क्या दुनिया का ऊर्जा बाजार इजरायल और सीरिया व इजिप्ट के बीच यॉम किपुर युद्ध वाले प्रस्थान बिंदु पर आ गया है ?
युक्रेन पर रुस का हमला
और दुनिया के तेल गैस बाजारों में अफरा तफरी हमें 1970 वाले मुकाम पर ले आई है जहां
से ऊर्जा बाजार को नई दिशा चुननी पड़ी थी
वह यॉम किपुर का ही दिन
था. यहूदियों का सबसे पवित्र सबसे मुबारक दिन. कहते हैं इसी दिन मोजे़ज पर ज्ञान
उतरा था यहूदियों के लिए यॉम किपुर को क्षमा याचना और प्रायश्चित का दिन है हैं. 1973 का यॉम किपुर अक्टूबर में आया था.
इज़रायल की खुफिया
एजेंसियों को अनुमान तो था कि 1967 के छह दिन वाले युद्ध बदला लेने के लिए इजिप्ट
और सीरिया कुछ तो करने वाले हैं .. 1967 में जब
इज़रायल की वायुसेना ने 5 जून की सुबह अचानक सुबह इजिप्ट और सीरिया के हवाई
अड्डों पर हमला इन देशों की 90 फीसदी वायु सेना खत्म कर दी थी और गाज़ा पट्टी व सिनाई प्रायद्वीप पर कब्जा कर लिया.
अनवर सादात और असद के
नेृतत्व में इजिप्ट और सीरिया ने 6 अक्टूबर
की दोपहर 1973 इजरायल पर बहुत बड़ा हमला बोला. गोल्डा मायर के इज़़रायल को तगड़ी
चोट लगी. अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन इज़रायल की मदद के लिए आगे आए. तो ओपेक
देशों ने अमेरिका को तेल निर्यात रोक दिया और उत्पादन घटा दिया. तेल की कीमत
खौलने लगी. अमेरिका में ऊर्जा संकट शुरु हो गया.
ओपेक का ऑयल
इंबार्गो अमेरिका की महंगाई के बीच आया
थी. 1968 से 1973 के बीच ब्रेटन वुड्स व्यवस्था खत्म हो रही थी. जिसके तहत सोने
के बदले डॉलर का एक मूल्य तय किया गया था
जो 35 डॉलर प्रति औंस था. राष्ट्रपति निक्सन ने अगस्त 1973 में डॉलर और
सोने का रिश्ता खत्म कर दिया. डॉलर के अवमूल्यन से अमेरिकी निर्यात को फायदा
हुआ लेकिन तेल निर्यातक देशों को बड़ा नुकसान हुआ जिनका निर्यात की कमाई डॉलर में
थी. इस वजह से भी अमेरिका को तेल
निर्यातकों का गुस्सा झेलना पड़ा.
ब्रेटन वुड्स गया तो अन्य
देशों ने अपने मुद्रा विनिमय नियम तय करने शुरु कर दिये. अमेरिका को तेल निर्यात
पर पाबंदी मार्च 1974 में खत्म हो गई. सितंबर 1978 में कैम्प डेविड समझौते के साथ
मध्य पूर्व के देशों और इज़रायल का झगड़ा भी निबट गया लेकिन अमेरिका पर ओपेक की छह माह तेल निर्यात पाबंदी के साथ पूरी दुनिया में
ऊर्जा बाजार में बड़े बदलाव की बुनियाद रख
दी गई .
यहां से यूरोप में नेचुरल गैस और विंड एनर्जी, सौर
ऊर्जा और बाद में दशकों में अमेरिका में शेल ऑयल का उत्पादन परवान चढ़ा.
अलबत्ता इन बदलावों से पहले
युक्रेन में फटती मिसाइलों के बीच ऊर्जा बाजार के मौजूदा माहौल को करीब देखना
जरुरी है ताकि इसका यॉम किपुर संदर्भ समझा
जा सके
बहुत कुछ बदल
गया तब से
2006 और 2009 में रुस ने
यूक्रेन के जरिये यूरोप जाने वाली गैस की आपूर्ति में कटौती की थी. यह गैस का रणनीतिक
प्रयोग था. कई देशों में औद्योगिक उत्पादन
पर गहरा असर पडा. इसके बाद 2010 ने नाटो ने ऊर्जा सुरक्षा पर ब्रसेल्स में एक नया
डिवीजन और लिथुआनिया में विशेष केंद्र बनाया.
बीसवीं सदी के अंत से
दुनिया में पर्यावरण की जागरुकता के साथ बिजली उत्पादन के लिए प्रदूषण वाले कोयले की जगह नेचुरल गैस का
प्रयोग होने लगा. जिसकी मदद से कार्बन उत्सर्जन
में कमी आई. यूरोस्टैट के आंकड़ों के अब केवल 20 फीसदी ऊर्जा कोयले से आती है 80
फीसदी बिजली उत्पादन में क्षमता विंड एनर्जी सहित अक्षय ऊर्जा स्रोतों और नेचुरल गैस व ऑयल बराबर के हिस्सेदार
हैं. यूरोप 2025 तक अपने अधिकांश कोयला बिजली
संयंत्र खत्म कर देगा.
इस बदलाव से नेचुरल गैस बीते
एक दशक में नेचुरल गैस और एलएनजी की मांग करीब 6 फीसदी की सालाना दर से बढ़ी जो प्रमुख तेल कंपनी शेल के अनुसान 2040 तक
दोगुनी हो जाएगी.
यूरोप को नॉर्थ सी गैसे
मिलती थी जिसका उत्पादन कम होने लगा था. यूरोप
को बिजली के साथ सर्दी में घर गर्म रखने के लिए भी गैस चाहिए. मांग बढ़ी तो रुस की ताकत गैस के बाजार में बढ़ती चली गई जो करीब
47.8 अरब क्यूबिक मीटर गैस उत्पादन के दुनिया का सबसे बड़ा गैस उत्पादक है और
यूरोप अपनी 40 फीसदी जरुरत के लिए रुस की
गैस का मोहताज़ है. जो चार पाइपलाइनों के जरिये यूरोप आती है जिसमें एक नार्ड स्ट्रीम
का दूसरा चरण जिस पर अब प्रतिबंध लग गया है. यह लाइन तैयार है बस शुरु होने वाली
थी. यूरोप के लिए नार्वे दूसरा बड़ा स्रोत है. अल्जीरिया तीसरा.
रुस के बाद गैस का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश ईरान है और
फिर कतर और अमेरिका हैं. ईरान से टर्की होते हुए एक गैस पाइप लाइन यूरोप तक आनी थी
जिसे पर्शियन पाइप लाइन कहा गया था. ईरान पर प्रतिबंधों के बाद यह योजना अधर में है.
रुस की ताकत
का तोड़
कच्चे तेल के उत्पादन
में जो ताकत अरब देशों के पास संयुक्त तौर पर
है वह गैस में वह अकेले रुस के पास
है. रुस ने बदलती भू राजनीति में नेचुरल गैस की बड़ी पाइपलानों से टर्की और चीन
को जोड़ा है. टर्कस्ट्रीम पाइप लाइन यूक्रेन
को अलग करते हुए ब्लैक सी के रास्ते टर्की जाती है जिसका उद्घाटन जनवरी 2020 में हुआ. पॉवर ऑफ
साइबेरिया पाइप लाइन चीन को गैस पहुंचाती है. यह यूरोप वाले गैस नेटवर्क का हिस्सा
नहीं यानी रुस रणनीतिक तौर पर यूरोप में गैस महंगी करती है चीन में नहीं. पॉवर ऑफ
साइबेरिया पाइप लाइन का दूसरा चरण शुरु होने वाला है. कजाकस्तान के जरिये एक और
लाइन डालने की तैयारी भी है.
2019 के बाद यूरोप में
विंडी एनर्जी का उत्पादन घटा, कोविड के कारण गैस व तेल की आपूर्ति बाधित हुई और
2019 से गैस कीमत बढ़ने लगी. कोविड के बाद 2021 में गैस की कीमत 500 फीसदी तक बढ़
गई. बीते दो बरसों के दौरान ओपेक ने अंतरराष्ट्रीय दबाव के बावजूद तेल उत्पादन में बढ़ोत्तरी की नियंत्रित रखा
है और कीमतों कम नहीं होने दिया.
अब रुस यूक्रेन जंग के
बाद यूरोप में बिजली और परिवहन महंगी हो रहा है वहीं कोयला संयंत्रों को बंद करने
योजना पर फिर से विचार हो रहा है यानी पर्यावरण के लिए खतरा बढ़ जाएगा. दूसरी तरफ
पूरी दुनिया में तेल की प्रमुख खपत वाले देशों को पूरी अर्थव्यवस्था ही टूट रही
है. तेल और गैस एक साथ महंगे हाते हैं तो एलएनजी जो टैंकर दुनिया भर में जाती है
उसकी कीमतों में भी आग लगी है.
क्या बदल गया
1970 के बाद
वापस लौटते हैं यौम किपुर
यानी 1970 के तेल इंबार्गो की तरफ, जिसके बाद अमेरिका को
ईरान संकट से कारण भी तेल की कमी झेलनी पड़ी थी. उस संकट ने दुनिया को एक तरह से बदल दिया
पहला- अमेरिका
में ऊर्जा नीति बदली. तेल गैस की खोज में निवेश बढ़ा. जो शेल तक आया. तेल के इस्तेमाल
से अमेरिका में बिजली का उत्पादन लगभग खत्म हो गया. अमेरिका 2018 में दुनिया का
सबसे बड़ा तेल उत्पादन और 2019 तेल आयात
में आत्मनिर्भर हो गया. निर्यात भी खोल दिया.
दूसरा- रणनीतिक तेल
रिजर्व बनने शुरु हुए.
तीसरा- आटो कंपनियों के
लिए नियम बदले.तेल निगलने वाली कारों की जगह छोटी और ज्यादा माइलनेज की कारें
बननी शुरु हुई. इस क्रांति पूरी दुनिया में आटो उद्योग को पंख लग गए
चौथा. अक्षय
उर्जा यानी विंड सोलर ऊर्जा और एथनॉल के आदि के उत्पादन शुरु हुए. इसके बाद यूरोप
ने तेजी से अपनी बिजली उत्पादन को अक्षय ऊर्जा पर केंद्रित किया
अब आगे क्या
रुस यूक्रेन संकट बाद
2022 1970 की तुलना में 2022 और कठिन है क्यों कि तेल और गैस की बादशाहत सिरफिरे
और जिद्ी नेताओं के हाथ है जबकि दुनिया सस्ती ऊर्जा के लिए बेचैन है जिसमें
नेचुरल गैस उसकी पूरी रणनीति का केंद्र है. अब रुस और अरब मुल्क मिलकर देशों की
अर्थव्यवस्था चौपट कर रहे हैं.
यहां तीन प्रमुख रास्ते
निकलते दिखते हैं
पहला- दुनिया इलेक्ट्रिक
वाहनों की तरफ जा रही है ताकि पेट्रोल निर्भरता और प्रदूषण रोका जा सके. लेकिन
बिजली के लिए नेचुरल गैस पर निर्भरता बढ़ती जा रही है जहां ओपेक जैसा ही हाल है.
अब अगले एक दशक में दुनिया को कोयले से पर्यावरण के तौर पर सुरक्षित बिजली बनाने
पर निवेश करना होगा क्यों कि वही एक ऊर्जा स्रोत है जो लगभग हर महाद्वीप के पास
है. वर्ल्ड कोल एसोसिएशन के अध्यन मानते हैं कि कोयल से ग्रीन एनर्जी पूरी तरह
मुमकिन है और इसकी तकनीकें तैयार हैं.
दूसरा- दुनिया के देशों
को नेचुरल गैस और तेल के नए स्रोत तलाशने होंगे. साइंस डायरेक्ट में प्रकाशित अध्ययन
मानते हैं कि दुनिया में अभी आधे रिजर्व भी खोजे गए हैं. इनमें बड़ा हिस्सा
समुद्रों में है. जिसकी तलाश करनी होगी. 2015 में जीई की एक रिपोर्ट ने बताया था
भारत में करीब 18 ट्रिलियन क्यूबिक फिट का रिजर्व पहचाना जा चुका है मगर उत्पादन
शुरु नहीं हुआ है.
तीसरा- न्यूनतम प्रदूषण
के साथ हाइड्रोजन एनर्जी भविष्य का विकल्प है. अभी यह महंगी है और तकनीकें बन
रही हैं लेकिन 1970 में शेल गैस या विंड एनर्जी के बारे में भी इसी तरह के ख्याल
थे
दुनिया का पहले ऊर्जा मानचित्र को 1970 के अरब इजरायल युद्ध
ने बदला था. 2010 तक दुनिया पूरी तरह बदल चुकी थी अब 2050 तक हम नए नई ऊर्जा
अर्थव्यवस्था में होंगे जो शुरुआत में महंगी हो सकती है लेकिन बाद में शायद
सुरक्षित और स्थायी हो सकेगी.