जब अंबानियों की लड़ाई का शोर राजनीति के गलियारों को गुंजा रहा हो। जब टाटा सिंगुर में सताये जाने का मुआवजा मांग रहे हों, जब सत्यम के जमीन जायदाद वाले असत्यम (मेटास) पर नियंत्रण की चख – चख चल रही हो। तो इन नक्कारखानों में तूती की आवाज कौन सुने? बड़ों के इस शोर के बीच मझोले और छोटों की अर्थव्यवस्था की तरफ दे ाने की फुर्सत किसे है? कोई देखे या न देखे पर बदलाव तो होता है क्यों कि परिवर्तन किसी टाटा, सत्यम या अंबानी का ट्रेडमार्क नहीं है। उद्योग जगत के बड़ों के नाज नखरे उठाने में मसरुफ सरकार को पता ही नहीं चला और सिर्फ पांच वर्षों में लघु उद्योगों का पूरा स्वरुप ही बदल गया। कभी मैन्युफैक्चरिंग यानी उत्पादन गतिविधियों का केंद्र रहा देश का लघु उद्योग अब सेवा क्षेत्र का स्वर्ग है। छोटे व मझोले उद्योगों की नई गणना बताती है कि देश की ढाई करोड़ से ज्याद लघु इकाइयों में 72 फीसदी इकाइयां अब सेवा क्षेत्र में हैं !!!! लघु उद्योगों की नीतियों पर नजर र ाने वालों को इस आंकड़े पर हैरत होना लाजिमी है क्यों कि सरकार की नीतियों और इस बदलाव में तो पीढिय़ों का अंतर है। सिर्फ यही नहीं यह बदलाव बहुत गहरे अर्थ भी छिपाये हुए है।
.. दिलचस्प नई सूरत?
लघु उद्योगों की दुनिया बड़े पैमाने पर बदल गई है भले ही लघु व मझोले उद्योगों की चौथी गणना के बीते सप्ताह आए आंकड़े बड़ी खबरों के बीच खो गए हों। ज्यादा लोग, कम तकनीक, छोटा उत्पादन.... लघु उद्योगों की अब यह पहचान नहीं रही। सरकार ने इस क्षेत्र के लिए परिभाषा बदली थी जिसके आधार पर लघु मझोले उद्योगों की चौथी गणना में मझोली इकाइयों व सेवा क्षेत्र को भी शामिल किया गया। नतीजे चौंकाने वाले हैं। देश में छोटी व मझोली इकाइयों की तादाद 1.3 करोड़ (2001-02 के आंकड़ों के मुताबिक) नहीं बल्कि दोगुनी यानी 2.6 करोड़ है। यह इकाइयां करीब छह करोड़ लोगों को रोजगार दे रही हैं। लेकिन विसंगति देखिये कि इनमें पांच करोड़ लोगों को रोजगार देने वाली इकाइयां पंजीकृत नहीं हैं यानी कि रोजगार है मगर असंगठित। फिर भी प्रति इकाई रोजगार 01-02 में 4.48 व्यक्ति था वह 06-07 में बढक़र 6.24 व्यक्ति हो गया है।
और हैरतअंगेज सीरत
लघु उद्योगों की नई तस्वीर में दिलचस्प पेचीदगियां हैं मगर सीरत में बदलाव तो आश्चर्यजनक हैं। अब देश की केवल 28 फीसदी लघु इकाइयां विनिर्माण यानी मैन्युफैक्चरिंग के काम लगी हैं यानी कि लघु उद्योगों में इकाई लगाकर उत्पादन करने का दौर खत्म। अब सेवा देना लघु इकाइयों का नया काम है, इसलिए 72 फीसदी इकाइयां तरह तरह की सेवाओं में लगी हैं। लघु उद्योगों में 2001-02 से 06-07 के बीच प्रति इकाई स्थायी निवेश करीब सात लाख रुपये से बढ़ कर 33 लाख रुपये हो गया है, यानी कि यह नई सीरत उद्यमियों को भा रही है।
इस बदलाव के अर्थ
....मगर लघु उद्योगों के पूरे स्वरुप में यह बदलाव बड़ा अर्थपूर्ण है। पहला अर्थ तो यह कि हम रफ्ता-रफ्ता विनिर्माण आधारित अर्थव्यवस्था से सेवा आधारित अर्थव्यवस्था में बदलते जा रहे हैं। लघु उद्योगों को रोजगार का पावर हाउस माना जाता है लेकिन यह पावर हाउस अब इकाई लगाकर नहीं बल्कि सेवायें देकर चल रहा है। उद्यमी अब ठोस उत्पादन करना नहीं चाहते बल्कि अदृश्य सेवायें छोटों की इस बड़ी अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं। लेकिन इसके साथ ही निर्यात, उत्पादन और बाजार में कई अहम चीजों की आपूर्ति का ढांचा भी बदल गया। आप मैन्युफैक्चरिंग उत्पादों के महंगे होने और सेवाओं के सस्ते होने के रहस्य को भी इस बदलाव के जरिये खोल सकते हैं। लघु इकाइयां सस्ते सामान बनाकर कीमतों को कम रखने में मदद रखती थीं, अब या तो वह सामान नहीं मिल पाते या बड़ी इकाइयां उन्हें ऊंची लागत पर बना रही हैं। महंगाई का यह एक छिपा हुआ चेहरा है।
नीतियों की गुत्थी
लघु उद्योगों की सूरत और सीरत में यह बदलाव उदारीकरण के बाद बनी लघु उद्योग नीतियों की प्रासंगिकता को कठघरे में ाड़ा कर देता है। लघु इकाइयों के लिए प्रोत्साहन, कर्ज, संरंक्षण, कर रियायत, निवेश, निर्यात आदि की नीतियां इस क्षेत्र मेंं मैन्युफैक्चरिंग की प्रमुखता को निगाह में रखकर बनती रही हैं। इस नई सूरत में अब इन नीतियों को सिरे से बदलना होगा क्यों कि अर्थव्यवस्था में रोजगार के सबसे बड़ा सप्लायर लघु उद्योग सेवा क्षेत्र का दीवाना है। मगर जरा ठहरिये....सरकार के पास तो सेवा क्षेत्र को लेकर कोई समेकित कानून ही नहीं है। ...सेवाओं में गुणवत्ता के सवाल पहले से हैं, ऊपर से छोटी पूंजी वाले लघु उद्योग की सेवाओं में बड़ी हिस्सेदारी इन सवालों को और बड़ा कर देती है। तो सेवायें लेने वाले उपभोकताओं के हित कैसे सुरक्षित होंगे? सरकार लघु उद्योगों को निर्यात में बढ़ावा देती है लेकिन पर लघु उद्योग तो उत्पादन के बजाय सेवाओं की तरफ मुखातिब हैं तो फिर निर्यात सेवाओं का होना चाहिए मगर यहां तो संगठित क्षेत्र से सेवा निर्यात को लेकर कोई रणनीति नहीं है, तो फिर लघु और असंगठित क्षेत्र की कौन सुने?
उदारीकरण ने सिर्फ बड़ों को नहीं बदला है बल्कि छोटे भी बड़े पैमाने पर बदल गए हैं। सरकार को यह दिखता ही नहीं कि लघु उद्योग वक्त के हिसाब से बदले हैं उसकी नीतियां देखकर नहीं। अब तो नीतियों को लघु उद्योगों की नई दुनिया के हिसाब से बदलना होगा। साथ ही उन चुनौतियों से निबटने की नीतियां भी चाहिए जो मैन्युफैक्चरिंग से लघु उद्योगों के दूर जाने से उपजेंगी। यह चुनौतियां रोजगार, आपूर्ति, कीमत और निर्यात सबको प्रभावित करेंगी, क्यों कि इस मुल्क की बहुरंगी अर्थव्यवस्था को सिर्फ बड़े उद्योगों की तलवार नहीं छोटे उद्योगों की सुई (...जहां काम आवै सुई, कहा करै तलवार) भी चाहिए।
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