दुनिया में जितना इतिहास दो टूक फैसलों से बना है सरकारों और नेताओं
के असमंजस ने भी उतना रोमांचक इतिहास गढ़ा है. मसलन दूसरे विश्व युद्ध में दखल को
लेकर अमेरिका का असमंजस हो या आर्थिक उदारीकरण को लेकर भारत की दुविधा ...एसी
दुविधाओं के नतीजे अक्सर बड़ा उलटफेर करते हैं जैसे इस बार के बजट को ही लीजिये
जोसरकार की दुविधा का अनोखा दस्तावेज है.
यह असमंजस अब आम भारतीयोंवित्तीय जिंदगी
में बड़ा उलटफेर करने वाला है
भारत की इनकम टैक्स नीति अजीबोगरीब करवट ले रही है. सरकार
ने बचतों पर टैक्स प्रोत्साहन न बढ़ाने और अंतत: इन्हें बंद कर देने का इशारा
कर दिया है. अब कम दर पर टैक्स चुकाइये और भविष्य की सुरक्षा (पेंशन बीमा बचत)
का इंतजाम खुद करिये. इस पैंतरे बैंक और बीमा कंपनियां भी चौंक गए हैं
हकीकत तो यह है
वित्त वर्ष 2023 का बजट आने तकबचतों और विततीय सुरक्षा की दुनिया में कई बड़े घटनाक्रम गुजर चुके थे
-कोविड लॉकडाउन के बताया कि बहुत बडी आबादी के पास पंद्रह
दिन तक काम चलाने के लिए बचत नहीं थी और न थी कोई सराकरी वित्तीय सुरक्षा
-2022
में दिसंबर तक बैंकों डिपॉजिट बढ़नेदर
घटकर केवल 9.2 फीसदी रह गई थी जबकि कर्ज 15 फीसदी गति से बढ़ रहे थे. कर्ज की मांग बढ़नेके साथ बैंकों का कर्ज जमा अनुपात बुरी तरह
बिगड़ रहा था. वित्तीय
बचतों में 2020 में बैंक डिपॉजिट का हिस्सा 36.7 फीसदी था 2022 में 27.2 फीसदी
रह गया है. बैंकों के बीच बचत जुटाने
की होड़ चल रही थी. बैंकों ने बजट से पहले फिक्स्ड डिपॅाजिट पर टैक्स की छूट
बढाने की अपील की थी.
-बीमा
नियामक ने 2047 तक इंश्योरेंस फॉर ऑल का लक्ष्य रख रहा है् बीमा महंगा हो रहा है
इसलिए टैक्स प्रोत्साहन की उम्मीद
तर्कंसंगत थी
-सबसे
बड़ी चिंता यह कि 2022 में लॉकडाउन खत्म होने के बाद वित्तीय बचत टूट कर जीडीपी के
अनुपात में 10.8 फीसदी पर आ गई. जो 2020 से भी कम है जब कोविड नहीं आया था.
दुविधा का हिसाब किताब
तथ्य और हालात का तकाजा था कि यह बजट पूरी तरह बचतों
को प्रोत्साहन पर केंद्रित होता. क्यों
कि सरकार ही तो इन बचतों का इस्तेमाल करती हैऔरवित्त
वर्ष 2022-23 की पहली छमाही में आम लोगों की शुद्ध बचत ( कर्ज निकाल कर) जीडीपी की
केवल 4 फीसदी रह गई है जो बीते वित्त वर्ष में 7.3 फीसदी थी. यानी देश की कुल बचत
केंद्र सरकार के राजकोषीय घाटे (जीडीपी का 6.4%) की भरपाई के लिए भी पर्याप्त नहीं है
अबलत्ता बचतों
पर टैक्सटैक्स प्रोत्साहन में कोई
बढ़ोत्तरी नहीं हुई. बैंक जमा के ब्याज पर टैक्स छूट नहीं बढी. महंगे बीमा पर
टैक्स लगा दिया गया
नई इनकम टैक्स स्कीम में रियायत बढाई गई जहां बचत
प्रोत्साहन नहीं है होम लोन महंगे हुए हैं. मकानों की मांग को सहारा देने के लिए
ब्याज पर टैक्स रियायत भी नहीं बढ़ी
इस एंटी क्लामेक्स की वजह क्या रही
बजट के आंकडे बताते हैं रियायतों की छंटनी का प्रयोग कंपनियों
के मामले में सफल होता दिख रहा है. आम करदाताओं की तरह कंपनियों के लिए भी दो
विकल्प पेश किये गए थे. कम टैक्स-कम रियायत वाला विकल्प आजमाने वाली कंपनियों
की संख्या बढ़ रही है. 2020-21 में कंपनियों के रिटर्न की 61 फीसदी आय अब नई
टैक्स स्कीम में है जिसमें टैकस दरें कम हैं रियायतें नगण्य.
यही नुस्खा आम करदाताओं पर लागू होगा. पर्सनल इनकम
टैक्स में रियायतों पर बीते बरस सरकार ने करीब 1.84 लाख करोड का राजस्व गंवाया, जो कंपनियों को मिलने वाली रियायतों से 15000 करोड़ रुपये ज्यादा है.
सबसे बड़ा हिस्सा बचतों पर छूट (80 सी) कहा हैइस अकेली रियायत राजस्व की कुर्बानी , कंपनियों
को मिलने वाली कुल टैक्स रियायत के बराबर है.
तो आगे क्या
भारत में बचतें दो तरह के प्रोत्साहनों पर केंद्रित
हैं . पहला छोटी बचत स्कीमें हैं जहां बैंक डिपॉजिट से ज्यादा ब्याज मिलता है.
इनमें वे भी बचत करते हैं जिनकी कमाई इनकम टैक्स के दायरे से बाहर है. दूसरा हिस्सा
मध्य वर्ग है जो टैक्स रियायत के बदले बचत करता है.
बीते दो बरस में आय घटने और महंगाई के कारण के लोगों
ने बचत तोड़ कर खर्च किया है. अब प्रोत्साहन खत्म होने के बाद बचतें और मुश्किल
होती जाएंगी. खासतौर पर जीवन बीमा और स्वास्थ्य
बीमा जैसी अनिवार्य सुरक्षा निवेश घटा तो परिवारों का भविष्य संकट में होगा.
छोटी बचत स्कीमों जब ब्याज दरें घटेगी या बढ़त नहीं होती ता इनका आकर्षण
टूटेगा. बैंक डिपॉजिट पर भी इसी तरह का खतरा है. सबसे बड़ी उलझन यह है किभारत में पेंशन संस्कृति आई ही नहीं है, उसे कौन प्रोत्साहित करेगा.
शुरु से शुरु करें
सोशल सिक्योरिटी औरयानी बचत, बीमा, पेंशन और कमाई पर टैक्स
हमजोली हैं. 17 वीं सदी 20 वीं सदी तक यूरोप और अमेंरिका में सामाजिक सुरक्षा स्कीमों
की क्रांति हुई. ब्रिटेन पुअर लॉज के तहतगरीबों
को वित्तीय सुरक्षा देने के लिए अमीरों को टैक्स लगाया गया. 19 वीं सदी के अंत
में जर्मनी के पहले चांसलर ओटो फॉन बिस्मार्क ने पेंशन और रिटायरमेंट लाकर
क्रांति ही कर दी. 1909 में ब्रिटेन में ओल्ड एज पेंशन आई. इसके खर्च के लिए
अमीरों पर टैक्स लगा. इस व्यवस्था को लागू करने के लिए एच एच एक्विथ की सरकार
को दो बार आम चुनाव में जाना पड़ा . हाउस आफ लॉर्डस जो अमीरों पर टैक्स के खिलाफ
उसकी संसदीय ताकत सीमित करनेके बाद यह
पेंशन और टैक्स लागू हो पाए.
दूसरे विश्व युद्ध के बाद सरकारें या तो अपने खर्च
पर सामाजिक सुरक्षा देती हैं जिसके लिए वे टैक्स लगाती हैं या फिर भारत जैसे देश
हैं जहां टैक्स में रियायत और बचत पर
ऊंचे ब्याज जरिये लोगों बीमा बचत के लिए प्रोत्साहित किया जाता है
भारत में अभी यूनीवर्सल पेंशन या हेल्थकेयर जैसा कुछ
नहीं है. आय में बढ़त रुकी है, जिंदगी महंगी होती जा
रही है और बचत के लिए प्रोत्साहन भी खत्म हो रहे हैं.
कानपुर के दीपू घरेलू खपत की सामानों
के डिस्ट्रीब्यूटर हैं. बीते पांच छह महीने में हर सप्ताह जब उनका मुनीम उन्हें
हिसाब दिखाता है उलझन में पड़ जाते हैं. ज्यादातर
सामानों की बिक्री बढ़ नहीं रही है. कुछ की बिक्री घट रही है और कई सामानों की
मांग जिद्दी की तरह एक ही जगह अड़ गई है, बढ़ ही नहीं रही.
दीपू हर सप्ताह कंपनियों के एजेंट को यह हाल बताते
हैं कंपनियां अगली खेप में कीमत बढ़ा देती हैं या पैकिंग में माल घटा देती हैं.
दीपू के कमीशन में कमी नहीं हुई मगर मगर बिक्री टर्नओवर नहीं बढ़ रहा. ज्यादा बिक्री
पर इंसेटिव लेने का मामला अब ठन ठन गोपाल है. कोविड के बाद बाजार खुलते ही दीपू ने
तीन लडकों की डिलीवरी टीम बनाई थी, अब दो को हटा दिया है. नए
दुकानदार नहीं जुड़ रहे और नए आर्डर मिल रहे हैं.
दीपू की डिलीवरी टीम में एक लड़का बचा है जिसके साथ वह
खुद माल पहुंचाते हैं. वसूली करते हैं. उधारी लंबी हो रही है.
दीपू जैसा हाल अगर आपने अपने आसपास सुना हो तो समझिये
कि आप अर्थशास्त्र की हकीकत के करीब पहुंच गए हैं. दीपू का रोजनामचा और बैलेंस
शीट अर्थशास्त्रियों के अध्ययन का विषय होनी चाहिए. आर्थिक सिद्धांतों में जिस
स्टैगफ्लेशन का जिक्र होता है, उसकी पूरी व्यंजन विधि दीपू के हिसाबी पर्चे में है. स्टैगफ्लेशन
की खिचड़ी महंगाई, मांग में कमी और बेरोजगारी से बनती है. स्टैगफ्लेशन के स्टैग का
मतलब है विकास दर में स्थिरता. यह मंदी नहीं है मगर ग्रोथ भी नहीं. तरक्की बस
पंचर कार की तरह ठहर जाती है. फ्लेशन यानी इन्फेलशन यानी महंगाई.
दुनिया की सबसे जिद्दी आर्थिक बीमारी है यह. जिसमें
कमाई नहीं बढती, लागत और कीमतें बढ़ती जाती हैं. दुनिया के बैंकर इतना मंदी से
नहीं डरते. मंदी को सस्ते कर्ज की खुराक से दूर किया जा सकता है लेकिन स्टैगफ्लेशन
का इलाज नहीं मिलता. सस्ता कर्ज महंगाई बढता और महंगा कर्ज मंदी.
मांग और महंगाई
शायद आपको लगता होगा कि बाजार में माल तो बिक रहा है.
जीएसटी बढने के आंकडे तो कहीं से महंगाई के असर नहीं बताते तो फिर यह स्टैगफ्लेशन
कहां से आ रही है. महंगाई से मांग गिरने के असर को लेकर अक्सर तगड़ी बहस चलती है
क्यों कि पैमाइश जरा मुश्किल है. भारत में तो इस वक्त इतने परस्पर विरोधी तथ्य
तैर रहे हैं कि तय करना मुश्किल है कि महंगाई का असर है भी या नहीं.
इसके लिए आंकड़ो को कुछ दूसरे नजरिये से देखते हैं.
अर्थव्यवस्था में हमेशा बड़ी तस्वीर ही पूरी तस्वीर होती है और अब हमारे पास
महंगाई से मांग टूटने के कुछ ठोस तथ्य हैं. बजट की तरफ बढ़ते हुए इन्हें देखना
जरुरी है
महंगाई ने मांग खाई
खपत और उत्पादन का रिश्ता नापने के लिए सबसे व्यावहारिक
बाजार उपभोक्ता उत्पादों का है. इस वर्ग में हर तरह के उपभोक्ता शामिल है, चाय मंजन , मसालों से लेकर सीमेंट और
कारों तक. हर माह जारीहोने वाला औद्योगिक उत्पादन सूचकांक इनके उत्पादन में कमी
या बढत की जानकारी देती है.
अप्रैल से अक्टूबर 2022 के दौरान कंज्यूमर
ड्यूरेबल्स के उत्पादन में 6.6 फीसदी की गिरावट दर्ज हुई इसमें इलेक्ट्रानिक्स
उत्पाद से लेकर कारें तक शामिल हैं 2021 में यहां करीब 30.4 फीसदी की बढ़त हुई
थी. कंज्यूमर नॉन ड्यूरेबल्स यानी साबुल मंजन,
बिस्किट आदि के उत्पादन तो
अप्रैल अक्टूबर 2022 में सिकुड़कर -4.2 फीसदी रह गई जो बीते साल इसी दौरान 7.2 फीसदी
बढ़ी थी
यही तो बडे वर्ग हैं जहां महंगाई से मांग का सीधा
रिश्ता दिखता है. बैंक ऑफ बडोदा के एक ताजा अध्ययन में महंगाई और मांग के रिश्ते
को करीब से पढा गया है.
औद्योगिक उत्पादन सूचकांक और महंगाई के आंकडों को एक
साथ देखने पर करीब 20 से अधिक उत्पाद एसे मिलते हैं महंगाई के कारण जिनकी मांग
में कमी आई जिसके कारण उत्पादन में गिरावट दर्ज हुई
उर्वरकों का किस्सा दिलचस्प है सरकार की सब्सिडी
के बावजूद इस साल महंगाई के कारण उर्वरक की मांग टूटी. गिरावट दर्ज हुई पोटाश और
फास्फेट वर्ग के उर्वरक में, जहां सब्सिडी नही मिलती नतीजतन 2021 में कीमतों की बढ़त 3.2
फीसदी थी 2022 में 12.1 फीसदी हो गई. महंगाई के कारण खरीफ मौसम में बुवाई के बढ़ने
के बावजूद उर्वरक की बिक्री अप्रैल से अक्टूबर 2022 में करीब 5.5 फीसदी कम रही.
स्टील की कीमतों में 2022 में महंगाई का रफ्तार धीमी
तो पड़ी लेकिन दहाई के अंक में थी इसलिए बिक्री में केवल 11.7 फीसदी बढ़ी जो 2021 में 28 फीसदी बढ़ी थी.
खाद्य सामानों में मक्खन, घी, केक, बिस्किट, चॉकलेट चाय, कॉफी, कपडे, फुटवियर में महंगाई ने 5 से
12.5 फीसदी तक की बढ़त दिखाई तो बिक्री ने तेज गोता लगाया.
मक्खन, केक, लिनेन फुटवियर की बिक्री तो नकारात्मक हो गई.
ठीक इसी तरह अप्रैल अक्टूबर 2022 में सीमेंट और ज्यूलरी
की बिक्री में तेज गिरावट आई जिसकी वजह यहां 6 से सात फीसदी की महंगाई थी.
महंगाई के बावजूद
महंगाई से न प्रभावित होने वालों सामानों की सूची
बहुत छोटी है. यानी एसे उत्पाद जिनकी बिक्री बढ़ी जबकि इनकी कीमतें भी बढ़ी थीं.
इसमें सब्सिडी वाली उर्वरक यानी यूरिया और डीएपी है. इसके अलावा आइसक्रीम, डिटर्जेंट, टूथपेस्ट और मोबाइल फोन
हैं. हालांकि त्योहारी मौसम खत्म होने यानी अक्टूबर के बाद मोबाइल की बिक्री
घटने के संकेत भी मिलने लगे थे.
बैंक ऑफ बडोदा के इस अध्ययन में कुछ उत्पाद एसे भी
मिले हैं जिनकी बिक्री का महंगाई से रिश्ता स्पष्ट नहीं होता. जैसे कि कारें, ट्रैक्टर, दोपहिया-तिपहिया वाहन और
कंप्यूटर. इन सबकी कीमतें बढ़ी लेकिन दिसंबर तक कारों की बिक्री ने सारा पुराना
घाटा पाट दिया. 2018 के बाद सबसे ज्यादा कारें बिकीं.
बजट की पृष्ठभूमि
2022-23 में कुल उत्पादन में कमी नजर आने की एक वजह 2021
में तेज बिक्री रही थी जिसे बेसइ इफेक्ट कहते हैं लेकिन आंकड़ो को करीब से देखने
पर महंगाई और मांग का रिश्ता साफ दिख जाता है.
इससे यह भी जाहिर होता है कि सरकार का जीएसटी संग्रह
महंगाई के कारण बढ़ रहा है, बिक्री बढ़ने के कारण नहीं. महंगाई के कारण जीएसटी संग्रह बढ़ने
के सबूत पहले से मिल रहे हैं.
स्टैगफ्लेशन की रोशनी में बजट गणित पेचीदा हो गई है.
अर्थव्यवस्था के चार प्रमुख भागीदार हैं. पहला है उत्पादक, दूसरा है उपभोक्तातीसरे हैं रोजगार और चौथी है सरकार
महंगाई और लागत बढ़ने के साथ उत्पादकों ने अपनी गणित
बदल ली. कानपुर के दीपू को महंगा माल मिल रहा है क्यों कि मांग में कमी के साथ
कंपनियां क्रमश: कीमतें अपने न्यूनतम मार्जिन सुनश्चित कर रही हैं. वितरकों के
कमीशन सुरक्षति हैं लेकिन कारोबार में बढ़त नहीं है.
दूसरी तरफ उपभोक्ता है. इस माहौल ने उनकी खपत का
नजरिया बदल दिया है. तभी तो जरुरी चीजों की मांग गिरी है. रिजर्व बैंक का ताजा
कंज्यूमर कान्फीडेंस सर्वे बताता है कि ज्यादातर उभोक्ता अगले एक साल तक गैर
जरुरी सामान पर खर्च नहीं करना चाहता है. जरुरी सामानों पर भी उनके खर्च में बड़ी
बढ़त नहीं होगी. यही वजह है दीपू को नए दुकानदार नहीं मिल रहे और पुराने दुकानदार
आर्डर बढ़ा नहीं रहे हैं.
अप्रैल से दिसंबर के बीच भारत में बेरोजगारी दर 7
फीसदी से ऊपर रही है. दिसंबर में शहरी बेरोजगारी दस फीसदी से ऊपर निकल गई. गांवों में
भी काम नहीं. स्टैगफ्लेशन का सबूत यही है. रोजगार इसलिए टूट रहे हैं क्यों कि
कंपनियों ने नई क्षमताओं में निवेश रोक दिया और उत्पादन को घटाकर मांग से हिसाब
से समायोजित किया है. इस सूरत में नौकरियां आना तो दूर खत्म होने की कतार लगी
है. श्रम बाजार में काम के लिए लोग हैं मगर काम कहां है. दीपू ने भी बेकारी बढाने
में अपनी योगदान किया है. अपने टीम के दो लड़के हटा दिये.
अगर इस वित्त वर्ष में भारत की जीडीपी दर 6.9 फीसदी भी रहती है तो भी बीते
तीन साल में भारत की औसत विकास दर केवल 2.8 फीसदी रहेगी जो कि बीते तीन साल की औसत
विकास दर यानी 5.7 फीसदी का आधी है
अर्थात भारत का सकल घरेलू उत्पादन या बीते 36 महीनों
में तीन फीसदी की दर से भी नहीं बढ़ा है. इसी का सीधा असर हमें खपत पर दिख रहा है.
वित्त वर्ष 2024 की विकास दर अगर छह फीसदी से नीचे रहती है तो फिर चार साल तक देश
के लोगों की कमाई में कोई खास बढ़त नजर नहीं आएगी. यही वजह है कि अब माना जा रहा
है कि यदि 2023 में महंगाई 6 फीसदी से नीचे आ भी गई तो भी लोगों के पास कमाई नहीं
होगी जिससे मांग को तेज बढ़त मिल सके. मांग के बिना कंपनियां नया निवेश नहीं
करेंगी तो रोजगार कहां बनेंगे. विकास दर के गिरने के साथ सरकार के लिए जीएसटी
संग्रह में तेजी बनाये रखना मुश्किल होगा.
यही तो जिद्दी स्टैगफ्लेशन है जो दीपू की बैलेंस शीट
पर दस्तखत कर चुकी है. सरकार को अब कुछ और ही करना
होगा क्यों कि महंगाई कम होने मात्र से मांग के तुरंत लौटने की उम्मीद नहीं है.
अर्थव्यवस्थाओं
को हमेशा के लिए कौन बदल सकता है ..
मंदी
महामारी
युद्ध
राजनीति
शायद नहीं
यह तो वक्त चादर की सलवटें हैं ...
अर्थव्यवस्थायें
तो बदलते हैं लोग
बहुत से
लोग
जनसंख्या
की ताकत
दुनिया तो
दरअसल संतानों का अर्थशास्त्र है
यह अर्थशास्त्र
जब करवट लेता है तो महाप्रतापी समय भी नतमस्तक हो जाता है क्यों कि यह बदलाव सदियों
आते हैं और सदियों तक असर करते हैं.
अब दुनिया
ठीक एसे ही एक महासंक्रमण की दहलीज पर है.
इसे समझने
के लिए हमें कुछ पीछे जाना होगा
तो आइये बैठिये
एक टाइम मशीन मेंऔर शुरु कीजिये तीन सौ
साल का सफर. चलते हैं 18 वीं सदी से 21 वीं सदी की तरफ यानी अतीत से वर्तमान की ओर
इसयात्रा में सबसे पहले आपको दिखेगा यूरोप का बदलता
नक्शा. तीस साल लंबे युद्ध के बादयानी थर्टी इयर्स ऑफ वार के यूरोप के देशों के बीच वेस्टफीलिया की संधि. 300 साल
के सफर में आपको चीन में दो साम्राज्यों मिंग और क्विंग का पतन नजर आएगा. नेपोलियन
के युद्ध मिलेंगे, फ्रांस की क्रांति मिलेगी,
यूरोप की औद्योगिक क्रांति मिलेगी. भारत मे मुगलों का पराभव मिलेगा.
भारत और अमेरिका से कारोबार के लिए ब्रिटेन, पुर्तगाली,
स्पेन, डच के बीच होड़ मिलेगी. फिर दिखेगी
अमेरिका और भारत की गुलामी और आजादी का संघर्ष.इस सफर में मिलेगा लाखों की जाने लेने वाला स्पेनिश फ्लू , महामंदी मिलेगी, दो महायुद्ध मिलेंगे.
अलबत्ता सम्राटों युद्धों और तबाही के इतिहास
से अपनी नजरें हटायें तो आपको पता चलेगा कि यह दौर लोगों के लिए यानी आबादी के लिए
सबसे बुरा था. गुलामी बर्बरता खून खच्चर गरीबी बदहाली . अधिकांश लोगों के पास
इसके अलावा और कुछ नहीं था. यह दौर था जब दुनिया में औसत आयु केवल 27 साल थी. प्रजनन
दन (फर्टिलिटी रेट) काफी ऊंची थीएक महिला करीब छह बच्चों को जन्म देती थी लेकिन
इनमें अधिकांश जीवित नहीं रहते थे. आबादी की वृद्धि दर बमुश्किल आधा फीसदी थी.
17 वीं 18 वीं सदियां और 19 वीं सदी का बड़ा हिस्सा ऊंची जन्म दर, बड़ी संख्या में युवा आबादी, बदतर जीवन स्तर और ऊंची मृत्यु दर के साथ गुजरा था
फिर आप को मिलेगी 19 वीं सदी की शुरुआत जहां
जिंदगी थोड़ी सी बदलने लगी. यूरोप में मृत्यु दर घटने लगी थी, जन्म दर भी कम हुई, फिर
यह पूरी दुनिया में हुआ और एक जनसंख्या
संक्रमण आकार लेने लगा.बीसवीं सदी की
शुरुआत तक दुनिया की आबादी एक अरब के पास पहुंचने लगी थी. आबादी बढ़ने की रफ्तार
रफ्ता रफ्ता तेज हो रही थी.
बीसवीं सदी की शुरुआत के साथ सब कुछ बदल गया जीवन प्रत्याशा
दर बढ़ी. जन्म दर घटी और 21 वीं सदी की शुरुआत तक दुनिया की आबादी 1800 की तुलना
में छह गुना बढ़ गई. बच्चों की तुलना में बुजुर्गों का अनुपात तीन गुना बढ़ा.
करीब सौ साल पहले महिलायें अपने युवा जीवन का 70 फीसदी हिस्सा बच्चों जन्म देने
और पालने में गुजारती थीं वह 21 वीं सदी की शुरुआत तक घटकर 14 फीसदी रह गया.
यही वह दौर था जब संतानों अर्थशास्त्र ने अर्थव्यवस्थाओं
की सीरत और सूरत बदल दी. अमेरिका में बेबी बूमर्स (1946 से 1964 के बीच जन्मे) ने अमेरिका
को 30 साल की सबसे तेज विकास दर की नेमत बख्शी, जिसे 2000 में बिल क्लिंटन
ने नई अर्थव्यवस्था कहा था। (इन बेबी बूमर्स के हाथ
अमेरिका की 70 फीसदी एसी कमाई (खर्च योग्य आय) है
जिस पर बाजार झूम उठते हैं है). अमेरिका को एक और बड़े
जनसंख्या संक्रमण का लाभ मिला जो 2000 की पीढ़ी थी जिन्हें मिलेनियल्स
कहा गया हालांकि यह मिलेनियल्स ठीक उस वक्त अर्थव्यवस्था में आए जब 2008 की
मंदी आ धमकी थी. इधर 1980 के बाद चीन और भारत जैसी अर्थव्यवस्थाओं
ने अपनी जनसंख्या को खपत, उत्पादन और श्रम शक्ति
का बाजार बनाया जबकि यूरोप में बुढापा घिरने लगा
आबादी की चक्की
कहते हैं जनसंख्या की चक्की इतनी धीमी चलती है और इतना
महीन पीसती है हम अक्सर भूल ही जाते है लोगों से अर्थव्यवस्था बनती है है
अर्थव्यवस्था से लोग नहीं.यह पहिया
अपना सबसे बड़ा संक्रमण करने जा रहा है. दुनिया में जनसंख्या का संतुलन स्थायी
तौर पर बदलने जा रहा है. यह संक्रमण तीन सौसाल में सबसे बड़ा बदलाव शुरु हो चुका है पहली बार होगा. आने वाले में
दशकों में दुनिया को चाहे जो राजनीति बर्दाश्त करनी पड़े, चाहे जोसरकारें आए या जाएं , विज्ञान और तकनीक के नए शिखर
कितने भी ऊंचे हों जनसंख्या का यह परिवर्तनकामागारों की कमी , वेतन बढ़ने के दबाव, उत्पादन में कमी और जिद्दी महंगाई लेकर आएगा
चौंक गए न !
यह चारों बदलाव अर्थव्यवस्था के बारे में हमारी मौजूदा
समझ को उलट पलट कर सकते हैं लेकिन आबादी और अर्थव्यवस्था को रिश्तों को करीब
से पढ़ने वाले इस संक्रमण की शुरुआत का बिगुल बजा रहे हैं. महामारी की चीख पुकार
के बीच दुनिया के विशेषज्ञ जनसंख्या की नई करवट को समझ रहे हैं चार्ल्स गुडहार्ट
और मनोज प्रधान की ताजा किताब द ग्रेट डेमोग्राफिक रिवर्सल – एजिंग सोसाईटीज, वैनिंग इनइक्विलिटीज एंड एन इन्फेलशन
रिवाइवल इस संक्रमण पर नई रोशनी डालती है
काम होगा कामगार नहीं
भारत की तपती बेरोजगारी के बीच यह बात कुछ अटपटी सी लगेगी लेकिन
दुनिया की आबादी की नई करवट समझने वाले इस अनोखी किल्लत की तैयारी कर रहे हैं.
1950 के बाद दुनिया तीन धीमे लेकिन बड़े बदलाव हुए हैं.
प्रजनन दर यानी फर्टिलिटी रेट बीते शताब्दी की तुलना मेंआधी करीब 2.7 फीसदी रह
गई. जिंदगी लंबी हुई. 2000 तक 50 साल में दुनिया की आबादी दोगुनी हो गई और युवा
आबादी का अनुपात मजबूती से बढ़ने लगा. इस बदलाव ने दुनिया में कार्यशील आयु वाली
लोगों की संख्या में तेज बढ़ोत्तरी की. यह चार्ट इस अभूतपूर्व बदलाव की नजीर है
श्रमिकों का आपूर्ति का स्वर्ण युग आया 1990 के बाद. तब
तक बेबी बूमर्स यानी 1950 से 1964 के बीच जन्मे लोग बाजार में आ गए थे. 1991 से
2018 विकसित अर्थव्यवस्थाओ में श्रमिकों की आूपर्ति दो गुनी से ज्यादा हो गई.
काम तो मिला लेकिन वेतन बहुत नहीं बढ़े क्यों कि श्रमिक आपूर्ति ज्यादा थी. चीन
की विकास कथा इसी दौर मे बनती है. भारत और एशिया की अर्थव्यवस्थाओं ने भी इस
संक्रमण को पूरा लाभ लिया. अलबत्ता उत्पादन बढ़ा और दुनिया ने करीब 28 साल तक
महंगाई नहीं देखी. जिसका लाभ जीवन स्तर बेहतर होने के तौर पर सामने आया.
बीते करीब 60 सालों में दुनिया का हर परिवार बीती सदी के
तुलना में अमीर हुआ है. छोटे परिवार रखना कमाई की गारंटी थी और लंबे समय तक काम
करने का मौका था इसलिए आय में बढ़ोत्तरी हुई हालांकि यह पूरी दुनिया में असमान
थी. क्यों कि एक छोटी सी आबादी की आय ज्यादा तेजी से बढ़ी.
अब यह पूरा परिदृश्य बदलने वाला है.एक नई दुनिया हमारे सामने होगी.
दुनिया के ज्यादातर देशों में कार्यशील आबादी कम होती
जाएगी. अब उतने श्रमिक नहीं होंगे. जापान, कोरिया, जर्मनी,
रुस, चीन, इटली,
फ्रांस, चीनमें अब
बुढ़ापा घिर रहा है. चीन ने 1990 से 2015 के करीब 29 करोड लोग कार्यशील आबादी में
जोडे.अब 2050 तक 22 करोड़ लोग श्रम बाजार
से बाहर हो जाएंगे क्यों कि उनकी उम्र काम के लायक नहीं रहेगी.
इसका असर धीमी आर्थिक विकास दर के तौर पर सामने आएगा.
विशेषज्ञ मान रहे हैं कि उत्पादन घटेगा क्यों कि श्रमिकों की कमी भी होगी, खपत भी गिरेगी. बहुत तेज विकास दर के दिन
अब गए. अगले करीब तीन दशकों में भारत चीन जैसे एशियाई अर्थव्यवस्थायें औसत 6 से
8 फीसदी के बीच विकास दर हासिल कर पाएंगी. यूरोप की अर्थव्यवस्थाओं कीविकास दर
तो तीन फीसदी से भी नीचे रहेगी. यह संक्रमणग्लोबलाइजेशन की रफ्तार को भी धीमा कर सकता क्यों कि श्रमिकों आपूर्ति
सीमित होगी. प्रवासी श्रमिकों को रोजगार देना राजनीतिक रुप से मुफीद नहीं होगा.
इसलिए दुनिया को देशों के जो सामान सेवायें आयात करते थे उनमें से कई मामलेां उन्हें
अपने यहां नई क्षमतायें बनानी होंगी
महंगाई की वापसी
सन 2000 के बाद यहां युवा और बुजर्ग आबादी का अनुपात बदल रहा है. आबादी का का डिपेंडेंसी
रेशियो कमजोर हो रहा है यह इस वक्त अर्थव्यवस्था का सबसे प्रभावी फार्मूला है.
यह अनुपात बताता है कि आबादी कार्यशील लोगों पर कितने बच्चे और बुजुर्ग निर्भर
हैं.
किसी भी जनसंख्या में बच्चे और बुजुर्ग शुद्ध उपभोक्ता
हैं. वह कार्यशील लोगों पर निर्भर हैं. यह आबादी उत्पादन करती है खपत करती है और
बचत करती है. इसलिए इस अनुपात में गिरावट अर्थव्यवस्था के अचछी मानी जाती है.
1950 तक यह अनुपात संतुलित था. बाद के दशकों में इसमें बढोत्तरी हुई.1990 के इसमें बढ़त हुई है. कार्यशील आबादी घट
रही है जबकि उस पर निर्भर आबादी बढ़ रही है.
1990 के बादश्रम
बाजार में औसत श्रमिकों की कार्यशील आयु स्थिर होने लगी थी. बाद मे वर्षों में
इसमें तेज गिरावट आई. इसी के साथ सभी बडी अर्थव्यवस्थाओं में डिपेंडेसी रेशियो
बढ़ने लगा
आबादी का डिपेंडेसी रेशियो
महंगाई के लिए सबसे जरुरी कारक है. 1870 से 2016 के बीच दुनिया के 22 प्रमुख देशों
में महंगाई और जनसंख्या के रिश्तों पर अध्ययन बताता है कि कार्यशील आबादी कम
होने से वेतन बढ़ने का दबाव बनता है. यदि खपत करने वाली आबादी , उत्पादक आबादी से ज्यादा है तो
मतलब है कि आबादी का एक बड़ा हिस्सा उतादन नहीं करेगा बल्कि केवल उपभोग करेगा. इस
उत्पादन के लि कम लोगों को ज्यादा वेतन देने होंगे जिसका असर उत्पादन लागत पर
दिखता है. और इससे बढ़ती है महंगाई. आबादी में आयु का संतुलन बदलने के बाद खपत भी
कम होती है जो उत्पादकों के कम बिक्री पर ज्यादा कीमत वसूलने का मौका देती है.
जनसंख्या की चक्की धीमा पीसती है
इसलिए सब कुछ तुरंत नहीं बदलेगा अलबत्ता लंबी अवधि में कई बडे असर होने वाले हैं
-महंगाई बढ़ने के साथ खपत में कमी और उपभोग में भी कमी
क्योंकि बुढ़ाती आबादी की खपत कम होती है. इसका मतलब यह कि अब बल्लियों उछली
विकास दर की जरुरत नहीं होगी क्यों कि मांग कम रहेगी
-बुजर्ग आबादी अपनी पुरानी बचतों पर जियेगी नई बचतें
नहीं होगी इसलिए निवेश को कर्ज पर निर्भर
रहना होगा. महंगाई के बीच यह परिस्थिति ब्याज दरों को ऊंचा रख सकती है.
-निवेश में कमी होने की संभावना कम है क्यों कि आबादी
का संतुलन बदलने के साथ आवासों पर सबसे जयादा निवेश चाहिए. बुजुर्गों को रहने के
लिए घर चाहिए. गुडहार्ट और प्रधान अपने अध्ययन बता रहे हैं कि पूरी दुनिया में
हाउसिंग की मांग बढेगी अलबत्ता इसके लिए कर्ज भी जरुरत में भी इजाफा होगा
-कर्ज इसलिए भी महंगा रह सकता है क्यों कि सरकारों
को बुजुर्ग कल्याण पर खर्च बढ़ाना होगा. यह स्वास्थ्य पेंशन शहरी सुविधाओं पर
होगा. बीते करीब 40 सालों से सरकारों ने इस तरफ सोचा नहीं. अब बुजुर्ग आबादी सबसे
बडी राजनीतिक मजबूरी बनती जाएगी.
-सरकारों को पेंशन के पूरे ढांचे बदलने होगे.
सेवानिवृत्ति की आयु बढ़ाना जरुरी होगा क्यों कि जीवन प्रत्याशा बढ़ने से लोग
70 साल तक काम कर सकते हैं. यह पेंशन बजटों के संतुलित करेगा
-स्वास्थ्य सेवाओं को सड़क, बिजली, दूरसंचार की तर्ज पर विकसित करना होगा
ताकि कार्यशील आयु बढ़ाई जा सके और 65 की आयु वाले लोग 55 साल वालों के बराबर
उत्पादक हो सकें.
-मेकेंजी
का मानना है कि स्वास्थ्य में नई तकनीकें लाकर, बेहतर प्राथमिक उपचार, साफ पानी और समय पर
इलाज देकर बडी आबादी की सेहत 40 फीसदी तक बेहतर की जा सकती है. स्वास्थ्य पर
प्रति 100 डॉलर अतिरिक्त खर्च हों जीवन में प्रति वर्ष, एक स्वस्थ वर्ष बढाया जा सकता है. स्वास्थ्य सुविधायें संभाल कर, 2040 तक दुनिया के जीडीपी में 12 ट्रििलयन डॉलर जोडे जा सकते हैं जो ग्लोबल
जीडीपी का 8 फीसदी होगा यानी कि करीब 0.4 फीसदी की सालाना बढ़ोत्तरी
-विशेषज्ञ
मान रहे हैं कि वेतन बढ़ने की संभावनाओं के बीच यहबदलाव अगले कुछ दशकों में आय असमानता कम कर
सकता है लेकिन यहां तस्वीर बहुत धुंधली है, वक्त ही बतायेगा कि क्या हुआ.
अर्थशास्त्र का सबसे लोहा लाट
नियम किसी बैंक बजट या मुद्रा पर आधारित नहीं है. यह तो लोगों पर आधारित है
आर्थिक विकास = लोगों की संख्या में कमी बेशी+लोगों की उत्पादकता में बढ़ोत्तरी
कोई भी अर्थव्यवस्था अर्थव्यवस्था लोगों की संख्या और उनकी उत्पादकता बढाकर
ही आगे बढती है. यह फार्मूला मांग बचत और टैक्स का फार्मूला है