यूक्रेन पर रुस के हमले बाद बाजारों का हाल देखकर निकोलस और डैनियल चढ़ गए पहाड़ पर.
नीचे तलहटी में 140 डॉलर
प्रति बैरल के कच्चे तेल की कौआ-रोर मची थी. गोल्डमैन ने सैक्शे ब्रेंट क्रूड
पर 185 डॉलर की कीमत का दांव लगा चुका था. लंदन के हेज फंड वेस्टबेक कैपिटन ने तो
कच्चे तेल 200 डॉलर की मंजिल तक जाता देख लिया.
निकोलस और डैनियल दोनों सयाने निवेशक हैं वे दूर की देखना जानते हैं. दूरबीनों से
उन्होंने अंदाज लगाया, नोट्स
बनाये, और पता
चला कि दोनों के पास एक जैसे आंकड़े थे.
बस वे फुर्ती से रोप वे पकड़कर नीचे आ गए.
लेकिन यह क्या नीचे उतरते ही डैनियल ने आनन फानन में तांबे यानी
कॉपर के फ्यूचर्स की महंगाई पर दांव लगा दिया. कुछ पैसा उन्होंने नेचुरल गैस की पाइपलाइन
बिछाने वाली कंपनियों और ग्रीन हाइड्रोजन तकनीक वाली कंपनियों में लगा दिया.
इधर निक ने ब्रेंट का फ्यूचर्स खरीद लिया. तेल महंगा होने पर
पूंजी लगा दी. मोर्गन ने उन्हीं तेल कंपनियों में अपने निवेश को और बढ़ा दिया, जो रुस छोड़ कर निकली हैं और
उन्हें फिलहाल नुकसान हुआ है.
निकोलस मान रहे हैं कि उनकी किस्मत से 80 से 100 डॉलर प्रति बैरल
वाले तेल के खेल को नई उम्र लग गई है. तेल की यह तेजी जल्दी नहीं जाने वाली. सो
मौका है चौके पर चौका लगाने का
डेनियल भी मानते हैं कि निकोलस का फार्मूला जब तक काम करेगा यानी
तेल खौलता रहेगा उनके लिए मौका ही मौका होगा. अलबत्ता लेकिन उन्होंने तांबे का
फ्यूचर्स क्यों खरीद डाला इस पर आगे बात करेंगे पहले देखें कि निकोलस और डैनियल
को तेल की तेजी टिकाऊ क्यों लग रही है या कि वे एसा क्यों मान रहे हैं कि दुनिया
100 डॉलर प्रति बैरल का तेल बर्दाश्त कर सकती है
निकोलस का दांव पहली ही चोट में सटीक बैठा. जब दुनिया भर के
ज्ञानी कह रहे थे कि तेल की महंगाई के बाद अब ओपेक पर उत्पादन बढ़ाने का दबाव
बनाया जाएगा. अमेरिका और यूरोप मध्य पूर्व के देशों का हुक्का पानी बंद कर देंगे
तब सऊदी अरब ने दुनिया के सभी बाजारों के लिए शुक्रवार 4 मार्च को कच्चे तेल की
कीमत बढ़ा दी. इससे पहले ट्यूनीसिया एक माह से कम समय में दो बार तेल की कीमत
बढ़ा चुका है.
उम्मीद तो यह थी ऊर्जा बाजार में लगी आग के बाद 23 तेल उत्पादक
देशों के कार्टेल ओपेक उत्पादन बढ़ायेगा ताकि कीमतें कम हों लेकिन यहां तो
कीमतें बढ़ा दी गईं. सऊदी अरब जो ओपेक के तेल उत्पादन में 30 फीसदी हिस्सा रखता
है. जो मांग आपूर्ति के हिसाब उत्पादन घटाने बढ़ाने की क्षमता रखता है यानी स्विंग
प्रोड्यूसर है रुसी आपूर्ति टूटने से तेल में लगी महंगाई की आग में कीमत बढ़ाने का
पेट्रोल छिड़क दिया.
निकोलस ने वह आंकड़े पढ़ रखे हैं जिनको देखकर तेल की कीमतों और
उत्पादन के रिश्ते का भ्रम हो जाता है. यकीनन दुनिया का 60 फीसदी तेल उत्पादन
ओपेक देशों से बाहर है. यह अमेरिका, नॉर्थ सी ओर पुराने सोवियत के अलग हुए देशों के पास है.
तेल खौलना शुरु हुआ तो बहुतों ने दावा किया कि गैर ओपेक देश अपना
उत्पादन बढ़ायेंगे और ओपेक वालों को घुटने पर लाएंगे. यह सुनकर मोर्गन मुस्करा
दिये थे
इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी के वर्गीकरण में गैर ओपेक देश आमतौर पर
प्राइस टेकर्स माने जाते हैं. वे कीमतों का फायदा उठाते हैं कीमतें प्रभावित नहीं
करते. इन देशों उत्पादन अपनी पूरी क्षमता पर हैं इसलिए मांग व आपूर्ति का अंतर
ओपेक देश पूरा करते हैं. ओपेक कीमत प्रभावित करता है यानी प्राइस इन्फ्लुऐंसर है.
गैर ओपेक मुल्कों को उत्पादन की लागत ज्यादा है. वे तेल के साथ
लिक्विड नेचुरल गैस (एनजीएल) के उत्पादन तो ज्यादा तवज्जो देते हैं इसलिए बात
जब कच्चे तेल की होते ओपेक का कार्टेल ही राजा है.
निकोलस जैसे निवेशक बखूबी यह जानते हैं कि प्राइस टेकर्स होने के
कारण कीमतें बढ़ने का लाभ अमेरिका जैसे तेल उत्पादकों को खूब मिलता है इसलिए तेल
बाजार में बहुत कुछ बदलता नहीं. इस बार भी भी नहीं बदला और कीमतें अपने आप ही नीचे
आएंगी
निकोलस के पास एक गज़ब का आंकडा है जिसने उन्हें तेल फ्यूचर्स
में निवेश बढ़ाने का आधार दिया है. जे पी मोर्गन का एक अध्ययन बताता है कि 2010
से 2015 के बीच कच्चे तेल कीमत औसत 100 डॉलर के आसपास रही लेकिन दुनिया में कोई
संकट नहीं आया. अर्थव्यवस्थायें बढ़ती रहीं. इस आधार पर अन्य एसेट, महंगाई वेतन आदि की बढ़त की
तुलना में देखने पर दुनिया 130 डॉलर प्रति बैरल तक का तेल बर्दाश्त कर लेगी.
निकोलस चार्ट देखकर बताते हैं कि एमएससीआई वर्ल्ड इंडेक्स के
अनुसार बीते 2011 के बाद एक दशक में दुनिया में शेयर कीमत 125 फीसदी और अचल संपत्ति
की कीमत दोगुनी हो गई लेकिन ब्रेंट फ्यूचर्स दस फीसद के नुकसान में हैं
यानी कच्चा तेल तो अभी भी बहुत सस्ता है !
बैंक ऑफ अमेरिका का एक अध्ययन भी कहता है कि दुनिया में मुश्किल
तब आती है जब ऊर्जा की लागत ग्लोबल जीडीपी की 8 फीसदी हो जाए अभी ता यह छह फीसदी
पर है तो इसलिए बाजारों को बहुत फर्क नहीं पड़ेगा
निकोलस को पता है कि 2014 में ओपेक देशों ने अपनी पुरानी परिपाटी
छोड़कर कीमतों को एक निर्धारित ऊंचे स्तर बनाये रखने का फैसला किया था ताकि
बाजार बचा रहे. एसा इसलिए क्यों कि तेल का इस्तेमाल अब घट रहा है. ऊर्जा के अन्य
स्रोत बड़ी जरुरतें पूरी कर रहे हैं. ओपेक देशों के पास तेल के अलावा कुछ नहीं है
जबकि गैर ओपेक देश बहुत आयामी अर्थव्यवस्थायें हैं.
ओपेक देशों पास दो तीन दशक का समय है इस बीच उन्हें अधिकतम कमाई
कर अपनी अर्थव्यवस्थाओं के लिए नए विकल्प तलाशने होंगे क्यों कि तेल परिवहन
ईंधन मात्र रह गया है और यहां भी इलेक्ट्रिक वाहनों के साथ माहौल बदलने वाला है.
अब यहां से हम डैनियल से मिलते हैं. उन्होंने तांबे का फ्यूचर्स
इसलिए खरीदा कि दुनिया में इलेक्ट्रिक या बैटरी वाहनों के बिजली की क्षमता बढ़ाई जा रही है. जहां तांबा मुख्य
कच्चा माल है. निकोलस की तरह डैनियल का दांव भी सटीक बैठा. तांबे की कीमतों 7
मार्च को बाजार में नई ऊंचाई नाप ली.
डैनियल दरसअल निकोलस से पूरी तरह इत्तिफाक कर रहे हैं. ओपेक तेल
की महंगाई को बढ़ाये रखने पर मजबूर है क्यों यह जितनी तेज रहेगी. वैकल्पिक उर्जा
पर निवेश उतना ही तेज बढेगा और डैनियल कमाई
का भविष्य चमकता जाएगा.
डैनियल को पता है बाकी तो यह ओपेक देशों की आखिरी यल़गार है. तेल इकोनॉमी अपने अंतिम चरण में है. कोलंबिया
यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर ग्लेाबल एनर्जी पॉलिसी की एक रिपोर्ट बताती है कि 1973
से 2019 के बीच विश्व के जीडीपी की तेल पर निर्भरता यानी ऑयल इंटेंसिटी 56 फीसदी
कम हुई. ऑयल इंटेंसिटी यानी एक यूनिट जीडीपी उत्पादन लगने वाली तेल की मात्रा.
यानी अगर 1973 में एक बैरल तेल से 1000 डॉलर का उत्पादन होता था तब उतना ही उत्पादन आधा
बैरल से हो जाता है
इसकी बड़ी वजह है कि बिजली उत्पादन में अब तेल का इस्तेमाल बहुत
कम हो चुका है. वहां गैस और कोयला है. परिवहन के लिए इसका इस्तेमाल अभी भी है लेकिन
आटोमोबाइल इंजन की तकनीकों के वकिास से वाहनों का माईलेज बढ़ा है और तेल की खपत
घटी है.
दुनिया की ऊर्जा खपत में तेल का हिस्सा 1970 में करीब 50 फीसदी
था जो अब 28 फीसदी रह गया है. आईईए के अनुसार 2030 तक यह कम होकर 22 फीसदी रह
जाएगा. इसी क्रम में वैकल्पिक उर्जा का हिस्सा 12 फीसदी से बढ़कर 2030 तक 19 और
2050 तक 37 फीसदी हो जाएगा.
दरअसल निकोलस और डैनियल अप्रैल 2020 कोविड के दौरान इसी तरह पहाड़
चढ़े थे. तब अमेरिका वाले तेल यानी डब्लूटीआई कीमतें नेगेटिव हो गई थीं, ब्रेंट भी टूटकर दस डॉलर पर
आ गया.
निकोलस को तेल इकोनॉमी डूबती लग रही थी और डैनियल को लग रहा था कि
अब कौन खरीदेगा इलेक्ट्रिक वेहकिल जब तेल मुफ्त मिलेगा
निकोलस नसीम तालेब का सूत्र है कि यदि कोई बात आपको तर्कसंगत नहीं
यानी बेसिर पैर लगती है मगर वह लंबे समय
से जारी है तो बहुम मुमकिन है कि तर्कसंगत यानी रेशनलटी को लेकर आपकी परिभाषा ही
गलत हो
उधर यूक्रेन पर बम बरस रहे हैं लेकिन अब तेल बाजार वाले मुतमइन हैं
कि अगले एक साल तक तेल 80 से 100 डॉलर के बीच झूलता रहेगा. दुनिया को लंबी ऊर्जा
महंगाई लिए तैयार रहना चाहिए क्यों कि तेल के साथ जो गैस व कोयला भी महंगे हो
रहे हैं
भारतीय अपनी पीठ और ज्यादा मजबूत रखें क्यों कि यहां मुसीबत ज्यादा
पेचीदा है. मुद्रा कमजोर हैं. डॉलर मूल्य में भारत के लिए ब्रेंट करीब 70 फीसदी
महंगा हो गया है..
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