लॉकडाउन के साथ ही सुयश की पढ़ाई छूट गई, न स्मार्ट फोन न इंटरनेट.
दिल्ली की दमघोंट सुबहों में घरों में काम करने वाली
उसकी मां खांसते हुए बताती है कि साहब के घर पानी ही नहीं, हवा साफ करने की मशीन भी है.
काम तलाश रहे सुयश के पिता को यह तो मालूम है कि आने वाले दिनों में
कोविड वैक्सीन लगे होने की शर्त पर काम मिलने की नौबत आ सकती है लेकिन यह नहीं मालूम
कि वह अपने पूरे परिवार के लिए कोविड वैक्सीन खरीद भी पाएंगे या नहीं.
कोविड के बाद की दुनिया में आपका स्वागत है.
21वीं सदी का तीसरा दशक सबसे पेचीदा उलझन
के साथ शुरू हो रहा है. महामारी के बाद की इस दुनिया में तकनीकों
की कोई कमी नहीं है. लेकिन बहुत बड़ी संख्या ऐसे लोगों की होगी
जो जिंदगी बचाने या बेहतर बनाने की बुनियादी तकनीकों की कीमत नहीं चुका सकते.
जैसे कि भारत में करीब 80 फीसद छात्र लॉकडाउन के
दौरान ऑनलाइन कक्षाओं में हिस्सा नहीं (ऑक्सफैम सर्वेक्षण)
ले सके.
फार्मास्यूटिकल उद्योग ने एक साल से भी कम समय में वैक्सीन
बनाकर अपनी क्षमता साबित कर दी. करोड़ों
खुराकें बनने को तैयार हैं. लेकिन बहुत मुमकिन है कि दुनिया की
एक बड़ी आबादी शायद कोविड की वैक्सीन हासिल न कर पाए. महंगी तकनीकों
और उन्हें खरीदने की क्षमता को लेकर पहले से उलझन में फंसे चिकित्सा क्षेत्र के लिए
वैक्सीन तकनीकी नहीं बल्कि आर्थिक-सामाजिक
चुनौती है. भारत जैसे देशों में जहां सामान्य दवा की लागत भी
गरीब कर देती हो वहां करोड़ों लोग वैक्सीन नहीं खरीद पाएंगे और कितनी सरकारें ऐसी होंगी
जो बड़ी आबादी को मुफ्त या सस्ती वैक्सीन दे पाएंगी.
वैक्सीन बनाने वाली कंपनियां पेटेंट के नियमों पर अड़ी
हैं. रियायत के लिए डब्ल्यूटीओ में भारत-दक्षिण अफ्रीका का प्रस्ताव गिर गया है. कोवैक्स अलायंस और ऐस्ट्राजेनेका की वैक्सीन के सस्ते होने से उम्मीद है लेकिन
प्रॉफिट वैक्सीन बनाम पीपल्स वैक्सीन का विवाद अभी सुलझा नहीं है.
विकासशील देशों को सस्ती वैक्सीन मिलने की उम्मीद कम
ही है. सरकारें अगर लागत उठाने लगीं तो बजट
ध्वस्त, नया भारी कर्ज और नए टैक्स. ऊपर
से अगर इन देशों को वैक्सीन देर से मिली तो अर्थव्यवस्थाओं के उबरने में समय लगेगा.
वैक्सीन का विज्ञान तो जीत गया लेकिन अर्थशास्त्र बुरी
तरह फंस गया है.
आरोग्य सेतु ऐप की विफलता और लॉकडाउन के दौरान बढ़ी अशिक्षा के बीच करीबी रिश्ता है.
भारत में अभी भी करीब 60 फीसद फोन स्मार्ट नहीं
हैं यानी फीचर फोन हैं. आरोग्य सेतु अपने तमाम विवादों के अलावा
इसलिए भी नहीं चल सका कि शहर से गांव गए अधिकांश लोग के पास इस ऐप्लिकेशन को चलाने
वाले फोन नहीं थे.
जिस ऑनलाइन शिक्षा को कोविड का वरदान कहा गया उसने 80 फीसद भारतीय
छात्रों एक साल पीछे कर दिया, क्योंकि या तो उनके पास स्मार्ट
फोन नहीं थे या इंटरनेट. ग्रामीण इलाकों में बमुश्किल 15 फीसद लोगों के पास ही नेट कनेक्टिविटी है.
भारत की आधी आबादी के पास इंटरनेट की सुविधा नहीं है. और यदि उन्हें इंटरनेट मिल भी जाए तो केवल 20 फीसद लोग
डिजिटल सेवाओं का इस्तेमाल (सांख्यिकी मंत्रालय) कर सकते हैं.
मुसीबत तकनीक की नहीं बल्कि उसे खरीदने की क्षमता है. इसलिए दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में एक दिल्ली
में अधिकांश आबादी उन लोगों की तुलना में पांच से दस साल कम
(न्यूयार्क टाइम्स का अध्ययन) जिएंगे जिनके पास एयर प्यूरीफायर हैं.
अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष आर्थिक बेहतरी मापने के लिए एक नए सूचकांक
का इस्तेमाल कर रहा है जिसे वेलफेयर मेज़र इंडेक्स कहते हैं. उपभोग, खपत, जीवन प्रत्याशा,
मनोरंजन और खपत असमानता इसके आधार हैं. 2002 से
2019 के बीच भारत जैसे विकासशील देशों की वेलफेयर ग्रोथ करीब
6 फीसद रही है जो उनके प्रति व्यक्ति वास्तविक
जीडीपी से 1.3 फीसद ज्यादा है यानी कि लोगों के जीवन स्तर में
सुधार आया.
कोविड के बाद इस वेलफेयर ग्रोथ में 8 फीसद की गिरावट आएगी.
यानी जिंदगी बेहतर करने पर खर्च में कमी होगी.
चिकित्सा, शिक्षा, पर्यावरण, संचार में तकनीकों की कमी नहीं है लेकिन इन्हें
सस्ता करने के लिए बड़ा बाजार चाहिए लेकिन आय कम होने और गरीबी बढ़ने से बाजार सिकुड़
रहा है इसलिए जिंदगी बचाने और बेहतर बनाने की सुविधा बहुतों को मिल नहीं पाएंगी.
यह नई असमानता की शुरुआत है. यहीं नहीं कि कोविड के दौरान कंपनियों
की कमाई बढ़ी और रोजगार कम हुए बल्कि अप्रैल से जुलाई के बीच भारत के अरबपतियों की
कमाई में 423 अरब डॉलर का इजाफा हो गया.
तकनीकों की कमी नहीं है. अब, सरकार को लोगों
की कमाई बढ़ाने के ग्लोबल प्रयास करने होंगे नहीं तो बहुत बड़ी आबादी आर्थिक असमानता
की पीठ पर बैठकर तकनीकी असमानता की अंधी सुरंग में उतर जाएगी, जिसके बाद तेज ग्रोथ लंबे वक्त के लिए असंभव हो जाएगी. कोविड के बाद जिन नई तकनीकों में भविष्य देखा जा रहा है वह भविष्य केवल मुट्ठी
भर लोगों का हो सकता है.