अचरज होता है कि सरकारी खर्च में किफायत की बहस इतनी सतही, बोदी, नपुंसक और अर्थहीन भी हो सकती है। पानी में नहलाने से कभी हाथी का वजन घटता है भला। कुछ सवारियों के उतर जाने से रेल की रफ्तार बढ़ते देखी है आपने? किफायत प्रतीकों में नहीं आंकड़ों में दिखती है। यह नेताओं की समाजवादी चतुरता है और हमारा भोलापन कि राजनीति हमें अक्सर कुछ बड़े लोगों के विलासितापूर्ण खर्चों को कम करने की प्रतीकात्मक बहस में उलझा देती है और सरकार के डायनासोरी खर्च को एक गंभीर और जरुरी बहस से साफ बचा ले जाती है। इस बार फिर ऐसा ही हुआ है।
..कब हुई है किफायत?
भारत की सरकार की किफायत को प्रतीकात्मक इसलिए है क्यों कि शाहखर्ची रोकने या बचत की घोषणा, वित्त वर्ष खत्म होते होते फाइलों के आरामदेह कवर में सो चुकी होती है। बजट के आंकड़ों में सरकार हर साल पहले से ज्यादा खर्चीली नजर आती है। और किफायत की मुहिम भी क्या? गैर योजना खर्च में वही दस फीसदी की कमी, बड़ेे होटलों में सरकारी आयोजनों पर रोक, इकोनॉमी क्लास में हवाई यात्रा आदि। ऐसी कई मुहिम अतीत बन गईं मगर कभी सरकार ने यह नहीं बताया कि इनसे बचत क्या हुई? सब कुछ प्रतीकात्मक है इसलिए जुलाई में सरकार बजट में खर्च को बढ़ाने पर तालियां बटोरती है और सिर्फ दो माह बाद सात सितंबर को किफायत का आदेश जारी कर देती है।
..सोचो मत बस खर्च करो!
भारत की आर्थिक प्रकृति का नियम है कि जो वित्त मंत्री खर्च का जितना बड़ा आंकड़ा बताता है वह बजट पर अपनी पार्टी से उतनी बड़ी तारीफ पाता है। प्रणव मुखर्जी गरजे कि हम पहली बार दस लाख करोड़ रुपये के खर्च का बजट लाए हैं। यह मत पूछिये कि इसमें पूंजी खर्च तो केवल 1,23,606 करोड़ रुपये है। अर्थात सरकार का 90 फीसदी खर्च तो उस खाते में हो रहा है जिसे सरकार खुद विकास से नहीं जोड़ती। वैसे भी जिस सरकार के बजट का 70 फीसदी खर्च ब्याज, सब्सिडी, वेतन, पेंशन आदि गैर योजना मदों में जाता हो उसे किफायत की बहस में नहीं उलझना चाहिए।
... बहस तो दरअसल यह है
सरकार के खर्च को नहीं बल्कि उस खर्च की गुणवत्ता को तीखी बहस की दरकार है। जरा खर्च को परखने के पैमाने बदल दीजिये आप खुद कहेंगे कि यह हो क्या रहा है? कभी खाद पर दी जा रही सब्सिडी को खेती में सरकारी खर्च के समानांतर रखकर देखा है आपने। 2009-10 साल के बजट में सरकार खेती व सिंचाई के विकास पर कुल 11000 करोड़ रुपये खर्च करेगी और उर्वरक सब्सिडी पर करीब 50,000 करोड़!! ..डीजल पर दी जा रही सब्सिडी को बिजली क्षेत्र में सरकार के निवेश से नापिये। बिजली उत्पादन लिए इस साल प्रणव बाबू ने बजट में करीब 57000 करोड़ रुपये का योजना खर्च रखा हैं मगर डीजल पर दी जा रही सब्सिडी 52288 करोड़ रुपये है। इसी तरह एलपीजी व केरोसिन पर सब्सिडी को ग्रामीण विकास पर सरकार के कुल खर्च से तौलिये। यह सब्सिडी 45000 करोड़ रुपये है जब कि इस साल ग्रामीण विकास पर सरकार 43850 करोड़ रुपये खर्च करेगी। इसमें सरकार की चहेती नरेगा भी है। चाहें तो आप निर्यातकों को मिल रही कर रियायतों (44000 करोड़ रुपये) को उद्योग व खनन में सरकार के निवेश (35740 करोड़ रुपये) से नाप लीजिये। इसमें हर आंकड़ा खर्च की प्रासंगिकता, गुणवत्ता और उपयोगिता के सवाल उठा रहा है, जो जानबूझकर बहस से बाहर कर दिये जाते हैं।
किफायत की जरुरत क्या है?
सरकार में किफायत की मौजूदा बहस ही बेमतलब है। सरकार आखिर को किफायत क्यों करे? वह तो खर्च करने के लिए ही तो टैक्स लेती है। इसलिए उसे जमकर खर्च करना चाहिए ताकि बाजार में मांग बढ़े, रोजगार बढ़ें, सुविधायें बढ़ें। मंदी के दौरान दुनिया की सभी सरकारों ने ऐसा किया क्यों कि सरकारें जितना खर्चती हैं, निजी क्षेत्र उससे ज्यादा खर्च करता है। मगर हम दुनिया से फर्क हैं हमारी सरकार भी खर्च बहादुर है लेकिन वह खर्च सब्सिडी जैसे मदों में करती है, जिसका वह श्रेय भी नहीं ले सकती। आर्थिक सर्वेक्षण के आंकड़े बताते हैं कि 2007-08 में जीडीपी के अनुपात में कुल घरेलू निवेश 39.3 फीसदी रहा है इसमें सरकार का योगदान केवल 9.1 फीसदी का था। यानी कि आर्थिक पहिया सरकार के खर्च पर नहीं घूमता।
जीडीपी के अनुपात में सरकार की बचत केवल 4.5 फीसदी है जबकि निजी क्षेत्र व आम लोगों की बचत 33 फीसदी। यानी कि किफायत व सरकार का मामला नहीं जमता। अलबत्ता सरकार अगर अपने खर्च के ढर्रे, प्रकृति, उपयोगिता और प्रासंगिकता पर बहस करे तो बात कुछ बनती है। सरकारी खर्च और किफायत की बहस इस बार थरुरों और कृष्णाओं के पांच सितारा सुइट व हवाई जहाजों के बिजनेस क्लास में फंस गई। हमारे देखते-देखते नेताओं ने एक बार फिर इंच भर नैतिकता के टुकड़े से करोड़ों के फालतू सरकारी खर्च को ढक लिया और हम खुश हो गए कि सरकार खर्च में कमी का चाबुक अपनों पर ही चला रही है। क्या खूब है यह किफायत का यह नया प्रतीकवाद !!!
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