अगर आप बजट से तर्कसंगत उम्मीदें नहीं
रखते या हकीकतों से गाफिल हैं तो फिर निराश होने की तैयारी रखिए!
क्या कहा वित्त मंत्री बोल चुकी हैं कि यह
बजट अभूतपूर्व होने वाला है?
यकीनन इस बजट को अभूतपूर्व ही होना चाहिए, उससे कम पर काम भी नहीं चलेगा क्योंकि भारत 1952 के बाद सबसे बुरी आर्थिक हालत में है.
यानी कि बीरबल वाली कहानी के मुताबिक
दिल्ली की कड़कड़ाती सर्दी में चंद्रमा से गर्मी मिल जाए या दो मंजिल ऊंची टंगी
हांडी पर खिचड़ी भी पक जाए लेकिन यह बजट पुराने तौर तरीकों और एक दिन की सुर्खियों
से अभूतपूर्व नहीं होगा. कम से कम इस बार तो बजट की पूरी इबारत ही बदलनी होगी
क्योंकि इसे दो ही पैमानों कसा जाएगा:
• क्या
लॉकडाउन में गई नौकरियां बजट के बाद लौटेंगी?
• सरकारी
कर्मियों के डीए से लेकर लाखों निजी कंपनियों में काटे गए वेतन वापस हो जाएंगे.
ऐसा इसलिए कि भारत की अर्थव्यवस्था की
तासीर ही कुछ फर्क है. हमारी अर्थव्यवस्था अमेरिका, ब्रिटेन या यूरोपीय समुदाय की पांत में खड़ी होती है जहां आधे से
ज्यादा जीडीपी (56-57 फीसद) आम लोगों के खपत-खर्च से बनता है.
यह प्रतिशत चीन से करीब दोगुना है.
केंद्र सरकार पूरे साल में जितना खर्च
(कुल बजट 30 लाख करोड़ रुपए) करती है, उतना खर्च आम लोग केवल दो माह में करते हैं. और करीब से देखें तो देश
में होने वाले कुल पूंजी निवेश (जिससे उत्पादन और रोजगार निकलते हैं) में केंद्रीय
बजट का हिस्सा केवल 5 फीसद है, इसलिए बजट से कुछ नहीं हो पाता.
केंद्र और राज्य सरकारें साल में कुल 54 लाख करोड़ रुपए खर्च करते हैं जो जीडीपी का 27 फीसद है. यह खर्च भी तब ही संभव है जब लोगों की जेब में पैसे हों और
वे खर्च करें. इस खपत से वसूला गया टैक्स सरकारों को मनचाहे खर्च करने का मौका
देता है. जो कमी पड़ती है उसके लिए सरकार लोगों की बचत में सेंध लगाती है, यानी बैंकों से कर्ज लेती है.
सरकार ने आत्मनिर्भर पैकेजों के ढोल पीट
लिए लेकिन अर्थव्यवस्था उठ नहीं पाई क्योंकि इस मंदी में अर्थव्यवस्था की बुनियादी
ताकत यानी आम लोगों की खपत 9.5 फीसद
सिकुड़ (बीते साल 5.30 फीसद की बढ़त) गई. कंपनियों के निवेश से
लेकर टैक्स और जीडीपी तक सब कुछ इसी अनुपात में गिरा है.
मंदी दूर करने के लिए वित्त मंत्री को तय
करना होगा कि पहले वे सरकार का बजट ठीक करना चाहती हैं या आम लोगों का और, यकीन मानिए यह चुनाव बहुत आसान नहीं होने वाला.
भारत में सरकार जितनी बड़ी होती जाती है
आम लोगों के बजट उतने ही छोटे होते जाते हैं. मंदी और बेकारी के बीच (सस्ते कच्चे
तेल के बावजूद) केंद्र सरकार ने सड़क-पुल बनाने के वास्ते पेट्रोल-डीजल महंगे नहीं
किए बल्कि वह अपने दैत्याकार खर्च के लिए हमें निचोड़ रही है. केंद्र का 75 फीसद खर्च (रक्षा, सब्सिडी, कर्ज पर ब्याज, वेतन-पेंशन)
तो ऐसा है जिस पर कैंची चलाना असंभव है.
मंदी तो आम लोगों का बजट ठीक होने से दूर
होगी. यानी कि लोगों के हाथ में ज्यादा पैसा छोडऩा होगा या पेट्रोल-डीजल सस्ता
करना होगा, बड़े पैमाने पर टैक्स घटाना होगा.
लेकिन सतर्क रहिए हालात कुछ ऐसे हैं कि
अपने बजट की खातिर सरकार हमारा बजट बिगाड़ सकती है. यानी कि कोरोना या जीएसटी सेस
लगाया जा सकता है. ऊंची आय वालों पर इनकम टैक्स और पूंजी लाभ कर दर बढ़ सकती है.
मुसीबत यह है कि सरकार अपने खर्च के
जुगाड़ के लिए टैक्स आदि थोपने के बाद भी व्यापक खपत को रियायत नहीं देती.
रियायतें कंपनियों को मिलती हैं, जिन्होंने
मंदी में दिखा दिया कि वे रियायतों को मुनाफे में बदलती हैं, रोजगार और मांग में नहीं.
याद रहे कि पिछले बजट भी कमजोर नहीं थे
इसलिए 2016 में अर्थव्यवस्था गिरी तो गिरती चली गई.
भारतीय बजट आंख पर पट्टी बांधे व्यक्ति की तरह चुनिंदा हाथों में पैसा रखते-उठाते
रहते हैं, बीते एक साल में यही हुआ है. मदद
बेरोजगारों को चाहिए थी और विटामिन कंपनियों को दिया गया. लोगों की जेब में पैसे
बचने चाहिए थे तो टैक्स बढ़ाकर पेट्रोल-डीजल खौला दिए गए इसलिए लॉकाडाउन हटने के
बाद महंगाई और बेरोजगारी गहरा गए.
बीते एक बरस में मंदी दूर करने की सभी
कोशिशें हो चुकी हैं. बजट आंकड़े खुली किताब हैं. बड़ी योजनाओं पर खर्च तो दूर, ऐक्ट ऑफ गॉड की शिकार केंद्र सरकार के पास राज्यों को टैक्स में
हिस्सा देने के संसाधन भी नहीं हैं. इसलिए बजट को केवल अधिक से अधिक लोगों की आय
में सीधी बढ़त पर केंद्रित करना होगा. महामंदी से जंग लोगों को लडऩी है. अगले एक
साल में करोड़ों परिवारों का बजट नहीं सुधरा तो मंदी का इलाज तो दूर, संसाधनों की कमी से सरकार के कई अनिवार्य खर्च भी संकट में फंस
जाएंगे.
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