एक जमीन का मालिक मगर पैसे में कमजोर, दूसरा पैसे में मजबूत और खजाना तलाशने वालाऔर तीसरा वह जिसने खजाना मिलने से पहले ही खरीदने का सौदा कर लिया। ... यह कहानी है एक खजाने की है जिसमेंं दिलचस्प मोड़ खजाना मिलने के बाद आता है क्यों कि तब नीयत बदलती है। जिसने खजाना निकाला वह ऊंची कीमत वसूलने के हक में, तो जो खरीदने का सौदा पहले ही किये बैठा था उसे लगा धोखा हुआ। और इस बीच जिसकी जमीन थी वह भी आ धमका और उसने कहा कि खजाने की कीमत और बंटवारे का हिसाब वह करेगा। तो अब झगड़ा चालू है। यह कहानी है दरअसल कृष्णा गोदावरी बेसिन की, गैस के झगड़े की और अंबानी भाइयों के बीच विवाद की। इसमें पहला पात्र सरकार है, दूसरी है मुकेश अंबानी की रिलायंस और तीसरे पात्र हैं अनिल अंबानी।
द ग्रेट गैस शो!
इसे झगड़ा नहीं बल्कि प्रहसन या हास्य नाटक कहिये। जिसमें गफलतें ही गफलतें होती हैं और फिर सब अपनी-अपनी तरह से उन्हें ढंकने की कोशिश करते हैं। अरबों रुपये का खेल, अंबानी परिवार का फैमिली ड्रामा, शेयरधारकों की बैठक के बीच फूटा इमोशन , कंपनियों और सियासत से रिश्तों की चर्चायें, दांव पेंच, लंबे अदालती सीन । सब कुछ है इस स्क्रिप्ट में लेकिन ठहरिये यह ड्रामा नहंी है। यह देश की ऊर्जा सुरक्षा का मसला है, जिसे ठोस नीतियों व पारदर्शिता की दरकार है। जो कहीं नजर नहीं आतीं। इसलिए यह पूरा प्रकरण देश की किरकिरी कराने वाले एक ड्रामे में बदल गया है। इस झगड़े के कुछ सूत्र अंबानी परिवार की कलह से जरुर जुड़ते हैं पर वह कलह उतनी अहम नहीं है जितनी अहम है सरकार की गफलत और नीतिगत चूक जिसके कारण गैस क्षेत्र अंबानियों के झगड़े के सुलझने का मोहताज हो गया है।
परिवार का झगड़ा या सरकार का?
अंबानी परिवार का झगड़ा भी कानून के तहत किसी अदालत में हल हो सकता है बशर्ते सरकार के पास नीति साफ हो लेकिन यह सरकार ने अदूरदर्शी नीतियों और औचक कदमों से, गैस के मामले में, इस पारिवारिक झगड़े को एक राष्ट्रीय समस्या बना दिया। 2005 में अंबानी आत्मजों ने यह समझौता किया था कि मुकेश की कंपनी रिलायंस इंडस्ट्रीज अनिल की कंपनी रिलायंस नेचुरल रिसोर्स लिमिटेड को 17 वर्ष के लिए 2.34 डॉलर प्रति एमबीटीयू (मिलियन ब्रिटिश क्यूबिक थर्मल यूनिट) पर 280 लाख घन मीटर गैस बेचेगी। जब गैस मिल गई तो उसके साथ मुकेश अंबानी को 2007 में जारी का एक ऑर्डर भी मिल गया जिसमें गैस को 4.20 डॉलर प्रति एमबीटीयू पर बेचने की शर्त रखी गई थी। खजाने निकालने वाले ने इसे पकड़ लिया। मामला मुंबई हाई कोर्ट गया और अदालत ने पुराने समझौते पर ही मुहर लगा दी। विवाद जब सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तब सरकार सोते से जागी और उसने अंबानी परिवार का करार रद्द करने की अर्जी डाल दी। परिवार का झगड़ा परिवार और अदालत जाने, बात तो सरकार की है, जो नीतियों की कलाबाजी खाती रही है और विभिन्न पक्षों को नियम प्रावधानों को अपनी तरह से बखानने का मौका देती रही।
गलतियों की कॉमेडी
केजी बेसिन प्रतिदिन 120 मिलियन क्यूबिक मीटर गैस प्रतिदिन दे सकता है जिससे देश का गैस का प्राकृतिक गैस उत्पादन दोगुना हो जाएगा और इससे दाभोल आकार के 15 बिजली घर चल सकते हैं। मगर जब यह खुलासा हुआ तो साथ ही यह पता लगा कि केजी बेसिन के भीतर से जब गैस निकली तो इसे बांटने बेचने के लिए नीतियों की पाइप लाइन ही नहीं है। फिर क्या था सरकार ने रंग पर रंग बदलने शुरु किये। दस पुरानी गैस तेल खोज नीति के तहत कंपनियों को गैस की कीमत तय करने व मार्केटिंग का अधिकार देने के फैसले से पीछे वह हट गई। तो गैस यूटिलाइजेशन नीति को लेकर बगलें झांकती रही। इस नीति के तहत यह तय होना है कि किस उद्योग कितनी गैस मिलेगी। इस नी िका प्रारुप दिसंबर 2007 में बना, जून 2008 में बदला गया और इस साल फरवरी व अप्रैल में फिर बदलाव हुए। मगर पेंच खत्म नहीं हुए क्यों कि यह नीति सिर्फ रिलायंस के केजी बेसिन उत्पाद बंटवारा समझौते के पर लागू होगी। यानी कि केयर्न, ओएनजीसी, पेट्रोनेट एलएनजी आदि कंपनियां जो गैस निकाल रहीं हैं उसके इस्तेमाल की नीति अभी भी हवा में है।
एक कीमती फार्मूला
गफलत सिर्फ इतनी ही नहीं गैस की कीमत तय करने को लेकर झगड़ा इतना पेचीदा है कि सिर्फ एक प्रावधान पर अदालत की व्याख्या करोड़ों का खेल कर सकती है और इससे न केवल अंबानी परिवारों के लिए सब कुछ बदल सकता है बल्कि आने वाले दौर में गैस क्षेत्र में निवेश से पहले कंपनियों को सोचना भी पड़ सकता है। गैस की कीमत तय करने के फार्मूले से सिर्फ इन विवाद का ही हल नहीं निकलना है बल्कि यह भी तय होना है कि गैस का इस्तेमाल करने वाले उद्योगों ने जो निवेश उसका क्या होगा और आगे कौन कितना निवेश करेगा।
देश को इस बात पर संतोष होना चाहिए था कि अर्से बाद देश में गैस का एक बड़ा खजाना मिला है जो ऊर्जा की चिंताओं कम करते हुए विकास की रफ्तार तेज करेगा लेकिन यहां तो हालत उलटी है ऊर्जा सुरक्षा बढऩे की उम्मीदें एक परिवार के झगड़े की बंधक बन गई हैं। क्यों कि इस दुर्लभ प्राकृतिक संसाधन के न्यायसंगत बंटवारे और तर्कसंगत मूल्यांकन की नीतियों को लेकर सरकार खुद गैस में तैर रही थी। इसलिए ऊर्जा की चिंता छोड़ इस गैस शो का आनंद लीजिये। खजाने की इस कहानी में अभी कुछ और दिलचस्प मोड़ आएंगे।
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