यह जो आपदा में अवसर नाम का मुहावरा है न, इसका मुलम्मा चाहे बिल्कुल उतर चुका हो लेकिन फिर भी आपदाओं को सलाम कि वे अवसर बनाने की ड्यूटी से नहीं चूकतीं.
आपको वैक्सीन कब तक मिलेगी और किस कीमत पर यह इस पर निर्भर
होगा कि भारत का कल्याणकारी राज्य कितना कामयाब है?
वेलफेयर स्टेट के लिए यह दूसरा मौका है. पहला अवसर
बुरी तरह गंवाया गया था जब लाखों प्रवासी मजदूर पैदल गिरते-पड़ते
घर पहुंचे थे और स्कीमों-संसाधनों से लंदी-फंदी सरकार इस त्रासदी को केवल ताकती रह गई थी.
विज्ञान और फार्मा उद्योग अपना काम कर चुके हैं. ताजा इतिहास में दुनिया का सबसे बड़ा
सामूहिक वैक्सिनेशन या स्वास्थ्य परियोजना शुरू हो रही है. सवाल
दो हैं कि एक, अधिकांश लोगों को आसानी
से वैक्सीन कब तक मिलेगी और दूसरा, किस कीमत पर?
इनके जवाब के लिए हमें वैक्सीन राष्ट्रवाद से बाहर निकल
कर वास्तविकता को समझना जरूरी
है, ताकि वैक्सीन पाने की बेताबी को संभालते हुए हम यह जान सकें
कि भारत कब तक सुरक्षित होकर आर्थिक मुख्यधारा
में लौट सकेगा.
• क्रेडिट सुइस
के अध्ययन के मुताबिक, भारत को करीब 1.66 अरब खुराकों की जरूरत है.
• विज्ञान और उद्योग ने वैक्सीन प्रोजेक्ट
पूरा कर लिया है. भारत में करीब 2.4 अरब
खुराकें बनाने की क्षमता है. इसके अलावा सिरिंज, वॉयल, गॉज आदि की क्षमता भी पर्याप्त है. पांच कंपनियां (अरबिंदो फार्मा, भारत बायोटेक, सीरम इंस्टीट्यूट, कैडिला और बायोलॉजिकल ई) इसका
उत्पादन शुरू कर चुकी हैं. भारत के पास उत्पादन की क्षमता मांग
से ज्यादा है. अतिरिक्त उत्पादन निर्यात के लिए है.
• जब पर्याप्त वैक्सीन है तो समस्या क्या?
सबसे बड़ी चुनौती वितरण तंत्र की है. जिन वैक्सीनों
का प्रयोग भारत में होना है उन्हें 2 से -8 डिग्री पर सुरक्षित किया जाना है. चार कंपनियां, स्नोमैन, गति
कौसर, टीसीआइएल और फ्यूचर सप्लाइ चेन के पास यह
कोल्ड स्टोरेज और परिहवन की क्षमता है. लेकिन वे अधिकतम 55 करोड़ खुराकों का वितरण संभाल सकती हैं जो भारत
की कुल मांग के आधे से कम है.
यह कंपनियां टीकाकरण के अन्य कार्यक्रमों को सुविधाएं
उपलब्ध कराती हैं. वितरण
की क्षमता बढ़ाए जाने की गुंजाइश कम है क्योंकि कोविड के बाद यह क्षमता बेकार हो जाएगी.
अगर सब कुछ ठीक चला तो भी इस साल भारत में 40 से
50 करोड़ लोगों तक वैक्सीन पहुंचना मुश्किल होगा.
► सरकारी और निजी आकलन बतात है कि वैक्सीन
देने (दो खुराक) के लिए सरकारी व निजी स्वास्थ्य
नेटवर्क के करीब एक करोड़ कर्मचारियों की जरूरत होगी. यानी नियमित
स्वास्थ्य सेवाओं के बीच वैक्सीन के लिए लंबी कतारों की तैयारी कर लीजिए.
► टीका लगने के बाद बात खत्म नहीं होती.
उसके बाद ऐंटीबॉडी की जांच कोरोना वैक्सीन के शास्त्र का हिस्सा है.
यानी फिर पैथोलॉजिकल क्षमताओं की चुनौती से रू-ब-रू होना पड़ेगा.
भारत के मौजूदा वैक्सीन कार्यक्रम बच्चों के लिए हैं
और सीमित व क्रमबद्ध ढंग से चलते हैं.
यह पहला सामूहिक एडल्ट वैक्सीन कार्यक्रम है जिसमें कीमत और वितरण की
चुनौती एक-दूसरे से गुंथी हुई हैं. यदि
सरकार बड़े पैमाने पर खुद सस्ती वैक्सीन बांटती है तो वितरण की लागत उसे उठानी होगी.
भारी बजट चाहिए यानी सबको वैक्सीन मिलने में लंबा वक्त लगेगा.
सब्सिडी के बगैर वितरण लागत सहित दो खुराकों की
कीमत करीब 5,000 रुपए तक होगी, हालांकि
वितरण तंत्र पर्याप्त नहीं है. यानी कोरोना की संजीवनी उतनी नजदीक
नहीं है जितना बताया जा रहा है.
स्वास्थ्यकर्मियों के बाद वैक्सीन पाने के लिए 50 साल से अधिक
उम्र के लोगों के चुनने के पैमाने में पारदर्शिता जरूरी है.
वैक्सीन वितरण को भारत के ‘वीआइपी पहले’
से बचाना आसान नहीं होगा.
मुमकिन है कि क्षमताओं व संसाधनों की कमी से मुकाबिल सरकार यह कहती सुनी जाए
कि सबको वैक्सीन की जरूरत ही नहीं है लेकिन उस दावे पर भरोसा करने से पहले यह जान लीजिएगा
कि भारत में कोविड पॉजिटिव का आंकड़ा संक्रमण की सही तस्वीर नहीं दिखाता है.
अगस्त से सितंबर के बीच 21 राज्यों के 70 जिलों में हुए सीरो सर्वे के मुताबिक,
कोविड संक्रमण, घोषित मामलों
से 25 गुना ज्यादा हो सकता है. यानी वैक्सीन
की सुरक्षा का कोई विकल्प नहीं है.
भारत की वैक्सीन वितरण योजना को अति अपेक्षा, राजनीति
और लोकलुभावनवाद से बचना होगा. यह कार्यक्रम लंबा और कठिन है.
सनद रहे कि केवल 27 करोड़ की आबादी वाला इंडोनेशिया अगले साल मार्च तक अपने 50 फीसद लोगों को टीका लगा
पाएगा.
हमें याद रखना चाहिए कि भारत अनोखी व्यवस्थाओं वाला देश
है जो कुंभ मेले जैसे बड़े आयोजन तो सफलता से कर लेता है लेकिन लाखों प्रवासी श्रमिकों
को घर नहीं पहुंचा पाता या सबको साफ पानी या दवा नहीं दे पाता. इसलिए वैक्सीन मिलने तक 2020
को याद रखने में ही भलाई है.
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