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Sunday, June 19, 2022

हम थे जिनके सहारे



 

राज्‍यों के अगले चुनाव दिल्‍ली के लिए अगला रोमांच हैं. लेक‍िन मुंबई गहरी मुश्‍क‍िल में है या यानी  कैच 22 में . मुंबई से मतलब है शेयर बाजार, सेबी, रिजर्व बैंक कंपनियों के न‍िवेश की दुनिया. जो दिल्‍ली जैसा कुछ नहीं देख पा रही है.

युद्धों की चर्चा ज़बानों की नोक पर है तो सनद रहे कैच 22 यानी गहरे अंतरविरोध का परिचय देने वाला मुहावरा दरअसल जंग की कथा से न‍िकला था. अमेरिकी उपन्‍यासकार जोसेफ हेलर ने दूसरे विश्‍व युद्ध की पृष्‍ठभूमि में जंग और नौकरशाही पर 1961 में कैच 22 नाम एक व्‍यंग्‍यात्‍मक उपन्‍यास लिखा था

यह कहानी योसेर‍ियन नाम एक लड़ाकू पायलट की थी जो जंग में तैनाती से बचने के लिए खुद को पागल घोष‍ित कर देता है. डॉक्‍टर उसकी जांच करते हैं और रिपोर्ट देते हैं कि युद्ध नहीं करना चाहता तो वह पागल है ही नहीं क्‍यों कि युद्ध के लिए पागलपन पहली शर्त है. यानी कि योसेर‍ियन को अगर खुद को पागल साबित करना है तो उसे जहाज से बम बरसाने थेलेकिन अगर यही करना है तो खुद को    पागल कहलाने से क्‍या फायदा ?

 

क्‍या है कैच 22 मुंबई का

मुंबई यानी व‍ित्‍तीय बाजारों और नियामकों का कैच 22 क्‍या है ?

भारत की ताजा मुसीबतों की जड़ शेयर बाजार है

जिनकी उम्‍मीदें थीं कि कोविड तो गया. अब भारत  तूफान से बाहर निकल आया है उन्‍हें अब यह बाजार एक एसे दुष्‍चक्र का प्रस्‍थान बिंदु लग रहा है  जहां कृपा अटक गई है

आप कहेंगे कुछ ज्‍यादा नहीं हो गया यह आकलन. इतनी विराट  अर्थव्‍यवस्‍था और छोटा सा शेयर बाजार ? भारत के लोगों की कुल बचतों में शेयरों का हिस्‍सा तो केवल 4.8 फीसदी है, एसा जेफ्रीज की एक ताजा रिपोर्ट ने कहा है

यही तो है वह रोमांचक बटरफ्लाई इफेक्‍ट यानी केऑस थ्‍योरी जिसमें एक छोटी सी घटना या बदलाव बड़े तूफान उठा देती है.  एक दूसरे में गहराई से गुंथी बुनी वित्‍तीय दुनिया इस इफेक्‍ट का शानदार नमूना है. शेयर बाजार के छोटे से आकार पर गफलत में रहना ठीक नहीं है बात तित‍िलयों की है तो यहां से कुछ ति‍त‍िलयां पतंगों की उड़ान ने कुछ एसा तूफान उठा दिया है कि दूर जालंधर में मोबाइल रिपेयर वाले परमजीत पुर्जे महंगे होने के कारण दुकान बंद करनी पड़ रही है  

आपका आश्‍चर्य बनता हैं सांसत में तो वित्‍त मंत्री निर्मला सीतारमन भी रहीं हैं, आरबीआई गवर्नर तो बेबाक चौंक रहे हैं

बटरफ्लाई इफेक्‍ट

बटरफ्लाई एफेक्‍ट को समझने के लिए इसकी सूक्ष्‍म शुरुआत को नहीं बल्‍क‍ि बल्‍क‍ि महासागरीय आकार के प्रभाव को देखना चाहिए. जड़ शेयर बाजार में तेज गिरावट, मंदी वाले बाजार की आहट और विदेशी निवेशकों के प्रवास से है लेक‍िन हम रुख करते है भारत की सबसे खतरनाक दरार की ओर. वह है डॉलर के मुकाबले कमजोर होता रुपया जो 78 के करीब है, 80 की मंज‍िल दूर नहीं है. और भारत का टूटता विदेशी मुद्रा भंडार जो अब केवल एक साल के आयात के लिए पर्याप्‍त है.

भारत में विदेशी मुद्रा के प्रमुख स्रोत सामान सेवाओ निर्यात, शेयर बाजार में निवेश और विदेशी पूंजी निवेश (पीई स्‍टार्ट अप) हैं. एक छोटा सा हिससा विदेशी व्‍यक्‍त‍िगत धन प्रेषण आदि का है.   

स्‍टैंडर्ड चार्टर्ड ने अपनी एक ताजा रिपोर्ट में कहा है कि विदेशी मुद्रा भंडार नौ माह के आयात की जरुरत के स्‍तर तक घट सकता है. गिरावट में 45 फीसदी हिस्‍सा डॉलर के मुकाबले रुपये की कमजोरी का है, 30 फीसदी गिरावट रुपये को बचाने में रिजर्व बैंक तरफ झोंके गए डॉलर के कारण आई है जबकि 25 फीसदी कमी आयात की लागत बढने से आई है

चार्ट .. भारत का विदेशी मुद्रा भंडा गिरावट

भारत का विदेशी मुद्रा भंडार 27 मई 2022 को समाप्‍त सप्‍ताह में करीब 597 अरब डॉलर था. वित्‍त वर्ष 2022  भारत का कुल आयात करीब 610 अरब डॉलर रहा और निर्यात करीब 418 अरब डॉलर. यही वजह है कि भारत ने 2022 के वित्‍त वर्ष की समाप्‍ति‍ रिकार्ड 192 अरब डॉलर व्‍यापार घाटे (आयात और निर्यात का अंतर) से की. आयात के बिल की रोशनी में विदेशी मुद्रा भंडार साल भर के आयात से कम है. बाजार से निकलने वाली विदेशी पूंजी और विदेशी कर्ज के भुगतान की जरुरतें अलग से

विदेशी मुद्रा भंडार के हिसाब को एक और बड़ी तस्‍वीर में फिट किया जाता है. ताकि समग्र अर्थव्‍यवस्‍था की ताकत कमजोरी मापी जा सके. यह करेंट अकाउंट डेफश‍िट या सरप्‍लस है. यह किसी देश में विदेशी मुद्रा की आवक निकासी का सबसे बड़ा हिसाब होता है और देश बाहरी मोर्चे पर ताकत कमजोरी का पैमाना. इस घाटे की गणना में सामानों के निर्यात आयात के अलावा, सेवाओं का निर्यात, शेयर बाजार में विदेशी निवेश, विदेशी पूंजी न‍िवेश, विदेश से भेजे गए धन आद‍ि शामिल होते हैं .

कोविड के वर्षों में तो भारत ने इस घाटे को खत्‍म कर दिया था क्‍यों कि आयात बंद थे लेक‍िन अब यह नौ साल की ऊंचाई पर है. यानी करीब 23 अरब डॉलर. दस साल का सबसे ऊंचा स्‍तर दूर नही है.

आयात की तुलना में निर्यात तो कम हैं हीं इसके साथ ही विदेशी निवेश (प्रत्‍यक्ष, स्टार्ट अप, पीई व शेयर बाजार) में जोरदार गिरावट आई. रिजर्व बैंक के आंकड़े के अनुसार अप्रैल फरवरी 2021-22 में यह केवल 24.6 अरब डॉलर रहा हो जो बीते साल इसी अवध‍ि में 80.1 अरब डॉलर था.

ध्‍यान रखना जरुरी है कि विदेशी मुद्रा भंडार की पर्याप्‍तता यानी एक साल के आयात के बराबर होने तक रुपये का गिरना निर्यात को प्रतिस्‍पर्धी बनाता है लेक‍िन यदि भंडार घटने लगे तो रुपये की गिरावट मुसीबत बन जाती है.

रुपये की ताकत का सीधा रिश्‍ता विदेशी मुद्रा भंडार से है. व्‍यापार घाटा और करेंट अकाउंट डेफश‍िट ज‍ितना बढ़ेगा यह भंडार उतना ही घटेगा और रुपये की ताकत छीजती जाएगी. बीते एक करीब छह माह से यही हो रहा है

अब कमजोर रुपये ने कच्‍चे तेल कोयले सहित धातुओं में महंगाई का तूफान ला दिया है. रिजर्व बैंक डॉलर की मांग पूरा करने के लिए विदेशी मुद्रा झोंक रहा है, विदेशी मुद्रा भंडार गिरे रहा है और रुपये पर दबाव बढ़ रहा है. यही है कैच 22 का पहला हिस्‍सा जिसे देखकर मुंबई को ड‍िप्रशन हो रहा है

अब दूसरा हिस्‍सा

 

शुरु से शुरु करें

लौटते हैं शेयर बाजार की तरफ यानी त‍ितल‍ियों की तरफ जो शेयर बाजार से जुड़ी हैं. नोटबंदी से लेकर कोविड की बंदी और मंदी तक

भारत के शेयर बाजार में विदेशी निवेशक रीझ रीझ कर उतरते रहे. उनका निवेश बढ़ता गया और शेयर बाजार चढ़ता गया. क्‍या ही हैरत थी जब कोविड में भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था गहरी मंदी में थी, मौतें हो रही थीं तब विदेश‍ियों का भरोसा बढ़ता गया.

यकीनन शेयर बाजार से बहुतेरे लोगों को बहुत फर्क नहीं पड़ता, पड़े भी क्‍यों लेक‍िन भारत के विदेशी मुद्रा भंडार को इससे बड़ा फर्क पड़ा. अर्थव्‍यवस्‍था में तरह तरह की उठापटक के बीच शेयर बाजार में विदेशी निवेश और विदेशी मुद्रा में बढ़ोत्‍तरी में एक सीधा रि‍श्‍ता दिखता है.

बीते अक्‍टूबर से जब भारत में हालात सुधरने शुरु हुए तब से इन निवेशकों ने बाजार में बेचना शुरु कर दिया. इनकी निकासी के बाद रुपये में गिरावट शुरु हो गई. विदेशी मुद्रा भंडार छीजने लगा. बची हुई कसर महंगे तेल और रिकार्ड व्‍यापार घाटे ने पूरी कर दी.

त‍ितल‍ियो की बेरुखी

विदेशी निवेशक केवल डॉलर नहीं लाते. वे लाते हैं अरबो डॉलर का भरोसा. इसलिए क्‍यों कि वे भारत की आर्थि‍क भव‍िष्‍य पर दांव लगा रहे थे. महमारी की घोर मंदी में भी उनका निवेश सूखा नहीं क्‍यों कि वापसी की उम्‍मीद थी.

तो अब क्‍या हो रहा है?

भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था को लेकर पैमाना बदल रहा है. पूंजी की लागत बढ रही है जबकि भारत की विकास दर के आकलन गिर रहे हैं. यदि अगले कुछ साल में भारत की महंगाई रहित शुद्ध विकास दर  5-6 फीसदी रहती है तो इक्‍व‍िटी पर 10-11 फीसदी से ज्‍शदा रिटर्न मुश्‍क‍िल है. शेयर बाजार में कुछ अच्‍छी कंपनियां रहेंगी अलबत्‍ता लेक‍िन वह महंगी भी होंगी. अर्थव्‍यवस्‍था जब तक 13-14 फीसदी की महंगाई सहित दर विकास दर दर्ज नहीं करती भारत की एक तिहाई आबादी की कमाई और मांग नहीं बढ़ेगी और न ही उत्‍पादों का बाजार और कंपनियों के मुनाफे

रुपया विदेशी मुद्रा भंडार और महंगाई के साझा समाधान के लिए अगर सरकार को कोई एक दुआ मांगनी हो तो  वह यही होनी चाहिए कि क‍िसी तरह शेयर बाजार दौड़ने लगे.  विदेशी निवेशक वापस कर लें. उनकी पूंजी आई तो रुपये की ढलान रुकेगी. आयाति‍त मंहगाई कम होगी. अर्थव्‍यवस्‍था में भरोसा आएगा. घरेलू निवेशकों के छोटे निवेश बाजार को ढहने नहीं देंगी लेक‍िन बाजार को दौड़ाने की दम इस निवेश में नहीं है. लेक‍िन इसके भारत की सरकार को सब कुछ छोड़ कर अर्थव्‍यवस्‍था को ढलान रोकने का अनुष्‍ठान करना होगा जो जैसा कि 1991 में या 2008 के लीमैन संकट के वक्‍त हुआ था. विदेशी ताकत के मोर्च पर भारत या श्रीलंका पाकिस्‍तान में सबसे बड़ा फर्क यह है कि गैर इमर्जिंग अर्थव्‍यवस्‍थाओं में विकास दर भले ही तेज हो लेक‍िन यहा कैपिटल मार्केट नहीं है, निर्यात के अलावा गैर कर्ज वाली विदेशी पूंजी के स्रोत नहीं है इसलिए यह हमेशा खतरे में होंती हैं और आईएमएफ की मोहताज हैं

भारत इ‍मर्ज‍िंग इकोनॉमी इसलिए है क्‍यों क‍ि यहां डॉलरों की एक और पाइपलाइन खुलती है जो शेयर बाजार में आती है और हमें सुरक्षि‍त करती है. यह पूंजी भविष्‍य पर ग्‍लोबल भरोसे का प्रमाण है.

शेयर बाजार में बेयर ट्रैप या मंदी की भविष्‍यवाण‍ियां तैर रही हैं. अर्थव्‍यवस्‍था विदेशी निवेशकों की वापसी बर्दाश्‍त नहीं कर सकता. क्‍यों कि  आयात निर्यात वाले मुद्रा भंडार के मामले में दुन‍िया से बहुत फर्क नहीं है

 

 


Monday, February 7, 2022

क्‍या से क्‍या हो गया !

 




महंगाई का आंकड़ा चाहे जो कलाबाजी दिखाये लेकिन क्‍या आपने ध्‍यान दिया है कि बीते छह सात सालों से इलेक्‍ट्रानिक्‍स, बिजली के सामान,आटो पुर्जों और भी कई तरह जरुरी चीजें लगातार महंगी होती जा रही हैं.

यह महंगाई पूरी तरह  प्रायोज‍ित है और नीतिगत है. भारत की सरकार जिद के साथ महंगाई का आयात कर रही है यानी इंपोर्टेड महंगाई हमें बुरी तरह कुचल रही है. आने वाले बजट में एक बार फिर कई चीजों पर कस्‍टम ड्यूटी बढाये जाने के संकेत हैं. इनमें स्‍टील और इलेक्‍ट्रानिक्‍स यानी पूरी की पूरी सप्‍लाई चेन महंगी हो सकती है.

यह चाबुक हम पर क्‍यों चल रहा है ,बजट से पहले इसे समझना बहुत जरुरी है.

नई  पहचान

भारत की यह नई पहचान परेशान करने वाली है.  भारत को व्‍यापार‍िक दरवाजे बंद करने वाले, आयात शुल्‍क बढ़ाने वाले और संरंक्षणवादी देश के तौर पर संबोध‍ित कि‍या जा रहा है. देशी उद्योगों के संरंक्षण के नाम पर भारत की सरकार ने 2014 से कस्‍टम ड्यूटी बढ़ाने का अभि‍यान शुरु कर दिया था. इस कवायद से कितनी आत्‍मनिर्भरता आई इसका कोई हिसाब सरकार ने नहीं दिया अलबत्‍ता भारत सरकार की इस  कच्‍छप मुद्रा, छोटे  उद्येागों का कमर तोड़ दी और अब उपभोक्‍ताओं का जीना मुहाल कर रही है

2022 के बजट दस्‍तावेज के मुताबिक एनडीए सरकार ने बीते छह बरस में भारत के करीब एक तिहाई आयातों यानी टैरिफ लाइन्‍स पर बेसिक कस्‍टम ड्यूटी बढ़ाई . यानी करीब 4000 टैरिफ लाइंस पर सीमा शुल्‍क बढ़ा या उन्‍हें महंगा किया गया. टैरिफ लाइन का मतलब वह सीमा शुल्‍क दर जो किसी एक या अध‍िक सामानों पर लागू होती है.

इस बढ़ोत्‍तरी का नतीजा था कि उन देशों से आयात बढ़ने लगा जिनके साथ भारत का मुक्‍त व्‍यापार समझौता है या फिर व्‍यापार वरीयता की संध‍ियां है. सरकार ने और सख्‍ती की ताकि संध‍ि वाले इन देशों के रास्‍ते अन्‍य देशों का सामान  न आने लगे. करीब 80 सामानों पर कस्‍टम ड्यूटी रियायत खत्‍म की गई और 400 से अध‍िक अन्‍य सीमा शुल्‍क प्रोत्‍साहन रद कर दिये गए.

डब्लूटीओ की रिपोर्ट के अनुसार 2019 तक भारत में औसत सीमा शुल्‍क या कस्‍टम ड्यूटी दर 17.6 फीसदी हो गई थी जो कि 2014 में 13.5 फीसदी थी. जब ट्रेड वेटेड एवरेज सीमा शुल्‍क जो 2014 में केवल 7 फीसदी था वह 2018 में बढ़कर 10.3 फीसदी हो गया. ट्रेड वेटेड औसत सीमा शुल्‍क की गणना के ल‍िए क‍िसी देश के कुल सीमा शुल्‍क राजस्‍व से उसके कुल आयात से घटा दिया जाता है.

भारत के महंगा आयात अभ‍ियान का पूरा असर समझने के लिए कुछ और भीतरी उतरना होगा. डब्‍लूटीओ के तहत सीमा शुल्‍क दरों के दो बड़े वर्ग हैं एक है एमएफएन टैरिफ यानी वह रियायती दर जो डब्लूटीओ के सदस्‍य देश एक दूसरे से व्‍यापार पर लागू करते हैं. यही बुनियादी डब्‍लूटीओ समझौता था. दूसरी दर है बाउंड टैरिफ जिसमें किसी देश अपने आयातों को अध‍िकतम आयात शुल्‍क लगाने की छूट मिलती है, चाहे वह आयात कहीं से हो रहा है. भारत के बाउंड टैरिफ सीमा शुल्‍क दर बढ़ते बढ़ते 2018 में  48.5 फीसदी की ऊंचाई पर पहुंच गई  जबकि एमएफएन सीमा शुल्‍क दरें औसत 13.5 फीसदी हैं. इसके अलावा कृष‍ि उत्‍पादों आदि पर सीमा शुल्‍क तो 112 फीसदी से ज्‍यादा है.

यही वजह थी कि बीते बरसों में मोदी ट्रंप दोस्‍ती के दावों बाद बावजूद व्‍यापार को लेकर अमेरिका और भारत के रिश्‍तों में खटास बढ़ती गई जो अब तक बनी हुई है. इसी संरंक्षणवाद के कारण प्रधानमंत्री मोदी के तमाम ग्‍लोबल अभ‍ियानों के बावजूद भारत सात वर्षों में एक नई व्‍यापार संध‍ि नहीं कर सका.

किसका नुकसान

आयातों की कीमत बढ़ाने की यह पूरी परियोजना इस बोदे और दकियानूसी तर्क के साथ गढ़ी गई कि यद‍ि आयात महंगे तो होंगे  देश में माल बनेगा. पर दरअसल एसा हुआ नहीं क्‍यों कि एकीकृत दुनिया में. उत्‍पादन की चेन को पूरा करने के लिए भारत को इलेक्‍ट्रानिक्‍स, पुर्जे, स्‍टील, मशीनें, रसायन आदि कई जरुरी चीजें आयात ही करनी हैं.

उदाहरण के लिए इलेक्‍ट्रानिक्‍स को लें जहां सबसे ज्‍यादा आयात शुल्‍क बढ़ा. बीते तीन साल में इलेक्‍ट्रानिक पुर्जों जैसे पीसीबी आदि का एक तिहाई आयात तो अकेले चीन से हुआ 2019-20 ज‍िसकी कीमत करीब 1.15 लाख करोड़ रुपये थी. शेष जरुरत ताईवान फिलीपींस आद‍ि से पूरी हुई.

स्‍वदेशीवाद की इस नीति ने भारत छोटे उद्योागें के पैर काट दिये हैं जिनकी सबसे बड़ी निर्भरता आयात‍ित कच्‍चे माल पर है. इंपोर्टेड महंगाई इन्‍हें सबसे ज्‍यादा भारी पड़ रही है. स्‍टील तांबा अल्‍युम‍िन‍ियम जैसे उत्‍पादों और मशीनरी पर आयात शुल्‍क बढ़ने से भारत के बड़े मेटल उत्‍पादकों ने दाम बढ़ा दि‍ये. गाज गिरी छोटे उद्योगों पर, यह धातुएं जिनका कच्‍चा माल हैं. इधर  सीधे आयात होने वाले पुर्जें व अन्‍य सामान पर सीमा शुल्‍क बढ़ने से पूरी उत्‍पादन चेन को महंगी हो गई.

भारत में अध‍िकांश छोटे उद्योगों के 2017 से कच्‍चे माल की महंगाई से जूझना शुरु कर दिया था. अब तो इस महंगाई का विकराल रुप उन के सर पर नाच रहा है. कुछ छोटे उद्योग बढ़ी कीमत पर कम कारोबार को मजबूर हैं जब कई दुकाने बंद हो रही हैं

ताजा खबर यह है कि इंपोर्टेड महंगाई का अपशकुन सरकार की बहुप्रचार‍ित मैन्‍युफैक्‍चरिंग प्रोत्‍साहन योजना (पीएलआई) का दरवाजा घेर कर बैठ गया है. चीन वियमनाम थाईलैंड और मैक्‍सिकों के टैरिफ लाइन और भारत की तुलना पर आधार‍ित, आईसीईए और इकध्‍वज एडवाइजर्स की एक ताजा रिपोर्ट बताती है कि भारत इलेक्‍ट्रान‍िक्‍स पुर्जों के आयात के मामले में सबसे ज्‍यादा महंगा है. यानी भारत की तुलना में इन देशों दोगुने और तीन गुना उत्‍पादों पुर्जों का सस्‍ता आयात संभव है. इसलिए उत्‍पादन के ल‍िए नकद प्रोत्‍साहन के बावजूद कंपनियों की निर्यात प्रतिस्‍पर्धात्‍मकता टूट रही है.

निर्यात के लिए व्‍यापार संध‍ियां करने  और बाजारों का लेन देन करने की जरुरत होती है आयात महंगा करने से आत्‍मनिर्भरता तो खैर क्‍या ही बढ़ती महंगाई को नए दांत मिल गए. उदाहरण के लिए भारत के ज्‍यादातर उद्येाग जहां पीएलआई में निवेश का दावा किया गया वहां उत्‍पादों की कीमतें कम नहीं हुई बल्‍क‍ि बढ़ी हैं. मोबाइल फोन इसका सबसे बड़ा नमूना है जहां सेमीकंडक्‍टर की कमी से पहले ही महंगाई आ गई थी.

जो इतिहास से नहीं सीखते

बात 15 वीं सदी की है. क्रिस्टोफर कोलम्बस की अटलांटिक पार यात्रा में अभी 62 साल बाकी थेमहान चीनी कप्तान झेंग हे अपने विराट जहाजी बेडे के साथ अफ्रीका तक की छह ऐतिहासिक यात्राओं के बाद चीन वापस लौट रहा था.  झेंग हे का बेड़ा कोलम्बस के जहाजी कारवां यानी सांता मारिया से पांच गुना बड़ा था. झेंग हे की वापसी तक मिंग सम्राट योंगल का निधन हो चुका थाचीन के भीतर खासी उथल पुथल थी. इस योंगल के उत्‍तराध‍िकारों ने एक अनोखा काम क‍िया. उन्‍होंने समुद्री यात्राओं पर पाबंदी लगाते हुए दो मस्तूल से अधिक बड़े जहाज बनाने पर मौत की सजा का ऐलान कर दिया

इसके बाद चीन का विदेश व्यापार अंधेरे में गुम गया. उधर स्पेन, पुर्तगाल, ब्रिटेन, डच बंदरगाहों पर जहाजी  बेड़े सजने लगे जिन्‍होंने अगले 500 साल में दुनिया को मथ डाला और व्‍यापार का तारीख बदल दी.

चीन को यह बात समझने में पांच शताब्‍द‍ियां लग गईं क‍ि कि जहाज बंदरगाह पर खड़े होने के लिए नहीं बनाए जातेदूसरी तरफ अमेर‍िका अपनी स्‍थापना के वक्‍त पर ही यानी 18 वीं सदी की शुरुआत ग्‍लोबल व्‍यापार की अहम‍ियत समझ गया था तभी तो अमेरिका के संस्‍थापन पुरखे बेंजामिन फ्रैंकलिन ने कहा था कि व्यापार से दुनिया का कोई देश कभी बर्बाद नहीं हुआ है 

अलबत्‍ता चीन ने जब एक बार ग्लोबलाइजेशन का जहाज छोड़ा तो फ‍िर दुन‍िया को अपना कारोबारी उपन‍िवेश बना ल‍िया लेक‍िन बीते 2500 साल में मुक्त व्यापार के फायदों से बार बार अमीर होने वाले भारत ने बीते छह साल में उलटी ही राह पकड़ ली.

एक पुराने व्‍यापार कूटनीतिकार ने कभी मुझसे कहा था कि सरकारें कुछ भी करें लेक‍िन उन्‍हें महंगाई का आयात नहीं करना चाहिए. वे हमेशा इस पर झुंझलाये रहते थे कि कोई भी समझदार सरकार जानबूझकर अपना उत्‍पादन महंगा क्‍यों करेगी. लेकि‍न सरकारें कब सीखती हैं, नसीहतें तो जनता को मिलती है, इंपोर्टेड महंगाई हमारी सबसे ताजी नसीहत है.   

ये डर है क़ाफ़िले वालो कहीं गुम कर दे

मिरा ही अपना उठाया हुआ ग़ुबार मुझे 



 

Saturday, February 20, 2021

महंगाई की कमाई

 

भारत में सरकार महंगाई बढ़ाती ही नहीं बल्कि बढ़ाने वालों को बढ़ावा भी देती हैं! सरकारों को समझदारी का मानसरोवर मानने वालेे एक उत्साही  , यह सुनकर भनभना उठेे. क्या कह रहे हो? सरकार ऐसा क्यों करेगी? जवाब आया कि रेत से सिर निकालिए. प्रसिद्ध अर्थविद् मिल्टन फ्रीडमन के जमाने से लेकर आज तक दुनिया का प्रत्येक अर्थशास्त्री यह जानता रहा है कि महंगाई ऐसा टैक्स है जो सरकारें बगैर कानून के लगाती हैं.

पेट्रोल-डीजल पर भारी टैक्स और बेकारी व गरीबी के बीच, मांग के बिना असंख्य उत्पादों की कीमतों में बढ़ोतरी मौसमी उठा-पटक की देन नहीं है. भारत की आर्थि‍क नीतियां अब फ्रीडमन को नहीं, ऑस्ट्रियन अर्थविद् फ्रेडरिक वान हायेक को भी सही साबित कर रही हैं, जो कहते थे, अधि‍कांश महंगाई सरकारें खुद पैदा करती हैं, अपने फायदे के लिए.

यानी कि सरकारों की प्रत्यक्ष नीतियों से निकलने वाली महंगाई, जो सिद्धांतों का हिस्सा थीं, वह भारत में हकीकत बन गई है.

महंगाई को बहुत से कद्रदान जरूरी शय बताते हैं लेकिन यह इस पर निर्भर है कि महंगाई का कौन सा संस्करण है. अच्छी महंगाई में मांग और खपत के साथ कीमतें बढ़ती हैं (डिमांड पुल इन्फ्लेशन). यानी मूल्यों के साथ कमाई (वेज पुश) भी बढ़ती है लेकिन भारत में सरकार ने महंगाई परिवार की सबसे दुर्गुणी औलाद को गोद ले लिया है, जिसमें मांग नहीं बल्कि उत्पादन और खपत की लागत बढ़ती है. यह कॉस्ट पुश इन्फ्लेशन है जो अब अपने विकराल रूप में उतर आई है.

महंगाई का यही अवतार अमीरों को अमीर और गरीबों को और ज्यादा निर्धन बनाता है. लागत बढ़ाने वाली महंगाई अक्सर टैक्स की ऊंची दरों या ईंधन कीमतों से निकलती है. सबसे ताजा वाकया 2008 के ब्रिटेन का है, जब दुनिया में बैंकिंग संकट के बाद गहरी मंदी के बीच वहां महंगाई बढ़ी, जिसकी वजह से मांग नहीं बल्कि टैक्स और देश की मुद्रा पाउंड स्ट‌र्लिंग के अवमूल्यन के कारण आयातों की महंगाई थी.

भारत का पूरा खपत टैक्स ढांचा सिर्फ महंगाई बढ़ाने की नीति पर केंद्रित है. जीएसटी, उत्पाद या सेवा की कीमत पर लगता है, यानी कीमत बढऩे से टैक्स की उगाही बढ़ती है. खपत पर सभी टैक्स देते हैं और इसलिए सरकार खपत को हर तरह से निचोड़ती है. केंद्र और राज्यों में एक ही उत्पाद और सेवा पर दोहरे-तिहरे टैक्स हैं, टैक्स पर टैक्स यानी सेस की भरमार है. आत्मनिर्भरता के नाम पर महंगी इंपोर्ट ड्यूटी है, यही महंगाई बनकर फूट रहा है.

भारत सस्ते उत्पादन के बावजूद महंगी कीमतों वाला मुल्क है. पेट्रोल-डीजल सस्ते उत्पादन के बावजूद टैक्स के कारण जानलेवा बने हुए हैं. दक्षिण एशि‍या के 12 प्रमुख देशों की तुलना में भारत में बिजली की उत्पादन लागत सबसे कम है (वुड मैकेंजी रिपोर्ट) लेकिन हम लागत की तीन गुनी कीमत भरते हैं. टैक्स वाली महंगाई भूमि, धातुओं, ऊर्जा, परिवहन को लगातार महंगा कर रही है जिसके कारण अन्य उत्पाद व सेवाएं महंगी होती हैं. ताजा महंगाई के आंकड़े बता रहे हैं कि अर्थव्यवस्था अब मौसमी नहीं बल्कि बुनियादी महंगाई (कोर इन्फ्लेशन) की शि‍कार है, जो मांग न होने के बावजूद इसलिए बढ़ रही है क्योंकि लागत बढ़ रही है.  

महंगाई अब सरकार, मैन्युफैक्चरिंग और सर्विसेज कंपनियों का साझा उपक्रम है. टैक्स पर टैक्स थोपकर सरकारें उत्पादकों को कीमतें बढ़ाने की खुली छूट दे देती हैं. अप्रत्यक्ष टैक्स उत्पादक नहीं देते, यह तो उपभोक्ता की जेब से निकलता है, इसलिए कंपनियां खुशी-खुशी कीमत बढ़ाती हैं. मसलन, बीते साल अगस्त से दिसंबर के बीच स्टील की कीमत 37 फीसद बढ़ गई और असंख्य उत्पाद महंगे हो गए.

मंदी के बीच इस तरह की महंगाई, एक के बाद दूसरी लागत बढऩे का दुष्चक्र रचती है, जिसमें हम बुरी तरह फंस रहे हैं. अगर आपको लगता है कि यह मुसीबतों के बीच मुनाफाखोरी है तो सही पकड़े हैं. जीएसटी के तहत जो टैक्स दरें घटीं उन्हें कंपनियों ने उपभोक्ताओं से नहीं बांटा यानी कीमतें नहीं घटाईं. जीएसटी की ऐंटी प्रॉफिटियरिंग अथॉरिटी ने एचयूएल, नेस्ले से लेकर पतंजलि तक कई बड़े नामों को 1,700 करोड़ रुपए की मुनाफाखोरी करते पकड़ा. लेकिन इस फैसले के खि‍लाफ कंपनियां हाइकोर्ट में मुकदमा लड़ रही हैं और मुनाफाखोरी रोकने वाले प्रावधान को जीएसटी से हटाने की लामबंदी कर रही हैं.

अक्षम नीतियों और भारी टैक्स के कारण ईंधन, ऊर्जा और अन्य जरूरी सेवाओं की कीमत उनकी लागत से बहुत ज्यादा है. मंदी में मांग तो बढऩी नहीं है इसलिए जो बिक रहा है महंगा हो रहा है. कंपनियों ने बढ़ते टैक्स की ओट में, बढ़ी हुई लागत को उपभोक्ताओं पर थोप कर मुनाफा संजोना शुरू कर दिया है. वे एक तरह से सरकार की टैक्स वसूली सेवा का हिस्सा बन रही हैं. कंपनियां सारे खर्च निकालने के बाद बचे मुनाफे पर टैक्स देती हैं और उसमें भी 2018 में सरकार ने उन्हें बड़ी रियायत (कॉर्पोरेट टैक्स) दी है.

तो क्या भारत ‘क्रोनी इन्फ्लेशन’ का आविष्कार कर रहा है?