अतीत कभी वापस नहीं लौटता। जिस ज्ञानी गुणी ने यह सिद्धांत दिया होगा उसे यह अंदाज नहीं होगा कि भारत की सरकारें ऐसा बजट बना सकती हैं जो अतीत को खीच कर वापस वर्तमान में खड़ा कर दें। भारी सब्सिडी, फिजूल की स्कीमें, बेसिर पैर के खर्च वाला पुराना समाजवादी नुस्खा। भारी टैक्स व मनमानी रियायतों का बोदा फार्मूला। वही भयानक घाटा, कर्जदार सरकार, बर्बाद होते बैंक। कुछ खास लोगों को सब कुछ देने वाला पुराना भ्रष्ट लाइसेंस राज। लगता है कि जैसे आर्थिक सुधारों से पहले वाला बंद, अंधेरा, सीलन भरा लिजलिजा सरकारी दौर जी उठा है। समावेशी विकास यानी इन्क्लूसिव ग्रोथ की कांग्रेसी सियासत ने हमें उलटी गाड़ी में चढ़ा दिया है। यूपीए की दो सरकारों के कथित समावेशी विकास की नीतियों ने पूरे बजटीय अनुशासन का श्राद्ध कर कर दिया और ग्रोथ लाने वाले खर्च का गला घोंट दिया। अद्भुत स्कीम प्रेम में आर्थिक सुधारों फाइलें बंद हो गई जबकि गांवों तक भ्रष्टाचार की दुकानें खुल गई। इन्क्लूसिव ग्रोथ की सूझ अब सबसे बड़ा बोझ बन गई है।
समावेशी संकट
बजट को आंकड़ा दर आंकड़ा खंगालते हुए कोई भी एक अजीब किस्म के डर से भर जाएगा। समावेशी विकास की अंधी सूझ हम पर बहुत भारी पड़ी। समस्याओं की शुरुआत आर्थिक नीतियों में उस करवट से हुई है जहां सरकार की नीतियों का फोकस बदला और समावेशी विकास के नाम पर सब कुछ मुफ्त बांटने की पुरानी सियासत शुरु हो गई। 2005-06 में बजट का कुल खर्च पांच लाख करोड़ रुपये था जो छह साल के भीतर करीब 15 लाख करोड़ (इस बजट में) हो गया। (छठे वेतन आयोग के अलावा) इतना अधिक खर्च किस पर बढ़ा ? पिछले आठ वर्षों में सरकार ने देश में कोई नई परियोजनाए नहीं लगाईं। सरकार के खर्च से कोई बडा बुनियादी ढांचा नहीं बना। यह बढ़ा हुआ खर्च दरअसल उस नए राजनीतिक अर्थशास्त्र
से निकला है जिसे यूपीए की सरकार अपनी साथ सत्ता में ले आकर आई थी। पिछले पांच छह साल में सिर्फ कुछ खास मदों में खर्च पर एक सरसरी निगाह डालने से पता चल जाएगा कि समावेशी विकास का बिल कितना बड़ा है। 2005-06 में सब्सिडी का बिल केवल 44000 करोड़ रुपये था जो सिर्फ पांच साल में 2.16 लाख करोड़ रुपये पर पहुंच गई है। जयादातर बढ़ोत्तरी उन्हीं तीन पुराने मदों (खाद्य, उर्वरक, पेट्रो उत्पाद) में हुई, जहां सुधारों की बात 1991 में शुरु हुई थी और अब तक कुछ नहीं हुआ। बजट में खर्च के चैम्पियन कुछ मंत्रालय चमकते हैं जिनमें मनरेगा, स्वास्थ्य मिशन जैसी स्कीमें शुरु हुईं। इनकी सफलता सिरे से संदिग्ध है मगर बजट की बदहाली बढ़ाने में इनकी भूमिका पर कोई संदेह नहीं है। इस पर भी कोई शक नहीं है इन स्कीमों की कीमत पर पिछले सात साल में आर्थिक सेवाओं मसलन ऊर्जा, शहरी विकास आदि में निवेश नहीं बढ़ा। इसलिए असली विकास हमें छोड़ भागा। बचा यह समावेशी विकास तो इस पर सिर्फ खर्च दिखता है देश पर इसका असर नहीं दिखता।
से निकला है जिसे यूपीए की सरकार अपनी साथ सत्ता में ले आकर आई थी। पिछले पांच छह साल में सिर्फ कुछ खास मदों में खर्च पर एक सरसरी निगाह डालने से पता चल जाएगा कि समावेशी विकास का बिल कितना बड़ा है। 2005-06 में सब्सिडी का बिल केवल 44000 करोड़ रुपये था जो सिर्फ पांच साल में 2.16 लाख करोड़ रुपये पर पहुंच गई है। जयादातर बढ़ोत्तरी उन्हीं तीन पुराने मदों (खाद्य, उर्वरक, पेट्रो उत्पाद) में हुई, जहां सुधारों की बात 1991 में शुरु हुई थी और अब तक कुछ नहीं हुआ। बजट में खर्च के चैम्पियन कुछ मंत्रालय चमकते हैं जिनमें मनरेगा, स्वास्थ्य मिशन जैसी स्कीमें शुरु हुईं। इनकी सफलता सिरे से संदिग्ध है मगर बजट की बदहाली बढ़ाने में इनकी भूमिका पर कोई संदेह नहीं है। इस पर भी कोई शक नहीं है इन स्कीमों की कीमत पर पिछले सात साल में आर्थिक सेवाओं मसलन ऊर्जा, शहरी विकास आदि में निवेश नहीं बढ़ा। इसलिए असली विकास हमें छोड़ भागा। बचा यह समावेशी विकास तो इस पर सिर्फ खर्च दिखता है देश पर इसका असर नहीं दिखता।
सामूहिक खोट
गरीबी खत्म करने की चिंता और कोशिशें को सुधारों के खिलाफ समझना गलत है। यह तो सामाजिक विकास पर खर्च का पुराना और सुधार विरोधी तरीका है जो पैर में पत्थर की तरह बंध गया है। समावेशी विकास की पूरी सोच में पारदर्शिता, प्रामाणिकता ( लाभार्थियों की पहचान), मॉनीटरिंग जैसी कई बुनियादी खामियां हैं इसलिए पांच साल के भीतर ही यह समस्या बन गई है। भारी बजट वाली नई स्कीमों ( मनरेगा, स्वास्थ्य मिशन, संभावित खाद्य सुरक्षा) की शुरुआत से पहले अगर सरकार लाभार्थियों की पहचान कर लेती तो यह सुधारों का नया चरण माना जाता। मगर ऐसा नहीं हुआ। इसलिए गरीबों तक लाभ तो पहुंचा ही नहीं उलटे स्कीमों की लूट ने सरकार की साख को कचरा कर दिया। हर स्कीम में घोटाला हुआ और समावेशी विकास दरअसल सामूहिक भष्टाचार बन गया। आज सरकार इन स्कीमों की सफलता को तथ्यों के साथ साबित नहीं कर सकती। गरीबी कम होने के आंकड़ों का श्रेय भी इन स्कीमों के हक में नहीं जाता। हाल में जारी एनएसएसओ (विवादित) आंकड़े भी यही बताते है कि मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा जैसे राज्यों में गरीबी तेजी से घटी है जहां आर्थिक ग्रोथ अचछी थी। 2009 में लोक सभा के चुनाव के साथ इन स्कीमों का क्रियान्वयन पूरे देश में हो गया और असफलता व भ्रष्टाचार सामने आने लगे। इसलिए तब से कांग्रेस लगतातार सियासी जमीन गंवाती चल गई है। किस्सा यह कि खजाना लुटाकर भी राजनीतिक फायदा नहीं मिला। समावेशी विकास का मॉडल पूरी तरह ग्रामीण रहा, जबकि ग्रोथ, शिक्षा रोजगार के लिए लोगों की अपेक्षायें शहरी थी। इन्क्लूसिव ग्रोथ की पूरी सोच अगर बदलते जनसांख्यिकी ढांचे और विकास के पैटर्न से तालमेल करती तो शहरी विकास को बराबरी में वरीयता मिलनी चाहिए थी। जबकि ग्रामीण विकास का मॉडल खेती और उत्पादक रोजगार पर केंद्रित होता न कि कच्चे काम के बदले पैसा बांटने वाली लगभग अनुत्पादक मनरेगा जैसी स्कीमों पर। इन्क्लूसिव ग्रोथ पांच साल में ही संकट ले आई। वित्त मंत्री ने इस बजट में समावेशी विकास से हाथ जोड़ लिये। मनरेगा का बजट घटा, खाद्य सुरक्षा टल गई और सरकार को सबिसडी पर कुलहाडी चलानी पडी। मगर नुकसान हो गया है वास्तविक ग्रोथ, बजट के संतुलन और सरकार की साख सब डूब गए हैं।
आज से करीब दस साल पहले सरकार के कुल बजट का जितना आकार होता था आज सरकार उतना कर्ज ले रही है। 15 लाख करोड के ताजे बजट में सरकार कुल 5.13 लाख करोड़ रुपये का कर्ज उठायेगी। यह एक अभूतपूर्व राजकोषीय समस्या की शुरुआत है। सुधारों की नामौजूदगी , सरकार के खर्च, घाटे, नीति शूनयता के पैमानों पर 1991 से पहले के दौर को महसूस किया जा सकता है। शुक्र है कि अर्थव्यवस्था कुछ उदार हो चुकी है, उपभोक्ता खर्च कर रहे हैं, विदेशी मुद्रा भंडार ठीक है और पिछली ग्रोथ के फायदे का कुछ हिस्सा हमारे पास है। नहीं तो हमें भयानक संकट में फंसते देर नहीं लगती। मनमोहन सिंह के वित्त मंत्रित्व दौर के भाषण पढि़ये, देश को बिगाड़ने वाले जितने कदम उन्होंने तब गिनाये थे वह सभी कदम पिछले पांच साल में उठा लिए गए हैं। एक फलते फूलते उद्यमी देश को रोजगार गारंटियों व मुफ्त अनाज के नशे में डुबा कर कांग्रेस व यूपीए को क्या मिला यह तो पता नहीं लेकिन इतना जरुर पता है तरक्की तोड़ने की में समावेशी परियोजना हमारी पिछले एक दशक की मेहनत के फायदे खर्च हो गए हैं। हो सकता है हमें ग्रोथ का पहाड़ा अब नए सिरे से पढ़ना पड़े।
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