बीती सदियों में दुनिया की प्रेरणा रहा
अमेरिका 21वीं सदी में नसीहतों का अनोखी पाठशाला बन
गया है. बीते दशक में उसने दुनिया को वित्तीय सबक दिए थे तो इस बार वह लोकतंत्र और
गवर्नेंस के सबक की सबसे कीमती किताब बन गया है.
गवर्नेंस और लोकतांत्रिक संस्थाओं पर बात
करते हुए भले ही हमें उबासी आती हो लेकिन असफल राजव्यवस्था (फेल्ड स्टेट) और
अफरातफरी के बीच थोड़ा वक्त गुजारते ही सरकारी संस्थाओं से उम्मीद और भरोसे का
मतलब समझ में आ जाता है. कोविड की महामारी और अमेरिकी चुनाव नतीजों ने पूरी दुनिया
की संस्थाओं से अपेक्षा और उन पर विश्वास के नए अर्थ दिए हैं.
बाइडन के शपथ ग्रहण पर हमें अमेरिका के दो
चेहरे नजर आए. एक तरफ महामारी के सामने बिखर जाने वाला दुनिया का सबसे समृद्ध और
ताकतवर मुल्क और दूसरी तरफ ऐसा देश जिसकी संस्थाओं ने सिरफिरे राष्ट्रपति की सभी
कुटिल कोशिशों के बावजूद लोकतंत्र को बिखरने बचा लिया.
तकनीक संपन्न अमेरिका का कोरोना के सामने
बिखर जाना आश्चर्यजनक था जबकि जर्मनी, फिनलैंड, आइसलैंड, डेनमार्क, नॉर्वे, न्यूजीलैंड, ताइवान (सभी में महिला नेतृत्व) ने महामारी का सामना बेहतर तरीके से
किया. लैटिन अमेरिका में ब्राजील और मेक्सिको का बुरा हाल हुआ लेकिन उरुग्वे व
कोस्टारिका जैसे देश संभले रहे.
वर्ल्ड गवर्नेंस इंडिकेटर (विश्व बैंक)
बताता है कि पारदर्शिता और सरकारी व्यवस्था के उत्तरदायित्व के पैमानों पर, बीते दशकों में अमेरिका की रैंकिंग (29वें और भ्रष्टाचार में 25वीं)
लगातार गिरी है, जबकि जर्मनी और नॉर्डिक देश बेहतर रैंकिंग
हासिल करते रहे.
अमेरिका में सरकारी संस्थाओं का क्षरण तो
तेज रहा लेकिन ट्रंप के भरसक विध्वंस के बावजूद अमेरिका की लोकतांत्रिक संस्थाएं
टिकी रहीं और संक्रमण को संभाल लेंगे गईं.
वायरस के सामने कुछ देश मजबूत और आधुनिक
नए प्रयोगों से लैस नजर आए और कुछ पूरी तरह बिखरते हुए. जैसे कि कनाडा ने महामारी
के दौरान अपने अस्सी साल पुराने स्किल डेवलपमेंट कार्यक्रम (1940) को पूरी तरह बदल दिया. इटली ने करीब पांच
लाख परिवारों को चाइल्डकेयर की सुविधा उपलब्ध कराई. डेनमार्क ने नौकरियां गंवाने
की कगार पर खड़े 90 फीसद लोगों को वेतन दिया. ब्रिटेन निजी
कर्मचारियों के 80 फीसद औसत वेतन सरकारी मदद से संरक्षित
किए.
इनके विपरीत भारत को दुनिया का सबसे लंबा
लॉकडाउन लगाकर 1952 के बाद सबसे बुरी आर्थिक चोट इसलिए
आमंत्रित करनी पड़ी क्योंकि हमारी व्यवस्थाएं महामारी में टिकने या खुद को तेजी
से बदलने की क्षमता नहीं रखती थीं. भारत में सरकार ने प्लेग काल (1897) के महामारी कानून के सहारे ताकत तो समेट
ली लेकिन तरीके नहीं बदले इसलिए मंदी के मारों को नीतिगत और आर्थिक मदद प्रभावी
नहीं हो सकी.
कोविड ने बताया कि जिन देशों में
लोकतांत्रिक संस्थाओं का ढांचा मजबूत व पारदर्शी था, संस्थाओं व समुदाय के बीच गहरा तालमेल था, सरकारें सच का सामना कर रही थीं, वहां कोविड से लडऩे में सफलता मिली और मुश्किलों से निबटने के नए
तरीके ईजाद हुए. सरकारी कर्ज और घाटे सभी जगह बढ़े लेकिन कुछ सरकारों ने संसाधनों
को सेहत और जीविका बचाने पर केंद्रित किया और नतीजे हासिल किए.
इतिहास कहता है कि बड़े बदलाव बड़ी
राजनैतिक अफरातफरी से निकलते हैं. रूस में जार युग के पतन के बाद (इटली-जर्मनी तक)
ने बदलावों का एक दौर चला जो विश्व युद्ध के बाद लोकतंत्रों की वापसी और विश्व
सहमति की स्थापना के बाद ही खत्म हुआ. महमारियां भी कम बड़े बदलाव नहीं लातीं.
टायफायड न फैला होता स्पार्टा को एथेंस पर जीत (30 बीसी) न मिलती. रोमन लड़कर नहीं मरे. उनका पतन प्लेग (तीसरी सदी) से
हुआ था. छोटी चेचक माया और इंका सभ्यताओं को निगल गई और 14वीं सदी
के प्लेग ने यूरोप की सामंती प्रणाली को ध्वस्त कर औद्योगीकरण की राह खोली.
फिर क्या अचरज कि बाइडन की जीत से दुनिया
में लोकतांत्रिक संस्थाओं की मजबूती के नए राजनैतिक अभियान की शुरुआत हो और
महामारी के सबक विश्व में सरकारों के कामकाज के तरीके बदल दें.
सत्तर वर्षीय गणतंत्र वाले भारतीय अगर
अमेरिका की उथल-पुथल और महामारी से कुछ सीखना चाहें तो उन्हें क्या करना होगा? उन्हें पलट कर यह देखना होगा जब भारत अपने इतिहास की सबसे बड़ी आपदा
से जूझ रहा था तब उसके गणतंत्र की संस्थाएं क्या कर रही थीं? सड़कों पर भटकते मजदूरों को देखकर संसद-विधानसभाओं में सरकार से कितने
सवाल किए गए? सबसे बड़ी अदालत किसे न्याय दे रही थी? क्या नियामक यह जांच रहे थे कि राहतों का काम पारदर्शी ढंग से हो रहा
है?
बीते एक साल ने हमें सिखाया है कि
ताकतवर नेतृत्व,
अकूत संसाधन, भीमकाय व्यवस्थाएं कुछ नहीं हैं. जिन
देशों की संस्थाएं मजबूत व पारदर्शी थीं उन्होंने लोगों की जिंदगी और लोकतंत्र
दोनों की रक्षा की है. यह वक्त है जब हम अपनी संवैधानिक संस्थाओं जैसे संसद, विधानसभाओं, अदालतों, नियामकों, विकेंद्रीकरण के बारे में सोचें
क्योंकि इनकी परीक्षा का मौका कभी भी आ सकता है.
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