नहीं कर पाई. बड़ी रार मची. अंतत: केंद्र ने राज्‍यों के कर्ज लेने की सीमा बढ़ाई.  मतलब यह कि जो संसाधन राजस्‍व के तौर पर मिलने थे वह कर्ज बनकर मिले. इस कर्ज ने राज्‍यों की हालत और खराब कर दी.

इसलिए जब राज्‍यों को पेट्रोल डीजल सस्‍ता करने की राय दी जा रही तब  वित्‍त मंत्रालय व जीएसटी काउंस‍िल इस उधेड़बुन में थे कि जीएसटी की क्षत‍िपूर्ति‍ बंद करने पर राज्‍यों को सहमत कैसे किया जाएगा? कमजोर अर्थव्‍यवस्‍था वाले राज्‍यों का क्‍या होगा?

बकौल वित्‍त आयोग जीएसटी से केंद्र व राज्‍य को करीब 4 लाख करोड़ का  सालाना नुकसान हो रहा है. जीएसटी में भी प्रभावी टैक्‍स दर 11.4 फीसदी है जिसे बढ़ाकर 14 फीसदी किया जाना है, जो रेवेन्‍यू न्‍यूट्रल रेट है यानी इस पर सरकारों को नुकसान नहीं होगा.

जीएसटी काउंसिल 143 जरुरी उत्‍पादों टैक्‍स दर 18 फीसदी से 28 फीसदी करने पर विचार कर रही है ताकि राजस्‍व बढ़ाया जा सके.

 

इस हकीकत के बीच यह सवाल दिलचस्‍प हो गया है कि क्‍या केंद्रीय एक्‍साइज ड्यूटी में कमी के बाद राज्‍य सरकारें पेट्रोल डीजल पर टैक्‍स घटा पाएंगी? कुछ तथ्‍य पेशेनजर हैं

- 2018 से 2022 के बीच पेट्रो उत्‍पादों से केंद्र सरकार का राजस्‍व करीब 50 फीसदी बढ़ा लेक‍िन राज्‍यों के राजस्‍व में केवल 35 फीसदी की बढ़त हुई. यानी केंद्र की कमाई ज्‍यादा थी

-    2016 से 2022 के बीच केंद्र का कुल टैक्‍स संग्रह करीब 100 फीसदी बढ़ा लेक‍िन राज्‍यों इस संग्रह में हिस्‍सा केवल 66 फीसदी बढ़ा.  केंद्र के राजस्‍व सेस और सरचार्ज का हिस्सा 2012 में 10.4 फीसद से बढ़कर 2021 में 19.9 फीसद हो गया है. यह राजस्‍व राज्‍यों के साथ बांटा नहीं जाता है. नतीजतन राज्‍यों ने जीएसटी के दायर से से बाहर रखेग गए  उत्‍पाद व सेवाओं मसलन पेट्रो उत्‍पाद , वाहन, भूमि पंजीकरण आदि पर बार बार टैक्‍स बढ़ाया है    

-    केंद्रीय करों में राज्यों की हिस्सेदारी के लिए वित्‍त आयेाग के नए फार्मूले से केंद्रीय करों में आठ राज्यों (आंध्रअसमकर्नाटककेरलतमिलनाडुओडिशातेलंगाना और उत्तर प्रदेश) का हिस्सा 24 से लेकर 118 (कर्नाटक) फीसद तक घट सकता है (इंडिया रेटिंग्‍स रिपोर्ट)   

-    केंद्र से ज्‍यादा अनुदान के लिए राज्‍यों को शि‍क्षाबिजली और खेती में बेहतर प्रदर्शन करना होगा.  इसके लिए बजटों से खर्च बढ़ानाप पडेगा.

-    कोविड की मंदी के बाद राज्यों का कुल कर्ज जीडीपी के अनुपात में 31 फीसदी की र‍िकार्ड ऊंचाई पर है. पंजाब, बंगाल, आंध्र , केरल, राजस्‍थान जैसे राज्‍यों का कर्ज इन राज्‍यों जीडीपी (जीएसडीपी)  के अनुपात में 38 से 53 फीसदी तक है.

 भारत में केंद्र और राज्‍यों की अर्थव्‍यवस्‍थाओं के ताजा हालात तो बता रहे हैं  

-    जीएसटी की हर्जाना बंद होने से जीएसटी दरें बढ़ेंगी. केंद्र के बाद राज्‍यों ने पेट्रोल डीजल सस्‍ता किया तो जीएसटी की दरों में बेतहाशा बढ़ोत्‍तरी का खतरा है. जो खपत को कम करेगा

-    केंद्र और राज्‍यों का सकल कर्ज जीडीपी के अनुपात 100 फीसदी हो चुका है. ब्‍याज दर बढ़ रही है, अब राज्‍यों 8 फीसदी पर भी कर्ज मिलना मुश्‍क‍िल है

 

भारत का संघवाद बड़ी कश्‍मकश से बना था.  इतिहासकार ग्रेनविल ऑस्‍ट‍िन ल‍िखते हैं क‍ि यह बंटवारे के डर का असर था कि 3 जून 1947 को भारत के बंटवारे लिए माउंटबेटन प्लान की घोषणा के तीन दिन के भीतर ही भारतीय संविधान सभा की उप समिति ने बेहद ‌शक्तिशाली अधिकारों से लैस केंद्र वाली संवैधानिक व्यवस्था की सिफारिश कर दी.

1946 से 1950 के बीच संविधान सभा में, केंद्र बनाम राज्‍य के अध‍िकारों पर लंबी बहस चली. (बलवीर अरोराग्रेनविल ऑस्टिन और बी.आरनंदा की किताबें) यह डा. आंबेडकर थे जिन्‍होंने ताकतवर केंद्र के प्रति संविधान सभा के आग्रह को संतुलित करते हुए ऐसे ढांचे पर सहमति बनाई जो संकट के समय केंद्र को ताकत देता था लेकिन आम तौर पर संघीय (राज्यों को संतुलित अधिकारसिद्धांत पर काम करता था.

संविधान लागू होने के बाद बनने वाली पहली संस्था वित्त आयोग (1951) थी जो आर्थि‍क असमानता के बीच केंद्र व राज्‍य के बीच टैक्‍स व संसाधनों के न्‍यायसंगत बंटवारा करती है  

2017 में भारत के आर्थ‍िक संघवाद के नए अवतार में राज्‍यों ने टैक्‍स लगाने के अध‍िकार जीएसटी काउंसिल को सौंप दिये थे. महंगाई महामारी और मंदी  इस सहकारी संघवाद पर पर भारी पड़ रही थी इस बीच  सुप्रीम कोर्ट जीएसटी की व्‍यवस्‍था में राज्‍यों को नई ताकत दे  दी है. तो क्‍या श्‍यामलन की फिल्‍म स‍िक्‍स्‍थ सेंस की तर्ज पर जीएसटी के मंच पर  केंद्र राज्‍य का रिश्‍तों का एंटी क्‍लाइमेक्‍स आने वाला है?

 

Sunday, February 13, 2022

क्‍या सुलग रहा है बजट के भीतर

 


ढोल बजाने वाले तैयार खड़े थे, एक और महान बजट का मंच सज चुका था. उम्‍मीदों की सवारी करने का मौका भी था और चुनावों के वक्‍त दिलफेंक होने का दस्‍तूर भी .. लेक‍िन बजट सब कुछ छोड़कर बैरागी हो गया. विरक्‍त बजट ही तो था यह .. बस काम चालू आहे वाला बजट ..

बजट बड़े मौके होते हैं कुछ कर दिखाने का  लेक‍िन इस बार माज़रा कुछ और ही था.  

बेखुदी बेसबब नहीं गालिब

कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है

 

हम बताते हैं क‍ि आखिर बीते एक दो बरस में भारतीय बजट के साथ हुआ क्‍या है जिसके कारण सब बुझा बुझा सा है.

बात  बीते साल  की यानी अक्‍टूबर 2021 की है. भारत में बजट की तैयार‍ियां शुरु हो चुकी थीं. आम लोगों में कोविड के नए संस्‍करण को लेकर कयास जारी थे इसी दौरान आईएमएफ की एक रिपोर्ट ने भारत पर नजर रखने वालों के होश उड़ा दिये. हालांक‍ि दिल्‍ली के नॉर्थ ब्‍लॉक यानी वित्‍त मंत्रालय में अफसरों को यह सच पता था लेक‍िन उन्‍होंने बात अंदर ही रखी.

भारत ने एक खतरनाक इतिहास बना द‍िया था. कोविड की मेहरबानी और बजट प्रबंधन की कारस्‍तानी कि भारत एक बड़े ही नामुराद क्‍लब का हिस्‍सा बन गया था. भारत में कुल सार्वजनिक कर्ज यानी पब्‍ल‍िक डेट (केंद्र व सरकारों और सरकारी कंपन‍ियों का कर्ज) जीडीपी के बराबर पहुंच रहा था यानी जीडीपी के अनुपात में 100 फीसदी !

ठीक पढ़ रहे हैं भारत का कुल सार्वजन‍िक कर्ज भारत के कुल आर्थिक उत्‍पादन के मूल्‍य के बराबर पहुंच रहा है. यह खतरे का वह आख‍िरी मुकाम है जहां सारे सायरन एक साथ बज उठते हैं. ..

बजे भी क्‍यों न , दुनिया करीब 20 मुल्‍क इस अशुभ सूची का हिस्‍सा हैं. जिनका कुल सार्वजनिक कर्ज उनके जीडीपी का शत प्रत‍ि‍शत या इससे ज्‍यादा है. इनमें वेनेजुएला, इटली, पुर्तगाल, ग्रीस जैसी बीमार अर्थव्‍यवस्‍थायें या मोजाम्‍बि‍क, भूटान, सूडान जैसे छोटे मुल्‍क हैं. इसमें अमेरिका और जापान भी हैं लेकिन जापान तो पहले गहरी मंदी में है और अमेरिका के कर्ज मामला जरा पेचीदा है क्‍यों क‍ि उसकी मुद्रा दुनिया की केंद्रीय करेंसी है और निवेश का माध्‍यम है.

15 अक्‍टूबर को आईएमएफ ने अपनी स्‍टाफ रिपोर्ट (देशों की समीक्षा रिपोर्ट) में ल‍िखा क‍ि भारत का कुल पब्‍ल‍िक डेट जीडीपी के बराबर पहुंच रहा है. यह खतरनाक स्‍तर है. यह अभी ऊंचे स्‍तर पर ही रहेगा: विश्‍व बैंक और आईएमएफ के पैमानों पर किसी देश का पब्‍ल‍िक डेट का अध‍िकतम स्‍तर जीडीपी का 60 फीसदी होना चाहिए. इससे ऊपर जाने के अपार खतरे हैं. 

इस आईएमएफ को इस हालत की सूचना यकीनन सरकार से ही मिली होगी क्‍यों कि अनुबंधों के तहत सरकारें अंतरराष्‍ट्रीय वित्‍तीय संस्‍थाओं के साथ अपनी सूचनायें साझा करती हैं अलबत्‍ता देश को इसकी सूचना कुछ अनमने ढंग से ताजा आर्थ‍िक समीक्षा ने दी जो सरकारी टकसाल का कीमती दस्‍तावेज  है और बजट के ल‍िए जमीन तैयार करता है. 

इस दस्‍तावेज ने बहुत ही चौंकाने वाला आंकड़ा बताया. भारत  के सार्वजन‍िक कर्ज और जीडीपी अनुपात 2016 के बाद से बिगड़ना शुरु हुआ था जब जीडीपी टूटने और कर्ज बढ़ने का सिलस‍ि‍ला शुरु हुआ. 2016 में यह जीडीपी के अनुपात में 45 फीसदी था जो 2020-21 में 60 फीसदी पर पहुंच गया.

सार्वजनिक कर्ज का दूसरा हिस्‍सा राज्‍यों सरकारों के खाते हैं. आर्थि‍क समीक्षा के अनुसार 2016 में यह कर्ज जीडीपी के अनुपात में 25 फीसदी पर था जो अब 31 फीसदी है. यानी कि केंद्र और राज्‍यों का कर्ज मिला कर जीडीपी के अनुपात में 90 फीसदी हो चुका है. भारत में सरकारी कंपन‍ियां भी बाजार से खूब कर्ज लेती हैं, उसे मिलाने पर पब्‍ल‍िक डेट जीडीपी के बराबर हो चुका है.

भारत में सरकारें  कर्ज छिपाने और घाटा कम दिखने के लिए कर्ज छ‍िपा लेती हैं. बजट से बाहर कर्ज लिये जाते हैं जिन्‍हें ऑफ बजट बारोइंग कहा जाता है. जैसे क‍ि 2020-21 में केंद्र सरकार ने भारतीय खाद्य निगम को खाद्य सब्‍स‍िडी के भुगतान का आधा भुगतान लघु बचत न‍िध‍ि  से कर्ज के जर‍िये किया. यह सरकार के कुल कर्ज में शामिल नहीं था.

आईएमएफ के खतरे वाले सायरन को  इस बजट से उठने वाले स्‍वरों ने और तेज किया है. सरकार अच्‍छे राजस्‍व के बावजूद वित्‍त वर्ष 2022-23 में उतना ही कर्ज (12 लाख करोड़) लेगी जो कोविड की पहली लहर और लंबे लॉकडाउन के दौरान ल‍िए गए कर्ज के बराबर है. अब नया कर्ज महंगी ब्‍याज दरों पर होगा क्‍यों कि ब्‍याज दरें बढ़ने का दौर शुरु होने वाला है.

अच्‍छे राजस्‍व के बावजूद  इतना कर्ज क्‍यों ? वजह जानन के लिए  सार्वजनिक कर्ज के आंकड़ों के भीतर एक डुबकी और मारना जरुरी है जहां से हमें कुछ और आवश्‍यक सूचनायें मिलेंगी. आर्थ‍िक समीक्षा बताती है कि केंद्र सरकार का करीब 70 फीसदी कर्ज लंबी नहीं बल्‍क‍ि छोटी अवधि यानी 10 साल तक का है. यानी कि सरकारें बेहद सीमि‍त हिसाब किताब के साथ कर्ज ले रही हैं. वजह यह कि लंबी अवध‍ि का कर्ज लेने पर ब्‍याज का बोझ लंबा चलेगा, जिसे उठाने की कुव्‍वत नहीं है.

कर्ज को लेकर सबसे  बड़ी चुनौती अगले वित्‍त वर्ष से शुरु होगी. वित्‍त मंत्रालय की ति‍माही कर्ज रिपोर्ट बताती है कि अगले साल 2023 में करीब 4.21 लाख करोड़ का कर्ज चुकाने के लिए सर पर खड़ा होगा. यानी ट्रेजरी बिल मेच्‍योर हो जाएंगे. इन्‍हें चुकाने के लिए नकदी की जरुरत है. सनद रहे कि यह भारी देनदारी केवल एक साल की चुनौती नहीं है. 2023 से 2028 के बीच, सामान्‍य औसत से करीब चार गुना कर्ज चुकाने के लिए सर पर खड़ा होगा.

वह चाहे सरकार ही क्‍यों न हो पुराना कर्ज चुकाने के लिए नया कर्ज लेने की एक सीमा  है. नए कर्ज से नया ब्‍याज भी सर पर आता है. इसके लिए सरकार को और ज्‍यादा कमाई की जरुरत होगी यानी सरकार का कर्ज आपका मर्ज है और इसके लिए उसे आगे नई रियायतें नहीं बांटनी हैं बल्‍क‍ि नए टैक्‍स लगाने होंगे.

सरकार अब हर संभव कोश‍िश करेगी. कि खर्च सीम‍ित रहे  और टैक्‍स बढ़े. भारतीय कर्ज का यह भयावह आंकड़ा देश की संप्रभु साख पर भारी है. जिसका असर रुपये की कीमत पर नजर आएगा. यही वह दुष्‍चक्र है जो भारी कर्ज के साथ शुरु होता है

अब समझे आप बजट की बेखुदी का सबब या वित्‍त मंत्री के उस दो टूक बयान का मतलब कि शुक्र मनाइये नए टैक्‍स नहीं लगे.

भारत का बजट प्रबंधन पहले भी कोई शानदार नमूना नहीं था, दरारें खुलीं थीं, प्‍लास्‍टर झर रहा था, इस बीच कोविड का भूकंप आ गया और पूरी इमारत ही लड़खड़ा गई

भारत में राजकोषीय सुधारों की बात करना अब फैशन से बाहर है. सरकार अपनी तरह से बजट प्रबंधन की परिभाषा गढ़ती है. वह राजनीत‍िक सुव‍िधा के अनुसार राजकोषीय अनुशासन के बल‍िदान का एलान करती है. जैसे कि सरकार अपना एकमात्र राजकोषीय अनुशासन यानी फिस्‍कलन रिस्‍पांसबिलिटी और बजट मैनेजमेंट एक्‍ट ही ताक पर रख दिया है जब बात तो इसे और सख्ती से लागू करने की थी.

भारत सार्वजनिक कर्ज बेहद खतरनाक मुकाम पर है. इस कर्ज में बैंक,जमाकर्ता और टैक्‍स पेयर सब फंसे हैं. एसे अंबेडकर में याद आते हैं जिन्‍होंने अगस्‍त 1949 में संविधान सभा की बहस (अनुच्‍छेद 292 जो पहले 268 था) कहा था कि सरकार को मनचाहा कर्ज उठाने का अध‍िकार नहीं मिलना चाहिए. संसद इसे बेहद गंभीरता से लेना चाहिए और कानून न बनाकर सरकार के कर्ज की सीमा तय करनी चाहिए.

काश क‍ि संसद सुन लेती ..................