हम भरोसा कर पाएंगे कि केवल ढाई-तीन सौ साल पहले, बुंदेलखंड भारत में खेती का स्वर्ग था! 18वीं सदी के
छोर पर भारत के पहले ग्लोबल ब्रांड, सूती कपड़े की चमक में बुंदेलखंड
का भी योगदान था, जहां किसान होना, आज सबसे
बड़ा दुर्भाग्य है.
काश!
हमारे पास भारत के सभी पर्यावरणीय परिवर्तनों और उससे आई गरीबी का तथ्यगत
इतिहास होता लेकिन बुंदेलखंड हमारे सबसे करीब की विभीषिका है जिसका इतिहास उपलब्ध है.
बुंदेलखंड की काली मिट्टी इतनी नमी सोख लेती थी कि सर्दियों (रबी) में सिंचाई
की जरूरत नहीं होती थी. कुएं नहीं थे. अठारहवीं
सदी के मध्य में जब ऊपरी गंगा-यमुना दोआब की आर्थिक ताकत छीज
रही थी तब बुंदेलखंड के वैभव के किस्से यात्रियों की जुबान पर थे. तत्कालीन बुंदेलखंड चीनी और कपास का निर्यातक था, यानी
सबसे अधिक पानी सोखने वाली फसलें (सी.ए.
बेलीः रुलर्स, टाउंसमेन ऐंड बाजार्स-नॉर्थ इंडियन सोसाइटी इन द एज ऑफ ब्रिटिश एक्सपैंशन 1770-1870).
पानी और सूखे पर बहस भले ही राजनीति जैसी रोमांचक न हो
लेकिन अब हमें दो सुलगती सचाइयों का सामना करना पड़ेगाः
एकः
मॉनसून बेअसर है, हम भयानक
जल संकट में घिर चुके हैं
दोः
देश के विभिन्न हिस्सों में नए ‘बुंदेलखंड’ उभर रहे हैं. सनद रहे
कि पिछले पंद्रह साल में निरंतर सूखे के बाद बुंदेलखंड में अब सिर्फ तबाह खेती और किसानों
की खुदकुशी बची है.
गांधीनगर-आइआइटी के सूखा पूर्वानुमान केंद्र के मुताबिक, देश का
42 फीसदी हिस्सा और 40 फीसदी आबादी सूखे की चपेट
में है. 91 प्रमुख जलाशयों में महाराष्ट्र, गुजरात और दक्षिण भारत के 58 जलाशयों में पानी दस साल
के न्यूनतम स्तर तक घट गया है.
गौरतलब है कि पिछले दस साल से कोई सूखा नहीं पड़ा है. मॉनसून (बकौल मौसम
विभाग) सामान्य रहा है लेकिन इसके बावजूद आधा भारत सूखे से कराह
रहा है.
हमारे नीति नियामक कब यह समझ पाएंगे कि पानी की मुसीबत
मॉनसून की हद से बाहर निकल चुकी है.
असंख्य सामान्य मॉनसून के बावजूद...
< 1997 से भारत में सूखा प्रभावित इलाकों का रकबा 57 फीसदी बढ़ा है.
< सूखा कई साल में एक बार नहीं बल्कि नियमित आता है. भूविज्ञान मंत्रालय के मुताबिक, 1977 से 2012 के बीच भारत में मल्टी ईयर ड्राउट (तीन से पांच साल तक नमी की लगातार कमी) लगातार बढ़े हैं. इससे पहले के दशकों में ऐसा कम देखा गया था.
< करीब 13 बड़े खेतिहर (उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र, पंजाब, हरियाणा सहित) राज्यों के 100 जिलों ने पिछले 15 साल में बार-बार सूखे का सामना किया है.
< सामान्य मॉनसून के बिगुल वादन के बावजूद भारत सरकार 225 जिलों में सूखा निवारण कार्यक्रम चलाती है यानी कि देश के औसतन हर तीसरे जिले में गंभीर जल संकट है.
< सरकार हमें जल निर्धनता सूचकांक (वाटर पावर्टी इंडेक्स) कब देगी, पता नहीं, लेकिन केवल 1,544 क्यूबिक मीटर प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता (1951 में 5,300 क्यू्बिक मीटर) के साथ हम पानी के मामले में गरीब हो चुके हैं.
पानी के नाम पर सरकारी फौज-फाटे की कमी (जल
संसाधन, पेयजल, राज्यों के जल बोर्ड)
नहीं है. फिर भी नया जल शक्ति मंत्रालय अवतरित
हुआ है. क्या सरकार दो बड़े फैसलों की हिम्मत कर सकेगी?
< बेहतर खेती वाले मुल्क भी ज्यादा पानी की खपत वाली फसलें आयात कर रहे हैं. इसे वर्चुअल वॉटर ट्रेड कहते हैं. चीन ने 2001 से, अनाज, सोयाबीन, पोल्ट्री आदि का आयात शुरू किया. 1996 तक वह सोयाबीन का सबसे बड़ा निर्यातक था. भारत को पानी की खपत के आधार पर कृषि व खाद्य व्यापार नीति बदलनी होगी.
< ऑस्ट्रेलिया, चीन, सिंगापुर, न्यूयॉर्क सिटी ने शहरों और उद्योगों के लिए पानी की दरें बढ़ाई हैं ताकि बर्बादी रुक सके. भारत को बगैर देर किए पानी महंगा करना होगा.
7000 ईसा पूर्व दुनिया की पहली सभ्यता,
संगठित कृषि और शहर (उरुक) यानी मेसेपोटामिया दजला-फरात नदियों के जिस दोआब से उभरी
थी, अगले 2000 साल में बदले मौसम ने उसे
तबाह करके वहां खेती को सीमित कर दिया. यही आज का सीरिया और इराक
है.
हैरत नहीं कि पानी की कमी के असर को दुनिया अब दूसरे
नतीजों से समझने की कोशिश कर रही है.
जैसे क्या सूडान, नाइजीरिया, चाड, बर्किना फासो या सीरिया में गृह युद्धों की वजह
दरअसल मौसमी बदलावों से आई गरीबी है? विश्व के 34 केंद्रीय बैंकों ने सरकारों को साझा चिट्ठी में कहा है कि सूखा और तूफानों
के कारण बड़ी वित्तीय तबाही हो रही है और भारी हर्जाने चुकाने पड़ रहे हैं.
सीरिया और अफ्रीका के कई मुल्कों से लेकर बुंदेलखंड तक
भारत के लिए नसीहतों की कोई कमी नहीं है.
1 comment:
बुंदेलखंडके बहाने गहराते जल संकट का सटीक विश्लेषण किया आपने लेकिन कई बातें छूट गई। पहली बार जल संकट के खलनायक हरित (रक्तिम) क्रांति का जिक्र आपने नहीं किया। इसमें फसलें क्षेत्र विशेष की पारिस्थितिक दशाओं कीउपेक्षा करके उपर सेे थोपी गईं जैसे पंजाब में धान की खेती।
रही बात बुंदेलखंड की तो वहां भी सूखे के प्रकोप बढ़ानेमें काले अंग्रेजों कीी मुख्य भूमिका है। 1996 में कृषि भ्ंवन के (अ)वैज्ञानिकों ने किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए सोयाबीन और मेथा ऑयल की खेती शुरू कराई। जिला मुख्यालयों पर इनके बीज बंटवाते समय भारी भीड़ उमड़ी थी जिसे संभालने के लिए पुलिस को लाठी चार्ज करना पड़ा था। उस समय मैं कृषि भ्ंवन में ही पोस्टेड था।
जाहिर है सूखा कुदरत नहीं मनुष्य की देन हैैै।
रमेश कुमार दुबे
केंद्रीय सचिवालय सेवा
विश्व व्यापार संगठन एवं निर्यात संवर्द्धन प्रभाग
निर्माण भ्ंवन, दिल्ली
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