इतिहास स्वयं को हजार तरीकों से दोहराता रह सकता है. लेकिन संदेश हमेशा बड़े साफ होते हैं. इतने साफ कि हम माया सभ्यता की स्मृतियों को भारत में कृषि कानूनों की वापसी के साथ महसूस कर सकते हैं. अब तो पुराने नए सबकों का एक पूरा कुनबा तैयार है जो हमें इस सच से आंख मिलाने की ताकत देता है कि चरम सफलता व लोकप्रिता के बाद भी, शासक और सरकारें हकीकत से कटी पाई जा सकती हैं
स्पेनी
हमलावर नायकों पेड्रो डी अल्वराडो और हरमन कोर्टेस को भले ही माया सभ्यता को
मिटाने का तमगा या तोहमत मिला हो लेकिन
अल्वराडो 16 वीं सदी की शुरुआत में जब यूटेलटान (आज का ग्वाटेमाला)
पहुंचा तब तक महान माया साम्राज्य दरक चुका था. शासकों और जनता के बीच विश्वास
ढहने से इस सभ्यता की ताकत छीज गई थी. माया नगर राज्यों में सत्ता के जिस केंद्रीकरण ने भाषा, लिपि कैलेंडर, भव्य नगर व भवन के साथ यह चमत्कारिक
सभ्यता (200 से 900 ईसवी स्वर्ण युग) बनाई थी उसी में
केंद्रीकरण के चलते शासकों ने आम लोगों खासतौर पर किसानों कामगारों से जुडे एसे
फैसले किये जिससे भरोसे का तानाबाना बिखर गया. इसके बाद माया सम्राट केइश को
हराने में अल्वराडो और हरमन कोर्टेस को ज्यादा वक्त नहीं लगा.
2500
वर्ष में एसा बार बार होता
रहा है कि शासक और सरकारें अपनी पूरी सदाशयता के बावजूद वास्तविकतायें समझने में
चूक जाती हैं, व्यवस्था ढह जाती हैं और बने बनाये कानून
पलटने पड़ते हैं. एक साल बाद कृषि कानूनों को वापस लेने की चुनावी व्याख्या तो
कामचलाऊ है. इन्हें गहराई में जाकर देखने पर सवाल गुर्राता है कि बड़े आर्थिक
सुधारों से लोग सहमत क्यों नहीं हो रहे?
भारत
में राजनीतिक खांचे इतने वीभत्स हो चुके हैं कि नीतियों की सफलता-विफलता पर निष्पक्ष शोध दुर्लभ हैं. अलबत्ता इस मोहभंग की वजहें तलाशी जा सकती
हैं . बीते एक दशक से आईएमएफ यह समझने की कोशिश कर रहा है कि उभरती अर्थव्यवस्थाओं
में सुधार पटरी से क्यों उतर जाते हैं.
विश्व
बैंक और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी का
ताजा अध्ययन, (श्रुति खेमानी 2020 )
भारत में कृषि सुधारों की पालकी लौटने के संदर्भ में बहुत कीमती
है. इस अध्ययन ने पाया कि दुनिया में सुधारों का पूरा फार्मूला केवल तीन उपायों
में सिमट गया है. एक है निजीकरण, दूसरा और कानूनों का
उदारीकरण और सब्सिडी खत्म करना. दुनिया के अर्थविद
इसे हर मर्ज की संजीवनी समझ कर चटाते हैं.
मानो सुधारों का मतलब सिर्फ इतना ही हो.
राजनीति
लोगों की नब्ज क्यों नहीं समझ पाती ? अर्थविद अपने सिद्धांत कोटरों से बाहर क्यों नहीं निकल पाते? सुधार उन्हीं को क्येां डराते हैं जिनको इनका फायदा मिलना चाहिए?
जवाब के लिए असंगति की इस गुफा में
गहरे पैठना जरुरी है. सुधारों की परिभाषा केवल जिद्दी तौर सीमित ही नहीं हो गई है
बल्कि इनके केंद्र में आम लोग नजर नहीं आते. भले ही यह फैसले बाद में बडी आबादी
को फायदा पहुंचायें लेकिन इनके आयोजन और
संवादों के मंच पर में कं पनियां
और उनके एकाधिकार दिखते हैं जैसे कि बैंकों के
निजीकरण की चर्चाओं के केंद्र में जमाकर्ता या बैंक उपभोक्ता को तलाशना मुश्किल
है. कृषि सुधारों का आशय तो किसानों की आय बढाना था
लेकिन उपायों के पर्चे पर निजीकरण, कारपोरेट वाले चेहरे
छपे थे. इसलिए सुधार जिनके लिए बनाये गए थे वही लोग बागी हो गए.
भारत
ही नहीं अफ्रीका और एशिया के कई देशों में कृषि सुधार सबसे कठिन पाए गए हैं.
कृषि दुनिया की सबसे पुरानी निजी आर्थिक गतिविधि है. सदियों से लोकमानस
में यह संप त्ति के मूलभूत अधिकार और व जीविका के अंतिम आयोजन के तौर पर उपस्थित
है. उद्योग, सेवा या तकनीक जैसे
किसी दूसरे आर्थिक उत्पादन की तुलना में खेती बेहद
व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामुदायिक आर्थिक उपार्जन है. कृषि सुधारों का सबसे सफल आयोजन चीन में हुआ लेकिन
वहां भी इसलिए क्यों कि देंग श्याओ पेंग ने (1981) कृषि के उत्पादन व लाभ पर किसानों का अधिकार सुनिश्चित कर दिया.
आर्थिक
सुधार पहले चरण में बहुत सारी नेमतें बख्शते हैं. जैसे कि 1991 के सुधार से भारत को बहुत कुछ
मिला. लेकिन प्रत्येक सुधार 1991 वाला नहीं होता.
आर्थिक सुधार दूसरे चरण में कुर्बानियां
मांगते हैं. इसके लिए सुधारों
के विजेताओं और हारने वालों के ईमानदार मूल्यांकन चाहिए. अर्थशास्त्री मार्केट सक्सेस की दुहाई देते हैं मगर मार्केट फेल्योर
(बाजार की विफलताओं) पर चर्चा नहीं करते. जिसके गहरे तजुर्बे आम लोगों के पास हैं
इसलिए सरकारी नीतियो के अर्थशास्त्र पर आम लोगों का अनुभवजन्य अर्थशास्त्र
भारी पड़ने लगा है.
सुधारों
से चिढ़ बढ़ रही है क्यों
कि सरकारें इन पर बहससिद्ध सहमति नहीं बनाना चाहतीं. जीएसटी हो या कृषि बिल सरकार ने उनके सवाल ही नहीं सुने जिनके लिए इनका
अवतार हुआ था. सनद रहे कि लोगों को सवाल पूछने की ताकत देने की जिम्मेदारी भी
सत्ता की है. शासन को ही यह तय करना होता है कि ताकत का केंद्रीकरण किस सीमा तक किया
जाए और फैसलों में लोगों की भागीदारी किस तरह सुनिश्चित की जाए.
दूसरे
रोमन सम्राट टिबेरियस (42 ईपू से 37 ई) ने फैसले लेने वाली साझा सभा को समाप्त कर दिया और ताकत सीनेट को दे दी. इसके बाद
ताकत का केंद्रीकरण इस कदर बढ़ा कि आम रोमवासी अपने संपत्ति अधिकारो को लेकर
आशंकित होने लगे. अंतत: गृह युद्धों व बाहरी युद्धों से गुजरता हुआ रोमन साम्राज्य
करीब 5वीं सदी में ढह गया ठीक उसी तरह जैसा कि माया सभ्यता में हुआ था.
बीते
ढाई दशक में लोगों में आर्थिक सुधारों
के फायदों और नुक्सानों की समझ बनी है. मंदी से टूटे
लोग कमाई और जीवन स्तर में ठोस बेहतरी के प्रमाण व उपाय चाहते हैं. यही वजह है कि विराट प्रचार तंत्र के बावजूद सरकार लोगों को सुधारों के
फायदे नहीं समझा पाती. सुधारों की भाषा उनके लिए ही
अबूझ हो गई जिनके लिए उन्हें गढ़ा जा रहा
है . सरकारें और उनके अर्थशास्त्री जिन्हें सुधार बताते
हैं जनता उन्हें अब सत्ता का अहंकार समझने लगी है.
कृषि
कानूनों की दंभजन्य घोषणा पर जितनी चिंता थी उतनी ही फिक्र इनकी वापसी पर भी होनी चाहिए जो सरकारों से विश्वास टूटने का प्रमाण है. भारत को सुधारों का क्रम व
संवाद ठीक करना होगा ताकि ईमानदार व पारदर्शी बाजार
में भरोसा बना रहे. सनद रहे कि गुस्साए लोग सरकार तो
बदल सकते हैं, बाजार नहीं. मुक्त
बाजार पर विश्वास टूटा तो सब बिखर जाएगा क्योंकि कोई सरकार
कितनी भी बड़ी हो, वह बाजार से मिल रहे अवसरों का
विकल्प नहीं बन सकती.
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