यह यूरोप और अमेरिका के संकटों का पहला भूमंडलीय तकाजा था, जो बीते सपताह भारत, ब्राजील, कोरिया यानी उभरती अर्थव्यवस्थाओं के दरवाजे पर पहुंचा। इस जोर के झटके में रुपया, वॉन (कोरिया), रिएल (ब्राजील), रुबल, जॉल्टी(पोलिश), रैंड (द.अफ्रीका) जमीन चाट गए। यह 2008 के लीमैन संकट के बाद दुनिया के नए पहलवानों की मुद्राओं का सबसे तेज अवमूल्यन था। दिल्ली, सिओल, मासको,डरबन को पहली बार यह अहसास हुआ कि अमेरिका व यूरोप की मुश्किलों का असर केवल शेयर बाजार की सांप सीढ़ी तक सीमित नहीं है। वक्त उनसे कुछ ज्यादा ही बडी कीमत वसूलने वाला है। निवेशक उभरती अर्थव्यवस्थाओं में उम्मीदों की उड़ान पर सवार होने को तैयार नहीं हैं। शेयर बाजारों में टूट कर बरसी विदेशी पूंजी अब वापस लौटने लगी है। शेयर बाजारों से लेकर व्यापारियों तक सबको यह नई हकीकत को स्वीकारना जरुरी है कि उभरती अर्थव्यवस्थाओं के लिए बाजी पलट रही है। सुरक्षा और रिर्टन की गारंटी देने वाले इन बाजारों में जोखिम का सूचकांक शिखर पर है।
कमजोरी की मुद्रा
बाजारों की यह करवट अप्रत्याशित थी, एक साल पहले तक उभरते बाजार अपनी अपनी मुद्राओं की मजबूती से परेशान थे और विदशी पूंजी की आवक पर सख्ती की बात कर रहे थे। लेकिन अमेरिकी फेड रिजर्व की गुगली ने उभरते बाजारों की गिल्लियां बिखेर दीं। फेड का ऑपरेशन ट्विस्ट, तीसरी दुनिया के मुद्रा बाजार में कोहराम की वजह बन गया। अमेरिका के केंद्रीय बैंक ने देश को मंदी से उबारने के लिए में छोटी अवधि के बांड बेचकर लंबी अवधि के बांड खरीदने का फैसला किया। यह फैसला बाजार में डॉलर छोडकर मुद्रा प्रवाह बढाने की उम्मीदों से ठीक उलटा था। जिसका असर डॉलर को मजबूती की रुप में सामने आया। अमेरिकी मुद्रा की नई मांग निकली और भारत, कोरिया, दक्षिण अफ्रीका, ब्राजील के केद्रीय बैंक जब तक बाजार का बदला मिजाज समझ पाते तब तक इनकी मुद्रायें डॉलर के मुकाबले चारो खाने चित्त
हो गईं। भारतीय रुपया ऐसा गिरा कि होश ठिकाने लग गए। 27 जुलाई एक डॉलर 43.85 रुपये का था, जो बीते सपताह 50 रुपये तक आ गया। बाजारों में ऐसा कोहराम मचा कि रिजर्व बैंक को दखल देकर गिरावट रोकनी पड़ी। यही हाल कोरियाई, थाई, दक्षिण अफ्रीकी, टर्की, ब्राजील आदि की मुद्राओं का हुआ। उभरते बाजारों की ज्यादातर मुद्रायें इस साल जून जुलाई से दबाव हैं मगर एक सप्ताह में दस फीसदी गिरावट बहुत बडी थी इसलिए सभी जगह केंद्रीय बैंको अपने विदेशी मुद्रा भंडारों का मुंह खोला और अरबों डॉलर झोंक कर अपनी मुद्राओं को खड़े होने का सहारा दिया। दक्षिण कोरिया के केंद्रीय बैंक ने अपनी मुद्रा वॉन की मदद ने करीब 4 अरब डॉलर बाजार में छोड़े। मजबूत मुद्रायें उभरते बाजारों की ताकत थीं यह ताकत अमेरिकी डॉलर व यूरो की कमजोरी और शेयर बाजारों में भारी निवेश से आई थी। मगर मु्द्रा बाजार में इन नए पैंतरों ने संतुलन बदल दिया है।
हो गईं। भारतीय रुपया ऐसा गिरा कि होश ठिकाने लग गए। 27 जुलाई एक डॉलर 43.85 रुपये का था, जो बीते सपताह 50 रुपये तक आ गया। बाजारों में ऐसा कोहराम मचा कि रिजर्व बैंक को दखल देकर गिरावट रोकनी पड़ी। यही हाल कोरियाई, थाई, दक्षिण अफ्रीकी, टर्की, ब्राजील आदि की मुद्राओं का हुआ। उभरते बाजारों की ज्यादातर मुद्रायें इस साल जून जुलाई से दबाव हैं मगर एक सप्ताह में दस फीसदी गिरावट बहुत बडी थी इसलिए सभी जगह केंद्रीय बैंको अपने विदेशी मुद्रा भंडारों का मुंह खोला और अरबों डॉलर झोंक कर अपनी मुद्राओं को खड़े होने का सहारा दिया। दक्षिण कोरिया के केंद्रीय बैंक ने अपनी मुद्रा वॉन की मदद ने करीब 4 अरब डॉलर बाजार में छोड़े। मजबूत मुद्रायें उभरते बाजारों की ताकत थीं यह ताकत अमेरिकी डॉलर व यूरो की कमजोरी और शेयर बाजारों में भारी निवेश से आई थी। मगर मु्द्रा बाजार में इन नए पैंतरों ने संतुलन बदल दिया है।
प्रवासियों की वापसी
शेयर बाजारों के मुरीदों को ताजा घटनाक्रम गहराई समझना जरुरी है। भारत समेत एशिया के बाजारों में आज की गिरावट कुछ दूसरे किस्म की है। भारत, ब्राजील, रुस के आदि के शेयर बाजारों पर लट्टू विदेशी निवेशक अब रणनीति बदल रहे हैं। शुरुआत इस साल जुलाई से हुई है, यूरोप अमेरिका से आए दिन मिलने वाली बुरी खबरें इस रुख को मजबूत कर रही हैं। पूरी दुनिया के उभरते बाजारों का शेयर सूचकांक (ग्लोबल इमर्जिंग मार्केट इंडेक्स) सितंबर में करीब 18 फीसदी टूटा। जो 2008 (लीमैन संकट) के बाद सबसे बड़ी गिरावट है। अमेरिकी सिटी बैंक मानता है कि इस गिरावट की 40 फीसदी वजह इन देशों की कमजोर होती मुद्रायें हैं। उभरती अर्थव्यवस्थाओं के शेयर बाजारों विदेशी में निवेशक अब मोर्चा बांध कर बिकवाली कर रहे हैं। भारतीय शेयर बाजार में विदेशी निवेश का प्रवाह 2010 जनवरी अगसत के मुकाबले 85 फीसदी घट गया है। फेड रिजर्व के ऑपरेशन ट्विस्ट की शुरुआत के बाद के हफ्ते में विदेशी निवेशकों ने भारतीय बाजार में करीब 220 लाख डॉलर की बिकवाली की। समस्या के दायरे में बांड बाजार भी है। एशियाई देशों के पास मजबूत बांड बाजार नहीं है इन देशों की कंपनियों के बांडों में 80 फीसदी निवेश यूरोपीय बैंकों से आता है जो करीब 3.4 ट्रिलियन डॉलर है। संकट में घिरे यूरोपीय बैंक अपना निवेश खींच रहे हैं। चीन के मशहूर डिम सम बांड से लेकर पूर्वी यूरोप की कंपनियों तक उभरती अर्थव्यवस्थाओं का पूरा कारपोरेट बांड बाजार बुरी तरह टूट गया है। यानी निवेश की बांड वाली खिड़की भी बंद हो सकती है।
अस्थिरता की गारंटी
ताजे वित्तीय संकट की शुरुआत (2008) के बाद से अब तक भारत, ब्राजील, रुस कोरिया आदि उभरती अर्थव्यवस्थाओं के पास तीन प्रमुख सुरक्षा घेरे थे। जिनके कारण संकट की लहरें हल्की फुल्की इन्हें सिर्फ छू कर लौट जाती थीं। पहला घेरा अच्छी ग्रोथ का था, जो पूरी दुनिया में इन देशों की ताकत थी। दूसरा सुरक्षा चक्र इनके आकर्षक शेयर बाजार थे दुनिया में कम ब्याज पर पैसा लाकर निवेशक यहां के बाजारों में खेल रहे थे। इन दोनों वजहों से उभरती अर्थव्यवस्थाओं की मुद्राओं में स्थिरता का तीसरा सुरक्षा चक्र बना था। अब तीनों ही चक्र टूट गए हैं। इन देशों की विकास दर इस साल केवल 6.5 फीसदी और अगले साल 6.1 फीसदी रहनी है यानी कि आर्थिक सुस्ती तय है। शेयर बाजारों से निवेशक रुठ रहे हैं और मुद्रायें गिर रही हैं। इस बीच महंगाई की भीतरी कमजोरी पूरी ताकत के साथ उभर आई है। भारत जैसे मुल्कों में तो कमजोर मुद्रा का मतलब महंगाई का ताकत का दोगुना होना है। तेल, जिंस, खनिज सभी का आयात महंगा होना है। भारत की चुनौतियों की नई तस्वीर देखने के लिए हमें चालू खाते (करेंट अकाउंट) को परखना होगा जो जीडीपी के अनुपात में 2.6 फीसदी पर है। यह घाटा बढ़ने का मतलब है कि डॉलरों की देश से निकासी और रुपये की कमजोरी।
पिछले साल लगभग इसी वक्त ब्राजील वित्त मंत्री गुएडो मैंटेंगा ने यह कह कर सनसनी मचा दी थी कि दुनिया में करेंसी वार शुरु हो गया है। उनका कहना था कि उभरती अर्थव्यवस्थाओं में इस कदर डॉलर आ रहे हैं कि देशी मुद्राओं की मजबूती देश के निर्यातों को प्रभावित कर रही है। ब्राजील विदेशी निवेश की राह में प्रतिरोध लगाना चाहता था। भारत व कोरिया भी कुछ कुनमुनाये थे मगर बाजार में वक्त बदलते देर नहीं लगती। एक साल बाद अब जब उभरती अर्थव्यवस्थाओं की मुद्रायें कमजोर हैं यानी निर्यात प्रतिस्पर्धा बढ़ाने का मौका है तो दुनिया के बाजार में मांग नहीं है। गिरती मुद्रायें और बोरिया बिस्तर बांधते निवेशक उभरते बाजारों की कहानी का मजमून बदल रहे हैं। सस्ती मुद्रा का मतलब महंगे आयात यानी महंगाई बढ़ने का गारंटी है। जबकि निवेशकों के रुठने मतलब विदेशी मुद्रा की किल्लत है। इसलिए शेयर बाजार में अब बहुत संभल कर.... बड़े धोखे हैं इस राह में।
----------
No comments:
Post a Comment