Monday, September 26, 2011

वो रही मंदी !

डा नाज था हमें अपने विश्‍व बैंकों, आईएमएफों, जी 20, जी 8, आसियान, यूरोपीय समुदाय, संयुक्‍त राष्‍ट्र की ताकत पर !! बड़ा भरोसा था अपने ओबामाओं, कैमरुनों, मर्केलों, सरकोजी, जिंताओ, पुतिन, नाडा, मनमोहनों की समझ पर !!..मगर किसी ने कुछ भी नहीं किया। सबकी आंखों के सामने मंदी दुनिया का दरवाजा सूंघने लगी है। उत्‍पादन में चौतरफा गिरावट, सरकारों की साख का जुलूस, डूबते बैंक और वित्‍तीय तंत्र की पेचीदा समस्‍यायें ! विश्‍वव्‍यापी मंदी के हरकारे जगह जगह दौड़ गए हैं। ... मंदी के डर से ज्‍यादा बड़ा खौफ यह है कि बहुपक्षीय संस्‍थाओं और कद्दावर नेताओं से सजी दुनिया का राजनीतिक व आर्थिक नेतृत्‍व उपायों में दीवालिया है। यह पहला मौका है जब इतने भयानक संकट को से निबटने के लिए रणनीति बनाना तो दूर  दुनिया के नेता साझा साहस भी नहीं दिखा रहे हैं। यह अभूतपूर्व विवशता, दुनिया को दूसरे विश्‍व युद्ध के बाद सबसे भयानक आर्थिक भविष्‍य की तरफ और तेजी से धकेल रही है।
मंदी पर मंदी
मंदी की आमद भांपने के लिए ज्‍योतिषी होने की जरुरत नहीं है। आईएमएफ बता रहा है कि दुनिया की विकास दर कम से कम आधा फीसदी घटेगी। अमेरिका में बमुश्किल 1.5 फीसदी की ग्रोथ रहेगी जो अमेरिकी पैमानों पर शत प्रतिशत मंदी है। पूरा यूरो क्षेत्र अगर मिलकर 1.6 फीसदी की रफ्तार दिखा सके तो अचरज होगा। जापान में उत्‍पादन की विकास दर शून्‍य हो सकती है। यूरो जोन में कंपनियों के लिए ऑर्डर करीब 2.1 फीसदी घट गए हैं। यूरो मु्द्रा का इस्‍तेमाल करने वाले 17 देशों में सेवा व मैन्‍युफैक्‍चरिंग सूचकांक दो साल के न्‍यूनतम
स्‍तर पर हैं। दुनिया के विकास का इंजन चीन किसी तरह नौ फीसदी (बीते साल 10.3 फीसदी) और भारत बमुश्किल सात फीसदी की गति दिखा पाएगा। महंगाई व प्रॉपर्टी संकट के मारे चीन में उत्‍पादन घटने से दुनिया की उम्‍मीद पूरी तरह टूट गई है। विश्‍व व्‍यापार संगठन ने दुनिया के व्‍यापार की विकास दर 6.5 फीसदी से घटाकर 5.8 फीसदी कर दी है। जिंस बाजार ऐतिहासिक तलहटी पर है लोहा, तांबा निकल सभी धातुओं मांग में कमी को तय मानकर जमीन पर आ  गईं है। .... मंदी की आहट इतनी मुखर है कि विश्‍व बैंक, आईएमएफ, दुनिया के राष्‍ट्राध्‍यक्ष और अमेरिकी फेड रिजर्व को भी यह मान लेना पड़ा है कि अब जिसका डर था वह सच होने वाला है। यह मंदी पर मंदी है यानी डबल डिप। गिरावट की शुरुआत 2007 में तरह तरह की समस्‍याओं ( अमेरिका में आवास बाजार की बदहाली, यूरोप में मांग में कमी, जापान में स्‍थायी सुस्‍ती) से हुई थी जिसका पहला झटका 2009 में लगा था जब दुनिया का उत्‍पादन 0.7 फीसदी गिर गया। इस गिरावट पर अब दूसरी गिरावट की गिरह लगने जा रही है। इसलिए यह दूसरे विश्‍व युद्ध के बाद पहली बार दुनिया में मंदी का सबसे भयानक चेहरा है।
बचाने वाले डूबे
औद्योगिक मंदी और देशों का कर्ज संकट दो अलग-अलग किस्‍म की समस्‍यायें हैं जो अलग-अलग कारणों से उपजती हैं। यह पहली दुनियावी मंदी होगी जिसमें दोनों साथ साथ हैं इसलिए भय और आशंकाओं का सूचकांक सीमायें तोड रहा है। कर्ज संकट के मोर्चे पर कुछ भी सुधरता नहीं दिख रहा है। अमेरिका में रेटिंग एजेंसिया देश के बड़े बैंकों पर चढ़ दौड़ी हैं। तीनों सबसे बड़े बैंक, बैक ऑफ अमेरिका, सिटीग्रुप और वेल्‍स फार्गो की रेटिंग घट गई है। यूरोप कुछ भी नहीं बदला है। केंद्रीय बैंक मान रहा है कि यूरो मुद्रा यानी यूरोपीय मौद्रिक एकता खतरे में है। ग्रीस अगले माह दीवालिया हो जाएगा। इटली की रेटिंग घट चुकी है, फ्रांस कतार में है। ग्रीस के डूबते ही यूरोप के बैंकों में तबाही मच जाएगी। कर्ज संकट में फंसे देश चाहकर भी खर्च बढ़ाकर मंदी से उबरने की राह नहीं बना सकते क्‍यों कि महंगाई दरवाजे पर खड़ी है। बैंक डूब रहे हैं इसलिए कर्ज कौन देगा। अमेरिकी फेड ने बीते सप्‍ताह मंदी की आशंका को स्‍वीकार करते हुए जो पैंतरा बदला उसके बाद बची खुची उम्‍मीदों के पैर उखड़ गए। फेड बाजार में डॉलर छोड़ने के बजाय कम अवधि के बांड बेच कर लंबी अवधि के बांड (ऑपरेशन टिवस्‍ट) खरीदेगा। इस फैसले के बाद यह साफ है कि मंदी रोकने के लिए फेड रिजर्व के पास अब कोई रास्‍ता  नहीं बचा है।
चुक गए नेता  
दुनिया का राजनीतिक नेतृत्‍व लगभग चुक सा गया है जिसके कारण यह संकट अब उत्‍पादन या कर्ज नहीं बल्कि भरोसे का है। अमेरिका में राजनीति इस कदर बिखरी है कि कर्ज संकट टालने के लिए खर्च घटाने विधेयक संसद में गिर गया और अमेरिका ठहरने लगा है। सोमवार को विधेयक पारित न हुआ तो दुनिया पता नहीं क्‍या देखेगी। टैक्‍स बढाने को लेकर रिपब्लिकन और डेमोक्रेट का झगड़ा पूरे विश्‍व पर भारी पड़ रहा है। ग्रीस को बचाने की कोशिशें यूरोप की राजनीतिक की खींचतान में बदल गई हैं। इस संकट के मौके पर यूरोप का राजनीतिक बिखराव, कई सरकारों का पतन, भारत व जापान में राजनीतिक अस्थिरता और चीन में सामाजिक असंतोष मिलकर यह साबित कर रहे हैं कि नीति निर्माताओं के पास संकट से उबरने का कोई समाधान नहीं है। 2008 में लीमैन संकट के पतन के बाद जिस तरह दुनिया एक जुट हुई थी वैसी एकजुटता अब नहीं दिखती। वजह शायद यह है कि संकट बहुत हद तक घरेलू हैं जिनका इलाज या कीमत पूरी दुनिया से मांगी जा रही है। ताजा संकट को तीन चार माह गुजरने के बाद पहली बार इस सप्‍ताह जब विश्‍व बैंक व मुद्रा कोष के नेता मिले तो उनके पास समाधान नहीं थे। विश्‍व बैंक के मुखिया रॉबर्ट जोएलिक व क्रिस्‍टीना लेगार्ड ने यह कहते हुए डर और बढ़ा दिया कि संकट राजनेताओं  अनिर्णय और गैर जिम्‍मेदारी से निकला है। जो सामाजिक असंतोष में बदल सकता है। कम से कम यूरोप की सड़कों पर वह असंतोष (ग्रीस, लंदन के दंगे) साफ दिख रहा है।
संभावित मंदी को अगर दुनिया में राजनीतिक बिखराव की रोशनी में देखा जाए तो यह निष्‍कर्ष निकालना मुश्किल नहीं है कि यह मंदी अचानक नहीं आई, इसे न्‍योता गया है। 2007 से लेकर आज तक विश्‍व के नेता मिलकर कोई समाधान नहीं निकाल सके और समस्‍यायें बढ़ती चली गईं। चर्चिल ने ठीक कहा था कि संकल्‍पहीनता ही आज के नेताओं का संकल्‍प है, वे बिखराव पर दृढ़ हैं, बहकने में मजबूत हैं और नपुंसकता ही उनकी असली ताकत है। (टुडेज पॉली‍टीशियंस आर रिजॉल्‍व्‍ड टु बी इरिजोल्‍यूट, अडामेंट फॉर ड्रिफ्ट, सॉलिड फॉर फ्लुडिटी और ऑल पॉवरफुल फॉर इंपोटेंस) इन्‍हीं के चलते मंदी दरवाजे खड़ी है। या यूं कहिये कि करीब दो करोड़ लोगों की नौकरियां जाने वाली हैं और चार करोड़ लोग गहरी गरीबी में फिर धंसने वाले हैं। .. मुझे रहजनों से गिला नहीं तेरी रहबरी पर मलाल है।
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1 comment:

Atul kushwah said...

दादा प्रणाम, संभावित समस्या के साथ इलाज भी बता दीजिये इन रहबरों को...Regards- अतुल