कभी-कभी जीत से कुछ भी साबित नहीं होता और शायद हार से
भी नहीं. फैसला करने वाले भी खुद यह नहीं समझ
पाते कि बिहार जैसे जनादेश से वे हासिल क्या करना चाहते थे? जातीय
समीकरणों के पुराने तराजू हमें यह नहीं बता पाते कि नए जनादेश और ज्यादा विभाजित क्यों
कर देते हैं?
मसलन,
किसी को यह उम्मीद नहीं है कि जो बाइडन की जीत से अमेरिका में सब कुछ
सामान्य हो जाएगा या नई सरकार के नेतृत्व में बिहार नए सिरे से एकजुट हो जाएगा क्योंकि
राजनैतिक विभाजन लोगों के मनोविज्ञान के भीतर पैठ कर लोकतांत्रिक संस्थाओं के लिए खतरा बन रहे हैं.
चतुर नेताओं ने लोगों के दिमाग में व्यवहार और विश्वास
के बीच एक स्थायी युद्ध छेड़ दिया है.
लोग अक्सर ऐसे फैसलों का समर्थन करने लगे हैं जो व्यावहारिक तौर पर उनके
लिए नुक्सानदेह हैं. मिसाल के तौर पर उत्तर भारत में हवा दमघोंटू
है, इसमें पटाखे चलाने से और ज्यादा बुरा हाल होगा, फिर भी पटाखों पर प्रतिबंध का विरोध सिर्फ इसलिए है क्योंकि लोगों को लगता
कि यह पाबंदी एक समुदाय विशेष को प्रभावित करती है.
निष्पक्ष चिंतक इस बात से परेशान हैं कि सरकारों और लोकतांत्रिक
संस्थाओं को इस विभाजक माहौल में ईमानदार व भरोसमंद कैसे रखा जाए? सरकारें एक किस्म की सेवा हैं,
जिनकी गुणवत्ता और जवाबदेही सुनिश्चत होना अनिवार्य है. मिशिगन यूनिवर्सिटी ने
1960 के बाद अपने तरह के पहले अध्ययन में यह पाया कि लोग तीन वजहों से
सरकारों पर भरोसा करते हैं एक— सरकार ने अपनी जिम्मेदारी कैसे
निभाई? दो—संकट में सरकार कितनी संवेदनशील
साबित हुई है? तीन—वह अपने वादों और नतीजों
में कितनी ईमानदार है?
ताजा अध्ययन बताते हैं कि व्यवहार और विश्वास के बीच
विभाजन के कारण लोग सरकारों का सही मूल्यांकन नहीं कर पा रहे हैं. जैसे ब्रेग्जिट या नोटबंदी से होने वाले
नुक्सान को लोग समझ नहीं सके. उनके राजनैतिक विश्वास इतने प्रभावी
थे कि उन्होंने व्यावहारिक अनुभवों को नकार दिया.
कारनेगी एंडाउमेंट ऑफ ग्लोबल पीस ने (रिपोर्ट 2019) कई प्रमुख देशों (पोलैंड, तुर्की,
ब्राजील, भारत, अमेरिका)
में लोकतंत्र की संस्थाओं और समाज पर राजनैतिक ध्रुवीकरण के असर को समझने
की कोशिश की है. इन देशों में राजनैतिक
विभाजन ने न्यायपालिका, मीडिया, वित्तीय
तंत्र, सरकारी विभागों और स्वयंसेवी संस्थाओं तक को बांट दिया
है. गरीबों को राहत के बंटवारे भी राजनैतिक आग्रह से प्रभावित
हैं. संस्थाएं इस हद तक टूट रही हैं कि इन देशों में अब सियासी
दल चुनाव में हार को भी स्वीकार नहीं करते, जैसा कि अमेरिका में
हुआ है.
तुर्की का समाज इतना विभाजित है कि दस में आठ लोग उन परिवारों में
अपने बच्चे का विवाह या उनके साथ कारोबार नहीं करना चाहते जो उस पार्टी को वोट देते
हैं जिसे वे पसंद नहीं करते. भारत में भी ये दिन दूर नहीं हैं.
इस तरह विभाजित मनोदशा में मिथकीय वैज्ञानिक फाउस्ट की
झलक मिलती है. जर्मन महाकवि गेटे
के महाकाव्य का केंद्रीय चरित्र मानवीय दुविधा का सबसे प्रभावी
मिथक है. फाउस्ट ने अपनी आत्मा लूसिफर (शैतान) के हवाले कर दी थी. इस समझौते
(फाउस्टियन पैक्ट) ने फाउस्ट
के सामान्य विवेक को खत्म कर उसे स्थायी अंतरविरोध से भर दिया,
जिससे वह सही फैसले नहीं कर पाता.
सत्ता का साथ मिलने पर राजनैतिक विभाजन बहुत तेजी से
फैलता है क्योंकि इसमें लाभों का एक सूक्ष्म लेन-देन शामिल होता है. राजनैतिक विभाजन को भरना बहुत मुश्किल है फिर भी बहुत बड़े नुक्सान को रोकने के लिए उपाय शुरू हो गए हैं.
केन्या ने 2010 में नए संविधान के जरिए निचली सरकारों
की ताकत बढ़ाई ताकि केंद्र की सत्ता पर काबिज होने के लिए विभाजन की राजनीति पर रोक
लगाई जा सके.
अमेरिका के राज्य मेन ने 2016 में नई वोटिंग प्रणाली के जरिए नकारात्मक
प्रचार रोकने और मध्यमार्गी प्रत्याशी चुनने का विकल्प दिया है. इक्वाडोर के राष्ट्रपति लेनिन मॉरेनो ने अपने पूर्ववर्ती राष्ट्रपति के विभाजक
राजनैतिक फैसलों को वापस लेकर लोकतंत्र की मरम्मत करने कोशिश
की है.
जीएसटी और कृषि
कानूनों पर केंद्र और राज्य के बीच सीधा व संवैधानिक टकराव सबूत है कि
भारत में यह विभाजन बुरी तरह गहरा चुका है. बिहार चुनाव के बाद
यह आग और भड़कने वाली है. भारत को जिस वक्त मंदी से निजात और रोजगार के लिए असंख्य फैसलों पर व्यापक राजनैतिक सर्वानुमति की दरकार
है तब यह राजनैतिक टकराव लोकतंत्र की संस्थाओं में पैठकर न्याय, समानता, पारदर्शिता, संवेदनशीलता जैसे बुनियादी दायित्वों को प्रभावित करने वाला है. इसके चलते सरकारों से मोहभंग को ताकत मिलेगी.
उपाय क्या है? आग लगाने वालों
से इसे बुझाने की उम्मीद निरर्थक है. हमें खुद को बदलना होगा.
प्लेटो कहते थे, अगर हम अपनी सरकार के कामकाज से
बेफिक्र हैं तो नासमझ हमेशा हम पर शासन करते रहेंगे.
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